विपक्षी एकता के पेचो-ख़म

                                                          

       बिहार की राजधानी पटना में गत 23 जून को देश के 15 प्रमुख विपक्षी दलों की प्रमुखों की बैठक राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अथक प्रयासों के चलते ही आयोजित हो सकी। इस बैठक की फ़िलहाल सफलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस बैठक में मौजूद दलों के नेताओं ने विपक्षी एकता का इतना प्रोपेगंडा नहीं किया जितना कि  भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने इस विपक्षी एकजुटता के प्रयासों पर सामूहिक रूप से हमला किया। विपक्षी एकता के प्रयासों से बौखलाई भाजपा ने इस बैठक के बाद इमरजेंसी भी याद दिलाई और यह भी बताया कि जेल जाने के डर से सारे 'भ्रष्ट लोग' इकट्ठे हो रहे हैं। यानी भाजपा में मची खलबली स्वयं इस बात का सुबूत है कि यदि विपक्ष 2024 के आम संसदीय चुनावों से पहले पूरी ईमानदारी से एकजुट हो गया तो यह भाजपा के लिये ख़तरे की घंटी भी साबित हो सकती है। इस बैठक में जहां राहुल गांधी,लालू प्रसाद यादव,अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, शरद पवार, एमके स्टालिन, हेमंत सोरेन,उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार,सीताराम येचुरी, डी राजा व दीपांकर भट्टाचार्य जैसे विभिन्न विपक्षी दलों के नेता एक ही मंच पर एक साथ नज़र आये वहीं केसीआर,नवीन पटनायक, मायावती,जगन मोहन रेड्डी व  कुमारस्वामी की अनुपस्थिति भी चर्चा का विषय रही। 

       बहरहाल विपक्षी एकता की पहली बैठक ग़ैर कांग्रेस शासित राज्य बिहार में होने के बाद इसकी अगली बैठक जो पहले कांग्रेस शासित राज्य हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में आहूत की गयी थी वह अब 13-14 जुलाई को दूसरे कांग्रेस शासित राज्य बेंगलुरु में आयोजित किये जाने के समाचार हैं।सवाल यह है कि विपक्षी दलों के इन नेताओं की इस भाजपा विरोधी एकजुटता के कोई ठोस परिणाम भी सामने आने वाले हैं या नहीं ? जो नेता इन बैठकों में हाथ और गले मिलते-मिलाते दिखाई दिये हैं वे अपने दिल भी मिला सकेंगे या नहीं ? दरअसल देश की वर्तमान राजनीति लगभग दो ध्रुवीय हो चुकी है। एक तरफ़ जहां दक्षिणपंथी हिंदूवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व भारतीय जनता पार्टी अपने पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक के संरक्षण में कर रही है वहीँ दूसरी तरफ़ कांग्रेस व उसके साथ वे अनेक क्षेत्रीय दल हैं जो स्वयं को धर्मनिरपेक्ष ,लोकतंत्र व बाबा साहब भीम रॉव अंबेडकर के संविधान के पैरोकार बता रहे हैं। यह और बात है कि कांग्रेस के अतिरिक्त स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले अधिकांश क्षेत्रीय दल कभी न कभी भाजपा के नेतृत्व वाली एन डी ए सरकार का हिस्सा भी रह चुके हैं। एक वास्तविकता यह भी है कि स्वतंत्रता के बाद केंद्र के साथ ही देश के अधिकांश राज्यों में भी कांग्रेस की सरकारें हुआ करती थीं। परन्तु समय बीतने के साथ साथ जहाँ एक तरफ़ कांग्रेस किसी न किसी कारणवश देश के कई राज्यों में कमज़ोर होती गयी वहीँ उनकी जगह अनेक क्षेत्रीय दल पनपते गये। यहाँ तक कि दक्षिण भारत जोकि कांग्रेस का गढ़ समझा जाता था वहां भी कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने अपनी स्थिति काफ़ी मज़बूत कर ली।

      समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी सहित कई ऐसे दल हैं जिन्हें इस बात का ख़तरा है कि कांग्रेस के विरोध में खड़ी की गयी उनकी पार्टी कांग्रेस के विस्तार की स्थिति में कमज़ोर हो सकती है। और यदि दलित,अल्पसंख्यक व पिछड़ा वोट पुनः कांग्रेस की ओर वापस जाता है जैसा कि कर्नाटक चुनाव से संकेत मिले भी हैं तो यह भी इन क्षेत्रीय दलों के वजूद के लिये बड़ी चुनौती साबित हो सकती है। क्षेत्रीय दलों का यह भय भी कांग्रेस के नेतृत्व में किसी विपक्षी गठबंधन को पचा पाने में हिचकिचा रहा है। और विपक्षी एकता के पाले में खड़े क्षेत्रीय दलों की यही हिचकिचाहट किसी न किसी बहाने के रूप में सामने आ रही है। वहीँ विपक्षी एकता के ख़ेमे में न आने वाले कई नेता ऐसे भी हैं जिन्हें अपने ऊपर होने वाली संभावित ई डी व सी बी आई अथवा इनकम टैक्स की कार्रवाही का भय भी सता रहा है। इसी लिये कांग्रेस जहां यूपीए के विस्तार पर ज़ोर दे रही है वहीँ ममता बनर्जी बंगाल में वामपंथी दल के साथ समझौते के लिये तैयार नहीं। क्योंकि उन्हें मालूम है कि आज तृणमूल कांग्रेस के वोट वही हैं जो कल तक कांग्रेस व वामपंथी दलों को मिला करते थे। इसके बावजूद 23 जून को पटना में पत्रकारों को दिया गया ममता का यह बयान काफ़ी सकारात्मक सन्देश देने वाला रहा जिसमें उन्होंने कहा था कि  “हम तीन बातों पर सहमत हुए हैं। पहला ये यह कि हम एक हैं।  दूसरा- हम एक होकर लड़ेंगे। और तीसरा यह कि -हम सब बीजेपी के एजेंडे का एक होकर विरोध करेंगे। ”

       इसी तरह समाजवादी पार्टी भी इसी 'दूरदर्शिता' के चलते उत्तर प्रदेश में गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस को देने के बजाय स्वयं करना चाह रही है। वह भी जानती है कि आज उसका वोट बैंक वही है जो कल तक कांग्रेस का हुआ करता था। नेशनल कॉन्फ्रेंस व पी डी पी विपक्षी एकता वाले गठबंधन से कश्मीर में अनुच्छेद 370 की बहाली की आस लगाये बैठी है तो आम आदमी पार्टी केंद्र सरकार द्वारा दिल्ली की निर्वाचित सरकार के अधिकारों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद एक अध्यादेश द्वारा समाप्त किये जाने पर विपक्षी दलों का साथ चाह रही है। हालांकि कांग्रेस ने पटना में यह कहा भी है कि वह राज्यसभा में बिल आने पर इसका विरोध करेंगे।  सीपीआई (एमएल) के नेता दीपांकर भट्टाचार्य ने भी कहा कि-' दिल्ली के अध्यादेश के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल को निश्चिंत रहना चाहिए और केजरीवाल के मन में दिल्ली के अध्यादेश को लेकर यदि कोई संदेह है तो यह भ्रामक और दुर्भाग्यपूर्ण है'। इसके बावजूद आम आदमी पार्टी द्वारा विपक्षी एकता के लिये 'ब्लैक मेलिंग ' जैसा रुख़ अपनाना न्यायसंगत नहीं लगता। उधर दशकों तक भाजपा की सहयोगी रही शिवसेना भाजपा की कथित साज़िश से तोड़ी गयी अपनी पार्टी के वजूद को बचाये रखने के लिये विपक्षी एकता के ख़ेमे में शामिल है। परन्तु उसका सावरकर प्रेम व कोर हिंदुत्व का समर्थन जैसे मुद्दे शिवसेना (उद्धव) को विपक्षी एकता के ख़ेमे में आगे चलकर कितना सहज रख सकेंगे,कुछ कहा नहीं जा सकता। विपक्षी एकता के प्रयासों के बीच समान नागरिक संहिता मुद्दे पर आप व शिव सेना द्वारा लिया जाने वाला स्टैंड भी विपक्षी एकता को असहज करने वाला है। देखना होगा कि विपक्षी एकता के उपरोक्त पेच-ो-ख़म के बीच 2024 के आम चुनावों से पूर्व विपक्ष भाजपा के लिये कैसी चुनौती पेश कर सकेगा।