कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अपनी सारी ज़िन्दगी जनसेवा को समर्पित कर देते हैं और पलट कर भी नहीं देखते कि उनके पीछे उनके परिवार का क्या हाल है। ऐसे ही शख़्स थे कॉमरेड सुरेश भट्ट। उनमें बचपन से ही देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। वह अन्याय बर्दाश्त नहीं कर पाते थे और इसके ख़िलाफ़ उठ खड़े होते थे।
कॉमरेड सुरेश भट्ट का जन्म स्वतंत्रता से पूर्व बिहार के नवादा में रामनवमी के दिन हुआ था। इसलिए उनके पिता पंडित यमुना प्रसाद कविराज उन्हें 'राम' कहते थे। उनके पिता अपने शहर के प्रतिष्ठित और प्रभावशाली व्यक्ति थे। वह चिकित्सक होने के साथ-साथ व्यवसायी भी थे। उनका एक सिनेमा हॉल था। उनका ईंट भट्टे का व्यवसाय भी था। उनके घर शहर के कलक्टर से लेकर अन्य सरकारी अधिकारियों का भी आना जाना रहता था। इनमें अंग्रेज़ भी शामिल थे। चूंकि सुरेश भट्ट पक्के देशभक्त थे, इसलिए वह देश पर क़ब्ज़ा करने वाले अंग्रेज़ों को पसंद नहीं करते थे। एक बार उन्हें शक हुआ कि उनके पिता अंग्रेज़ों के मुख़बिर हैं। इसलिए उन्होंने चुपके से टेलीफ़ोन का तार काट दिया, ताकि वह बात न कर सकें। एक बार कोई अंग्रेज़ अधिकारी उनके घर पिता से मिलने के लिए आया, तो उसे देखकर उन्हें बहुत ग़ुस्सा आया। उन्होंने उस अधिकारी की जीप में आग लगा दी और घर से भाग गए। तब वह मात्र पंद्रह साल के थे। कुछ वक़्त बाद वह छात्र आन्दोलन से जुड़ गए। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए गोलियां चलाई गईं, जिससे उनके दो साथी महेंद्र सिंह और दीनानाथ पांडे की मौत हो गई। इस घटना से वह बहुत विचलित हो गए। यह सब देखकर उनके पिता को बहुत दुख हुआ। उन्होंने सोचा कि ऐसे तो वंश ही ख़त्म हो जाएगा। इसलिए उन्होंने सरस्वती से उनका विवाह करवा दिया। उस वक़्त वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे।
पढ़ाई के दौरान वह महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के संपर्क में आए। उन्होंने संतों की जीवनियां पढ़नी शुरू कीं। उन्होंने संत कबीर, विवेकानंद, राहुल सांकृत्यायन और भगत सिंह के साथ मार्क्स, लेनिन, चेगुअरा और फ़िडेल कास्त्रो आदि को पढ़ा। उन्होंने समाजवाद की परिभाषा समझी और पूंजीपतियों के ख़िलाफ़ क्रांति शुरू कर दी। उन्होंने अपने पिता का यह कहकर विरोध किया कि वह मज़दूरों और कर्मचारियों को उनका वाजिब हिस्सा नहीं देते। उन्होंने अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए चल रही गतिविधियों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उन्होंने रेल लाइनें उखाड़ डालीं और पोस्ट ऑफ़िस में आग लगा दी। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर उन्हें सात साल की क़ैद की सज़ा हुई। जेल से आने के बाद भी उन्होंने अपना विरोध जारी रखा। इस वजह से वह अपनी पत्नी से विमुख ही रहे। विवाह के पंद्रहवें साल में उनकी पहली संतान हुई, जिसका नाम उन्होंने 'क्रांति' रखा। देश आज़ाद हो चुका था। लेकिन आज़ादी के कुछ वक़्त बाद ही जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन शुरू हो गया। वह उसमें भी शामिल हो गए। उन्हीं दिनों देश में इमरजेंसी लग गई। उस वक़्त वह मासिक 'लाल सलाम' निकाल रहे थे। वह आदिवासियों के हक़ की लड़ाई भी लड़ रहे थे। उन्हें नक्सली होने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्हें सात साल की क़ैद की सज़ा हुई। जब वह जेल से बाहर आए, तो उन्होंने देश में ग़रीबी, भूखमरी और बेरोज़गारी देखी। उन्हें लगा कि देश को उनकी ज़्यादा ज़रूरत है। इसलिए वह अपना घरबार, अपनी पत्नी और चार बच्चों को छोड़कर चले गए। वह देशभर में घूम-घूम कर अपने सपने को साकार करने में जुट गए। उनका एक ही सपना था कि न तो कोई भूखा रहे और न कोई बेघर रहे।
अखिल भारतीय किसान महासभा (सीपीआईएमएल) के उपाध्यक्ष केडी यादव कहते हैं कि सुरेश भट्ट एक ऐसे नेता थे, जो तमाम ‘वाद’ से ऊपर थे। उनके भीतर एक ही बैचेनी थी कि शोषित-पीड़ित जनता की मुक्ति के लिए लड़ना। उनकी एक ही विचारधारा थी कि आज़ाद देश में कोई बंधुआ न बने। इसलिए वह कई आंदोलनों के अगुवा और सहयात्री रहे। वह एक यायावर राजनीतिक कार्यकर्ता थे, जो जनता की निगाह में एक जननेता थे। वह जनसंघर्ष के हर मोर्चे पर परचम लहराते हुए दिख जाते थे। वह सड़क पर ही सोया करते थे। व्यक्ति के रूप में वह संस्था के रूप में स्थापित हो गए थे। सभी संगठनों के लोग उन्हें सम्मान देते थे और उनकी बात मानते थे। मध्यप्रदेश, छतीसगढ़, बिहार, झारखंड, बंगाल, उड़ीसा सभी जगह वह ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हुए मिल जाते थे। उन्होंने बहुत यातनाएं सहीं। कटिहार की घटना है। बिहार के पूर्णिया जिले में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के विरोध में वह प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस द्वारा सत्तर वर्षीय सुरेश भट्ट को प्रताड़ित किया गया। उनकी पिटाई की गई। इसके विरोध में हम सभी पटना और बिहार में खड़े हुए थे।
जनता दल के नेता मनोहर पासवान कहते हैं कि कॉमरेड सुरेश भट्ट ने सर पर मैला ढोने की कुप्रथा को समाप्त करने के लिए अनेकों बार धरने-प्रदर्शन किए। वह कहते थे कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का मैला अपने सर पर उठाए, इससे बड़ा पाप कोई नहीं है। इस प्रथा को समाप्त होना ही चाहिए। सुप्रसिद्ध साहित्यकार व कार्टूनिस्ट आबिद सुरती कहते हैं कि हर व्यक्ति के दो पहलू होते हैं। एक सकारात्मक और एक नकारात्मक। लेकिन मैंने सुरेश भट्ट के बारे में आज तक कभी कोई नकारात्मक बात नहीं सुनी। यहां तक कि उनके दुश्मन भी उनकी तारीफ़ ही करते हैं।
कॉमरेड सुरेश भट्ट की बेटी क्रान्ति यानी अभिनेत्री असीमा भट्ट कहती हैं कि पिता की जनसेवा के कारण मां ने अपने बच्चों की परवरिश के लिए बहुत संघर्ष किया है। हालत यह है कि आज तक उनका संघर्ष जारी है। मैं जब यह कहती हूं कि मेरे पिता बड़े आदमी थे, तो लोगों को लगता है कि उनके पास बहुत बड़ी-बड़ी गाड़ियां और बंगले होंगे। हो सकता है कि उनके पास प्राइवेट जेट भी हो। लेकिन मेरे पिता के पास इनमें से कुछ भी नहीं था। यहां तक कि उनका बैंक अकाउंट भी नहीं था।
रामनवमी को जन्मे सुरेश भट्ट की ज़िन्दगी किसी वनवास जैसी ही गुज़री। ताउम्र जनमानस के लिए संघर्ष करने वाले ‘राम’ ने 4 नवम्बर 2012 को आख़िरी सांस ली। एक संघर्षशील जननेता के रूप में वह हमेशा याद किए जाएंगे।