इसी वर्ष मई माह के मध्य में दक्षिण अफ़्रीक़ा से आई इस ख़बर ने पूरे विश्व को हिला कर रख दिया कि राजधानी केपटाउन को विश्व का पहला जलविहीन शहर घोषित किया गया है। 2018 की शुरुआत में ही कैपटाउन के लोगों को इस आशय की चेतावनी दे दी गयी थी। दरअसल यहां तीन वर्षों से लगातार पड़ने वाला सूखा इस ख़तरनाक स्तर तक पहुंच गया था कि फ़रवरी 2018 में ही डे -ज़ीरो के तहत सारे नलों से पानी की आपूर्ति बंद कर दी गई थी । उसी समय हालात ऐसे हो गए थे कि नागरिकों को सप्ताह में केवल दो बार नहाने का आदेश दिया गया था साथ ही शौचालय में फ़्लश के लिए टंकी के पानी का उपयोग करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। आख़िरकार मई 2024 में इसी कैपटाउन को विश्व का पहला जलविहीन शहर घोषित कर दिया गया । अब यहाँ पुलिस व सेना की सुरक्षा में संचालित 200 जल आपूर्ति केंद्रों से केवल 25 लीटर पानी प्रति परिवार को दिया जा रहा है। भीषण जल संकट और इससे उपजी अराजकता के कारण सरकार ने यहां पानी के निजी इस्तेमाल की सीमा 87 से घटाकर 50 लीटर प्रतिदिन कर दी है। अब डे-ज़ीरो के तहत कैपटाउन में 75 फ़ीसदी घरों की पानी सप्लाई काट दी गयी है। यानी 10 लाख से ज़्यादा घरों को पानी मिलना बंद हो चुका है। यहां सिंचाई में भी पानी का उपयोग नाममात्र कर दिया गया है। इसी संकट के बीच समुद्र के पानी को साफ़ करने की कोशिशें भी की जा रही हैं और अब यहां नालों व नालियों के गंदे पानी को भी रिसाइकल किया जाना शुरू हो गया है।
तो क्या पूरा विश्व कैपटाउन जैसे जलसंकट का सामना करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है ? यदि कुछ दिन पहले जारी की गयी संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी पर नज़र डालें तो संयुक्त राष्ट्र ने आगाह कर दिया था कि 2025 तक दुनिया के लगभग 1.20 अरब लोगों को स्वच्छ पेयजल मिलने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। और इस संकट की शुरुआत हो चुकी है। कुछ समय पूर्व सिलिकॉन वैली के नाम से मशहूर बेंगलुरु में जल संकट का समाचार मिला। 1 करोड़ 30 लाख आबादी वाले बेंगलुरु में अमीरों ग़रीबों को एक साथ हाथों में बाल्टियां लिये सूखे पड़े नलों व टैंकर्स के पास लम्बी क़तार लगाये देखा गया। यहाँ तक कि सरकारी अस्पतालों में हवा से पानी बनाने की मशीन लगानी पड़ी। परन्तु ऐसा लगता है कि यदि पृथ्वी वासी हम आम जनों ने पानी की बर्बादी करने वाली अपनी दिनचर्या न तो बदली और न ही जलसंरक्षण पर ध्यान न दिया। नतीजतन संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी यह चेतावनी कि 2025 तक दुनिया के लगभग 1.20 अरब लोगों को स्वच्छ पेयजल मिलने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, यह सही साबित होने में अब ज़्यादा वक़्त लगता नज़र नहीं आता।
जल संकट मंडराने का दृश्य मैंने अपनी आँखों से पिछले दिनों अपनी सांगला (हिमाचल प्रदेश ) की यात्रा के दौरान स्वयं महसूस किया। मैंने केवल बरसात के मौसम में ही नहीं बल्कि पूरे वर्ष पहाड़ों पर तेज़ धार से बहने वाले शीतल जल के अनगिनत झरने / चश्मे बहते देखे हैं। उन झरनों पर लगने वाली भीड़,लोगों को वहां खड़े होकर अपने वाहनों की धुलाई करते,नहाते,कपड़े धोते, मस्ती करते,फ़ोटो सेशन कराते और कहीं कहीं तो फ़िल्में शूट होते भी देखा है। इन्हीं जगहों पर कुछ ग़रीबों को मक्के की छल्ली बेचते,चिप्स,चाय कोल्डड्रिंक्स गोली टॉफ़ी बेचते भी देखा है। परन्तु अत्यंत दुखद है कि गत दो दशकों से झरनों के सूखने का यह सिलसिला आज यहाँ तक आ पहुंचा है कि वही अनगिनत झरने पूरी तरह सूखे पड़े हैं। ऊँची पर्वत श्रंख्लाओं पर इकट्ठी बर्फ़ पिघल चुकी है। ग्लेशियर सूखे पड़े हैं। गोया नदी जल का मुख्य स्रोत समझे जाने वाले अधिकांश पहाड़ी चश्मे सूख चुके हैं। झरना स्थलों पर सन्नाटा पसरा पड़ा है। पहाड़ों की हरियाली ख़त्म होती जा रही है। इसी संकट के परिणामस्वरूप देश की तमाम नदियां सूखती जा रही हैं।
मीठे पानी की कमी का दुष्प्रभाव हिमाचल प्रदेश जैसे जल स्रोत वाले प्रमुख राज्य में क्या देखना पड़ा यह मेरी आपबीती से समझ सकते हैं। शिमला के आगे फ़ागू घाटी के एक होटल में रुकने के लिये कमरा बुक करने के समय होटल मालिक ने साफ़ कह दिया कि 'पानी की कमी है। सुबह को केवल फ़्रेश होने के लिये टंकी से पानी थोड़ी देर के लिये चलेगा परन्तु नहाने धोने के लिये पानी नहीं है। पीने के लिये बोतल का पानी उपलब्ध है'। इसके बाद नारकंडा में स्थित एकमात्र सुलभ शौचालय जलरहित थाऔर बदबू फैली हुई थी। रामपुर के निकट कार में तेल डलवाने के बाद जब पम्प कर्मचारी से शौचालय के बारे में पता किया तो वह बोला कि शौचालय तो ज़रूर है परन्तु पानी नहीं है। और इंतेहा तो तब हुई जब सांगला में जहाँ ठहरे थे वहाँ भी पानी का काल पड़ा हुआ था। जबकि सामने कलकल करती बसपा नदी बह रही थी। अपने जीवन के किसी पहाड़ी दौरे में पानी के काल का व्यक्तिगत अनुभव हासिल करने का यह पहला मौक़ा था जिसने भविष्य के संभावित जलसंकट की याद दिलाकर अत्यंत विचलित व चिंतित कर दिया।
ग्लोबलवार्मिंग के दुष्प्रभाव के कारण इसका कोई तात्कालिक जादुई समाधान तो नज़र नहीं आता परन्तु प्रत्येक व्यक्ति व सरकारों को इस दिशा में कुछ न कुछ कोशिश तो करनी ही चाहिये। बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिये पूरे विश्व को पूंजीवाद का मोह छोड़ मानवता के प्रति प्रेम दर्शाते हुये प्राकृतिक संतुलन बनाने की दिशा में सख़्त क़ानून बनाकर कड़े क़दम उठाने चाहिये। ग़ौरतलब है कि विकास के नाम पर पूंजीवाद पेड़ों की कटान कर समतल ज़मीन चाहता है जबकि प्रकृति अधिक से अधिक वृक्षारोपण चाहती है। वृक्षारोपण को तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन का हिस्सा मान लेना चाहिये। हर इंसान को शादी,पार्टी ,मरना,सालगिरह,विवाह वर्षगांठ,बरसी आदि हर ग़म ख़ुशी व त्यौहार के अवसर पर वृक्षारोपण ज़रूर करना चाहिये। इसी तरह पूंजीवाद अधिक से अधिक वाहनों की बिक्री में दिलचस्पी रख प्रदूषण को बढ़ाने में भागीदार होता है जबकि प्रकृति प्रदूषणमुक्त वातावरण चाहती है। इसके अतिरिक्त वर्षा जल को संचित करने के लिये सूखे पड़े तालाबों को गहरा करने व अधिक से अधिक नये नये तालाब खोदने की ज़रुरत है। इससे जल संग्रहण भी होगा और आसपास का भूगर्भीय जलस्तर भी सुधरेगा। नवनिर्मित होने वाले मकानों में बारिश में छतों का पानी संचित करने के लिये एक पाइप ज़मीन में डालने की प्रक्रिया (लैंड रिचार्जिंग सिस्टम ) को अनिवार्य किया जाना चाहिये। समय रहते यदि हमने जलसंरक्षण के उपाय नहीं किये तो यक़ीन जानिये वह दिन दूर नहीं जब हम अपने बच्चों को भीषण जलसंकट के वातावरण में छोड़ कर जाने के लिये मजबूर होंगे। क्योंकि जल संकट के बादल भारत सहित पूरे विश्व में मंडराने लगे हैं।