अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी कमाल के आदमी हैं। उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वे शीर्षासन कला के आचार्य हैं। उन्होंने राष्ट्रपति का चुनाव जीता तो इसी मुद्दे पर कि उन्होंने इस्लाम और आतंकवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू बता दिए थे। उस समय उन्होंने अपनी छवि ऐसी चमकाई कि वे इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध तलवार भांजते हुए धर्मयोद्धा की तरह दिखते रहे। अमेरिका के ईसाई और हिंदू वोटरों को उन्होंने सम्मोहित—सा कर लिया।
राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने सात मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका-प्रवेश पर प्रतिबंध भी लगा दिया। लेकिन राष्टप्रति के तौर पर पहली बार उन्होंने जब अपना कदम बाहर रखा तो किस देश को चुना ? सउदी अरब को चुना ! एक ऐसे देश को चुना, जो इस्लाम का जन्म-स्थान है और जो दुनिया में फैले इस्लामी आतंकवाद का सबसे बड़ा गढ़ है। वहाबी इस्लाम, जो कि आक्रामक और हिंसक है, इसी सउदी अरब का फैलाया हुआ है।
सउदी पैसा ही दक्षिण एशिया, इराक, सीरिया और यमन के आतंकवाद को सींचता रहा है। ट्रंप ने सउदी अरब में दुनिया के 55 मुस्लिम देशों के नेताओं को संबोधित किया। जो ट्रंप कहा करते थे कि ‘इस्लाम हमसे घृणा करता है’, ‘सउदी अरब ने ही न्यूयार्क के ट्रेड टावर को गिरवाया है’, वही ट्रंप रियाद जाकर खुशामदी लहजे में बोलते हैं, ‘इस्लाम एक महान धर्म है’। रियाद पहुंचे कई इस्लामी नेताओं को ट्रंप भाई-भाई कहकर बुला रहे थे।
रात्रि-भोज के पहले वे महल में नाचे भी। यह सब नाटक क्यों किया, ट्रंप ने ? क्योंकि सउदी अरब के साथ 350 अरब डालर के रक्षा-समझौते और 200 बिलियन के व्यापारिक समझौते हुए हैं। किसी छोटे-मोटे देश का सालाना बजट इतना बड़ा होता है। अमेरिका की थकी-मांदी अर्थ-व्यवस्था के लिए ये समझौते छोटे-मोटे सहारा बनेंगे। उधर सउदी अरब की जमकर तेल-मालिश भी हुई। ट्रंप ने बेवजह ईरान को कोसा। उसे आतंकवादी बताया। बादशाह सलमान के सुर में सुर मिलाया। ट्रंप शायद भूल गए कि ईरान में हसन रुहानी दुबारा राष्ट्रपति बन गए हैं। वे नरमपंथी हैं और अमेरिका से ईरान के संबंधों को सुधारना चाहते हैं। ट्रंप के विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन ने उनको शुभकामना देने की बजाय उपदेश झाड़ा कि रुहानी अपना प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम बंद करें और आतंकवाद को बढ़ावा न दें।
ट्रंप और टिलरसन विदेश नीति के मामले में नौसिखिए हैं। क्या उन्हें पता नहीं कि रुहानी की सरकार ही रुस और सीरिया के साथ मिलकर आईएसआईएस के आतंक से लड़ रही है। शायद इन दोनों नेताओं का लक्ष्य ओबामा की नीतियों को उलटना भी रहा है। ओबामा ने ही ईरान को उसका परमाणु कार्यक्रम छोड़ने के लिए प्रेरित किया था। यदि ट्रंप सउदी अरब और ईरान को भिड़ाकर अमरीकी स्वार्थों को साधने की कोशिश करेंगे तो निश्चय ही शिया-सुन्नी मतभेद बढ़ते चले जाएंगे। अपने आप को विश्व-शक्ति कहलवाने वाला अमेरिका सिर्फ डालरों के खातिर ऐसी चालें चले तो दुनिया में उसका सम्मान कौन करेगा ? रियाद में ट्रंप ने विश्व-आतंकवाद के खिलाफ जो झुनझुने बजाए हैं, उनकी आवाज़ पर कौन मुग्ध होगा ? ट्रंप ने रियाद में जो शीर्षासन किया है, वह आतंकवाद खत्म करने के लिए नहीं किया है। वह डॉलरानंद की प्राप्ति के लिए किया है।