वायु व जल प्रदूषण से पहुंचने वाले नुक़सान को लेकर जिस तरह हमारा भारतीय समाज अभी तक पूरी तरह सजग नहीं हो सका। जिसे देखिये जगह जगह धुंआ करते,कूड़ा करकट जलाते,पेड़ काटते जल की व्यर्थ बर्बादी करते दिखाई देता है उसी तरह शायद लोग ध्वनि प्रदूषण के चलते आम लोगों तथा वातावरण को पहुँचने वाले नुक़्सान से भी अनभिज्ञ हैं। ध्वनि प्रदूषण के लिये विशेषज्ञों द्वारा जिन चीज़ों को प्रमुखता से चिन्हित किया गया है उनमें हवाई जहाज़, रेल, ट्रक, बस तथा कार व बाइक जैसे निजी वाहन सार्वजनिक यातायात के अनेक साधन तथा इनके इंजन व हॉर्न से निकलने वाला अनियंत्रित शोर तो ध्वनि को प्रदूषितव करता ही है,इनके अतिरिक्त फ़ैक्टरियां , तेज़ ध्वनि में बजने वाले लाउडस्पीकर, निर्माण कार्य आदि भी ध्वनि प्रदूषण फैलाने के मुख्य कारक हैं। इनके अलावा विभिन्न त्योहारों या शादी ब्याह के अवसर पर चलाये जाने वाली ज़हरीली आतिशबाजी भी ध्वनि प्रदूषण बढ़ाने के साथ साथ वायु को भी प्रदूषित करती है। यह ध्वनि प्रदूषण शुगर और उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिये इतना नुक़सानदायक होता है कि इससे उनकी मौत तक हो सकती है। ध्वनि प्रदूषण से मनुष्य के कान के अन्दर मौजूद वे हियर -सेल्स जो श्रवण शक्ति को बढ़ाते हैं वो पूरी तरह सामाप्त भी हो सकते हैं नतीजतन कान से सुनाई देना बन्द हो सकता है। अनिद्रा की शिकायत शुरू हो जाती है। यही नहीं बल्कि अनियंत्रित ध्वनि से दिल की धड़कन भी कम हो जाती है और उच्च ब्लड प्रेशर भी हो सकता है। यहां तक कि बहुत अधिक शोरग़ुल मानव का ख़ून भी गाढ़ा कर सकता है जिसके कारण हार्ट अटैक का ख़तरा भी बढ़ जाता है। बहुत तेज़ ध्वनि कान के पर्दों को हानि पहुँचा सकती है। ध्वनि प्रदूषण केवल मानव जाति के लिये ही नहीं बल्कि पशुओं के लिये भी बेहद ख़तरनाक होता है। अधिक ध्वनि प्रदूषण के कारण जानवरों के प्राकृतिक रहन-सहन में बाधा आती है। उनका खान-पान, आवागमन यहां तक कि उनकी प्रजनन क्षमता व उनकी प्रवृति आदि सब कुछ प्रभावित होती है। सूर्यास्त के बाद होने वाली आतिशबाज़ियाँ तो विशेषकर पक्षियों को इतना विचलित करती हैं कि वे अपने घोंसलों से भयवश उड़ जाते हैं और रात के अँधेरे में इधर उधर टकराकर मर जाते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार 100 डेसीबल से अधिक का शोर मानव श्रवण शक्ति को प्रभावित करता है इसीलिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 45 डेसीबल तक की ध्वनि को एक सुखद शहरी जीवन के लिये आदर्श ध्वनि के रूप में स्वीकृत किया है। परन्तु हैरानी की बात है कि महानगरों व बड़े भारतीय शहरों में ध्वनि प्रदूषण का पैमाना नियमित रूप से 90 डेसीबल के ऊपर जा चुका है। इसका कारण जहाँ ध्वनि प्रदूषण के उपरोक्त समस्त कारक तो हैं ही साथ साथ धर्म-आस्था-व्यवसाय,पाखंड तथा भीख मांगने खाने वालों द्वारा पूरी स्वतंत्रता के साथ निर्बाध रूप से फैलाया जाने वाला ध्वनि प्रदूषण भी कम नुक़सानदायक नहीं है। शहरों व क़स्बों की हालत इस समय ऐसी हो चुकी है कि सुबह सवेरे एक या अनेक भिखारियों की टीम सूर्योदय से पहले ही कालोनियों में प्रवेश कर जाती है और विभिन्न तरीक़ों से चीख़ चिल्लाकर डफ़ली या ढोल डमरू आदि बजाकर सोते हुये लोगों को उठाकर भीख मांगने लगती है। अभी इनका 'चीख़ो अभियान ' चल ही रहा होता है कि इतने में मेहनत कश सब्ज़ी व फल फ़रोश गलियों में प्रवेश कर जाते हैं। आजकल सब्ज़ी व फल विक्रेताओं ने भी तरक़्क़ी कर अपने ठेलों,रेहड़ियों पर लाउडस्पीकर रख लिया है। निश्चित रूप से इस सुविधा से उन्हें अब गला फाड़ कर चिल्लाने की ज़रुरत तो नहीं पड़ती परन्तु लाउडस्पीकर के उपयोग से वह गली तब तक शांत नहीं होती जबतक कि वह सब्ज़ी या फल फ़रोश गली से चला न जाये।
इसी तरह लगभग सारा दिन लाउडस्पीकर लगाकर कोई कबाड़ी कबाड़ ख़रीदने की गुहार लगता है तो कोई कंघी वाले बाल ख़रीदने का शोर करता सुनाई देता है।कभी बर्तन वाला तो कभी कपड़ों वाला कभी क़ालीन ग़लीचों वाला तो कभी शनि या अन्य देवी देवताओं या अल्लाह भगवान के नाम पर भीख मांगने वाला, गोया पूरी आज़ादी के साथ शोर मचाकर चीख़ चिल्लाकर आम लोगों को विचलित करना इन का स्वभाव बन चुका है। इसी तरह यदि आप रेल या बस में यात्रा करें तो वहां भी भिखारी लोग आपके सिर पर खड़े होकर गाला फाड़ कर चिल्लायेंगे भी,ढोल या डफ़ली,खंजरी आदि कुछ भी बजायेंगे भी और बाद में भीख मांगने लगेंगे। आम आदमी इन सब बातों से दुखी होने के बावजूद इन्हें झेलने के लिये गोया अभिशप्त रहता है। उधर इसी समाज का एक वर्ग पुण्य कमाने की ग़रज़ से इन जैसे अवांछनीय तत्वों को कुछ पैसे देकर इनकी चीख़ने की 'आज़ादी ' की हिमायत भी करता है और इनके निठल्लेपन की हौसला अफ़ज़ाई भी करता है। मस्जिद की अज़ानें हों या मंदिरों की आरतियां व शंखनाद,सड़कों पर हो रहे जगराते या अन्य धार्मिक व सामाजिक आयोजन, आये दिन कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर निकलने वाली शोभा यात्रायें,इन जैसे जुलूसों में इस्तेमाल होने वाले ध्वनि विस्तारक यंत्र आदि मानव जनित चीज़ें ही स्वयं मानव जीवन के लिये अत्यंत हानिकारक हैं। शादी ब्याह जैसे समारोहों में बजने वाले डीजे व ढोल नगाड़े आदि सभी इंसान के बहरापन व उच्च रक्तचाप के कारक हैं।
परन्तु विशेषज्ञों व वैज्ञानिकों की तमाम चेतावनियों के बावजूद और सरकार द्वारा इसे नियंत्रित करने के अनेक क़ायदे क़ानून व नियम निर्धारित करने के बावजूद कान फाड़ शोर का जारी रहना इसी बात की ओर इशारा करता है कि शायद हमारे देश का आम आदमी इसी अंदाज़ से बेरोकटोक जीने को ही वास्तविक आज़ादी समझता है। इसलिये एक सतर्क व जागरूक परन्तु असहाय व लाचार बना बैठा व्यक्ति ऐसे लोगों के लिये तो सिर्फ़ सद्बुद्धि की प्रार्थना ही कर सकता है अन्यथा 'चीख़' कि लब आज़ाद हैं तेरे'।