भारत ितब्बत सहयोग मंच ने इस वर्ष से तवांग यात्रा की शुरुआत की है । तवांग अरुणाचल प्रदेश का अंतिम छोर है ।प्रदेश सरकार ने अब इसे ज़िला का दर्जा प्रदान किया है । तवांग से भारत तिब्बत सीमा बुमला लगभग चालीस किलोमीटर ही रह जाती है । १९६२ के भारत चीन युद्ध में बुमला क्षेत्र में दोनों देशों की सेनायों में भयंकर युद्ध हुआ था । खैर यह सब बाद की बातें हैं । आखिर इस यात्रा का प्रयोजन क्या है ? २०१२ में भारत और चीन के बीच हुये युद्ध के पचास साल पूरे हो जायेंगे । इन पचास सालों में सरकार ने यही कोशिश की कि किसी ढ़ंग से इस युद्ध को लोग भूल जायें । सरकार एक बार फिर चीन की चालों का शिकार हो गई लगती है ।लेकिन देश की रक्षा के लिये जिन सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी उन को देश के लोग भला कैसे भूल सकते हैं । देश के भीतर एक ऐसी लाबी काम कर रही है जो चीन के ख़तरे से लोगों का ध्यान हटा कर ,चीन की तथाकथित प्रगति के गुण गा गाकर ,चीन के पक्ष में वातावरण तैयार कर रही है । जिस प्रकार पाकिस्तान के पक्ष में मोमबत्ती ब्रिगेड़ बाघा सीमा पर जाकर मोमबत्तियां जलाती है, उसी प्रकार ड्रैगन ब्रिगेड़ देश में चीन का गुणगान करती रहती है । इसी प्रकार का वातावरण १९६२ में बनाया जा रहा था जब चीन ने भारत परआक्रमण कर दिया था । ऐसे वातावरण में चीन के ख़तरे की और ध्यान खींचना, तिब्बतियों द्वारा लड़ी जा रही आजादी की लड़ाई की ओर देशवासियों को अवगत कराना और सब से बढ़ कर उन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करना जिन्होंने अपने प्राण त्याग दिये ताकि आने वाली पीढ़ियां सुख से जी सकें । यही ध्यान में रख कर भारत तिब्बत सहयोग मंच के संरक्षक इन्द्रेश कुमार जी ने तवांग यात्रा प्रस्तावित की । यहां इन्द्रेश कुमार जी की बात करना जरुरी है । उसके बिना तवांग यात्रा की बात आगे नहीं बढ़ाई जा सकती । वैसे तो आजकल उनके नाम की चर्चा होती रहती है , लेकिन जिन कारणों से मैं कर रहा हूं , वे कारण अलग हैं । हरियाणा के रहने बाले इन्द्रेश कुमार जी ने चंडीगढ़ में पंजाब आभियान्त्रिकी महाविद्यालय से बी ई की परीक्षा पास की थी । लेकिन नौकरी नहीं की । वे राष्टीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक बन गये । शंकराचार्य की सन्यासी परम्परा के अनुसरण पर बीसवीं शताब्दी में महाराष्ट्र के केशव राम बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित नई सन्यासी परम्परा । बनी बनाई लीक पर चलना शायद उनका इन्द्रेश जी का स्वभाव नहीं है । लेह में एन डी ए के समय सरकार ने धूमधाम से सिन्धु यात्रा शुरु की थी । सरकार के साथ ही यात्रा का उत्साह भी गया और उन दिनों झूले लाल के गीत गाने वाले भी धीरे धीरे गायब होने लगे । लेकिन इन्द्रेश कुमार जी इस यात्रा को संभाल गये । आज यह यात्रा लद्दाख की संस्कृति का स्थायी हिस्सा है । अब यह यात्रा वहां की संस्कृति का स्थायी हिस्सा बन गई है । अरुणाचल प्रदेश में उन्होंने परशुराम यात्रा को अखिल भारतीय स्वरुप देने का प्रयास किया । उस यात्रा का स्वरुप भी बड़ा आकार ग्रहण करता जा रहा है । कश्मीर में अमरनाथ यात्रा को तो सभी जानते हैं लेकिन इन्द्रेश कुमार जी ने पुंछ में बाबा बूढ़ा अमरनाथ यात्रा को ही जिन्दा कर दिया । खैर इस सबका तवांग से तो कोई सम्बध नहीं है । परन्तु तिब्बत शायद उन के मनके भीतर कहीं न कहीं था ही । मेरा सम्बध उनके साथ तिब्बत को लेकर ही आया । लेकिन इस का यह अर्थ नहीं की मैं तिब्बत का विद्वान था । दरअसल तिब्बत के नाम पर मैंने केवल दलाई लामा का नाम ही सुना था । जब बिद्यार्थी परिषद के उस समय के संगठन मंत्री महेन्द्र पाण्डेय ने मुझे धर्मशाला में आयोजित किये जाने बाले तिब्बत सैमीनार का संयोजक बनने के लिये कहा तो मैंने तुरन्त हाँ कर दी । इसलिये नहीं की तिब्बत मेरे अध्ययन का क्षेत्र था ।अध्ययन की बात तो मैं पहले ही बता चुका हूं । बस इस लिये की चलिये एक मौका मिल रहा है । मौके का क्या अर्थ होता है यह समझने वाले तो खुद ही समझ जायेंगे, लेकिन जो नहीं समझेंगे उनको शायद समझाने की ज़रुरत भी नहीं है । तिब्बत के बारे में मेरे अध्ययन का अन्दाजा इस से लगाया जा सकता है कि सैमीनार में अपने आप को विद्वान सिद्ध करने के लिये मैंने तिब्बत पर एक पुस्तक अमेरिका से तीस डालर में मंगवाई । जब सैमीनार शुरु हुआ तो निर्वासित तिब्बत सरकार वह किताब मुफ्त बाँट रही थी । इस सैमीनार में इन्द्रेश कुमार भी थे । शायद वहीं उन्होंने मुझे तिब्बत से जोड़ने का निर्णय किया होगा । तिब्बत पर मेरी जानकारी से प्रभावित होने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता था । वैसे भी किसी से प्रभावित होने की इन्द्रेश कुमार जी की शायद आदत नहीं है । वे भी शायद मौका ही दे रहे थे । इस के बाद ही उन्होने भारत तिब्बत सहयोग मंच की स्थापना की ,जिसकी जिम्मेदारी मुझे दी । मैंने तुरन्त तिब्बत के बारे में पढ़ना शुरु किया और इन्द्रेश कुमार जी ने एक बड़ा कैनवास बुनना शुरु कर दिया । यह अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि मैं यह कहूं कि तिब्बत को लेकर जब भारत में समाजवादियों द्वारा चलाये आन्दोलन की तपश ठंडी पड़ने लगी थी तो इन्द्रेश कुमार जी ने इसे पुनः: जीवित कर दिया । तवांग यात्रा इन्हीं का ब्रेन चाईल्ड़ है । यह यात्रा आम पर्यटन कम्पनियों द्वारा आयोजित की जाने वाली यात्राओं की कोटि में नहीं रखी जा सकती । इस यात्रा का उद्देश्य देश भर में एक विशेष संदेश देना है । यह संदेश है तिब्बत की आजादी के लिये जन जागरण और देशवासियों को संभावित चीनी ख़तरे से आगाह करना । यात्रा की बात चली कैसे, इसका खुलासा करना भी जरुरी है । पिछले दिनों इन्द्रेश कुमार जी ने १५-१६जून २०१२ को वृन्दावन में हिमालय परिवार की बैठक बुलाई थी । बैठक में भारत तिब्बत सहयोग मंच , नेपाली संस्कृति परिषद , धर्म संस्कृति संगम सभी निमंत्रित थे । वहीं उन्होंने तवांग यात्रा का प्रस्ताव रखा और इसकी जिम्मेदारी मंच को सौंपी । हमारे लिये यह सचमुच चुनौती भरा काम था । मंच के महासचिव महेश चड्डा ने इस यात्रा की तैयारियों का जिम्मा संभाला ।
यात्रा पहुँची गुवाहाटी
देश भर में मंच की ईकाइयों को सक्रिय किया गया । देश भर में बैठकें की गईं । प्रेस सम्मेलनों और छोटे छोटे कार्यक्रमों के माध्यम से यात्रा के बारे में जानकारी दी गई । यात्रा से कुछ दिन पहले ही मंच के महासचिव और यात्रा के समन्वयक महेश चड्डा के पैर का आप्रेशन हुआ , लेकिन इससे भी उनकी सक्रियता में कमी नहीं आई । पहली राष्टीय तवांग यात्रा दस अक्तूबर को गुवाहाटी पहुँची ।मंच के संरक्षक इन्द्रेश कुमार जी भी सुबह की उड़ान से गुवाहाटी पहुँच चुके थे । मंच के महासचिव अशोक मेंढ़े भी महाराष्ट्र के बीस यात्रियों सहित प्रात छ: बजे ही आ चुके थे । राजस्थान , पंजाब,हिमाचल प्रदेश , उत्तराखंड ,इत्यादि स्थान स्थान से कार्यकर्ता आ रहे थे । मैं तो एक दिन पहले ही ९ अक्तूबर को गुवाहाटी आ गया था । मुझे गुवाहाटी में भारत तिब्बत सहयोग मंच का काम देखने वाले जवाहर ठाकुर की कमी खल रही थी । यहंा मंच के काम की शुरुआत उन्होंने ही की थी । कुछ साल पहले उन की मृत्यु हो गई थी । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक प्रदीपन जी ने सभी यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था नारायण नगर के हरियाणा भवन में की हुई थी । मंच की स्थानीय शाखा ने यात्रा के स्वागत का आयोजन विष्णु निर्मला भवन में रखा था । एक बजे कार्यक्रम निश्चित किया था । लेकिन स्थानीय लोग और मीडिया कर्मी स्वागत स्थल पर बारह बजे ही पहुँचना शुरु हो गये थे ।
। देश भर से आये लगभग सौ कार्यकर्ता यात्री भुरलुमुख में नारायणनगर के हरियाणा भवन से चलकर िवष्णु निर्मला भवन पहुँचे । यात्रा में िशलांग से अनेक तिब्बती नौजवान भी शामिल हुये । यात्रा को सम्बोधित करते हुये मंच के संरक्षक इन्द्रेश कुमार जी ने कहा कि चीन ने २० अक्तूबर १९६२ को भारत पर आक्रमण किया था । चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने के उपरान्त ,उसका दूसरा शिकार भारत हुआ । तिब्बत अभी तक अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा है औरभारत के लोग भी चीन के कब्जे में गई भारत भूमि को मुक्त करवाने के लिये संघर्षशील हैं । भारत और तिब्बत के इस सांझे संकल्प को चीन सरकार के बहरे कानों तक पहुँचाने के लिये तवांग यात्रा एक नया राष्टीय अनुष्ठान है । इन्द्रेश कुमार जी के अनुसार यह अनुष्ठान १९६२ में देश की रक्षा करते हुये शहीदों की याद में तवांग में बने शहीद स्मारक पर श्रध्दा सुमन अर्पित करते हुये भारत तिब्बत के सीमान्त बुमला तक जाकर पूरा होगा ।
इन्द्रेश कुमार जी ने कहा आज जब चीन भारत की घेराबन्दी करने में लगा हुआ है तो भी भारत सरकार उसी पुरानी तुष्टीकरण की नीति पर चल रही है जिस पर चलकर नेहरु देश का अपमान करवा चुके हैं । उन्होंने कहा भारत को अपनी नीति राष्टीय हितों के अनुकूल बनानी चाहिये और चीन के विस्तारवादी इरादों से डरे हुये देशों को आश्वासन देना चाहिये कि वह संकट के काल में उनके साथ ही नहीं होगा बल्कि उनकी रक्षा करने में सक्षम भी है ।
इस अवसर पर हिमालय परिवार के राष्टीय अध्यक्ष स्वामी यतीन्दरानन्द जी ने कहा कि यह यात्रा इस बात की प्रतीक है कि अब भारत की जनता तिब्बत की सीमा पर खड़े होकर ,तिब्बती स्वतंत्रता संग्राम में हर संभव सहायता का बचन देती है और साथ ही चीन को यह संदेश देती है कि आज का भारत १९६२ का भारत नहीं है । गुवाहाटी की ओर से असमिया के जाने माने पत्रकार रूपम बरुआ ने यात्रियों का स्वागत किया । बरुआ ने कहा देश जाग चुका है । वह चीन की चालों को समझता है । सरकार समझे चाहे न समझे, लेकिन देश इस बार धोखा नहीं खा सकता । तिब्बत भारत की समस्या है और उसे सरकार को हर हालत में सुलझाना ही होगा । कार्यक्रम की समाप्ति के बाद सभी यात्री पलटन बाज़ार स्थित राष्टीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय केशव धाम पहुँचे । सह क्षेत्रीय प्रचारक गौरीशंकर जीऔर अन्य प्रचारकों ने सभी का स्वागत किया । जलपान के बाद काफिला आगे बढ़ा । गुवाहाटी में यातायात के नियमों को लेकर लोगों में कोई ज्यादा उत्साह नहीं रहता है । शाम को सड़कों पर जाम लगना आम बात है । ड्राईवर तेजपुर मंगलदोई की ओर से जाना चाहते थे लेकिन हमें सभी ने नोगांव के रास्ते ही जाने की सलाह दी थी । नोगांव का रास्ता चाहे थोड़ा लम्बा है लेकिन यह राष्ट्रीय राज मार्ग है । लेकिन भीड़भाड़ के कारण गुवाहाटी से निकलते निकलते ही दो घंटे लग गये । सात बजे चले थे लेकिन बाहर नौ बजे से पहले नहीं निकल सके ।
यात्रियों का काफिला चल पड़ा तेजपुर की ओर
गुवाहाटी से यह यात्रा तेजपुर की ओर जा रही थी । तेजपुर से बबलू बोराह जी का फोन बार बार आ रहा था । रात के ग्यारह बजे के लगभग यात्रा का काफिला तेजपुर पहुँचा । शहर के बाहर ही कालेज के कुछ छात्र स्वागत करने के लिये खड़े थे । यात्रा के मारवाड़ी धर्मशाला में रुकने की व्यवस्था थी । वहाँ संघ के प्रचारक बबलू बोराह , मंच के स्थानीय संयोजक जयप्रकाश अग्रवाल और अन्य लोग उपस्थित थे । भोजन करने के बाद यात्री विश्राम के लिये गये । भारत तिब्बत सहयोग मंच की स्थानीय शाखा ने ग्यारह अक्तूबर को प्रातःकाल १९६२ के युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों के स्वागत का कार्यक्रम रखा हुआ था ।
जहाँ मंच के स्थानीय संयोजक जयप्रकाश अग्रवाल के नेतृत्व में यात्रा का स्वागत किया गया । १९६२ के युद्ध में ं भाग लेने वाले सैनिकों का सम्मान भारत तिब्बत सहयोग मंच की ओर से इन्द्रेश कुमार ने किया ।
१९६२ की लड़ाई में चीन की सेना तेजपुर से कुछ किलोमीटर पीछे बालीपाड़ा तक आ गई थी । संकट की उस घड़ी में ही पंडित जवाहर लाल नेहरु का आकाशवाणी से वह ऐतिहासिक भाषण प्रसारित हुआ था जो आज भी असमवासियों में कडवडाहट पैदा कर देता है । असम में लोगों को विश्वास नहीं हुआ जब नेहरु ने कहा मेरा ह्रदय असम के लोगों के लिये रो रहा है । क्या नेहरु असम को अलविदा कह रहे थे ? नेफा में बोमडी ला का पतन हो चुका था । तब आया बीस नवम्बर १९६२ । जवाहर लाल नेहरु राष्ट्र को सम्बोधित कर रहै हैं । “नेफा के उत्तरी भाग में चीन की विशाल सेना आगे बढ़ती आ रही है । वालोंग , से ला और आज नेफा के एक और छोटे कस्बे बोमडी ला का भी पतन हो गया है । जब तक आक्रान्ता भारत के भीतर से चला नहीं जाता या उनको निकाल दिया जाता तब तक हम शान्त नहीं बैठेंगे । मैं आपको स्पष्ट बता दूं , विशेषकर असम में रहने वाले देशवासियों को , कि हमारा ह्रदय इस क्षण उन के लिये रो रहा है ” जानकारों का कहना है कि नेहरु उस समय सचमुच रो रहे थे । लेकिन दुर्भाग्य से उस समय देश को रोने वाले नेतृत्व की नहीं बल्कि गरजने वाले नेतृत्व की ज़रुरत थी । तेजपुर में घबराहट मच गई । उस समय का जिलाधीश अपनी पत्नी और परिवार को हवाई अड्डे पर छोड़ने गया और स्वयं भी उसी में भाग गया । स्टेट बैंक ने नोट जलाने का महान उत्तरदायित्व निभाना शुरु कर दिया । जेल के दरवाजे खोल दिये गये और पागलखाने के भी । लोग तेजपुर से भागने लगे ।उन दिनों ब्रह्मपुत्र पर कोई पुल नहीं था । लोग नावों में भाग रहे थे । लेकिन नेहरु ने असम के लोगों को जो घाव दिया वह शायद आज पचास साल बाद भी पूरी तरह नहीं भरा ।
शोणितपुर के अग्निगढ़ की चर्चा किये बिना तेजपुर की कहानी अधूरी ही रहेगी । बाणासुर यहाँ के राजा थे । बात चाहे बहुत पुरानी है, तेजपुर के लोग ऐसे सुनाते हैं मानों कल की बात हो । बाण शिव के भक्त थे । उसकी पुत्री ऊषा युवती हुई तो पिता ने उसे अग्निगढ़ में रखा ताकि वह किसी के साथ भाग न जाये । दुर्ग को अग्नि ने घेरा था । जाहिर है उसमें प्रवेश करना कठिन था क्योंकि दुर्ग के दूसरी ओर महानद ब्रह्मपुत्र था । ऊषा को सपने में एक राजकुमार दिखाई देता था जिससे उसको प्यार हो गया । उसने अपनी सखी चित्रलेखा को स्वप्न की बात बताई । ऊषा चित्र में देखे राजकुमार का वर्णन कर रही थी और चित्रलेखा उसका चित्र बना रही थी । जब चित्र बन कर तैयार हो गया तो दोनों सखियां उसे देख कर आश्चर्यचकित रह गईं । यह तो भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का चित्र था । बस फिर क्या था । वे सो रहे अनिरुद्ध को माया बल से अग्निगढ़ में ले आईं । ऊषा ने उससे गन्धर्व विवाह कर लिया । बाण को पता चला तो उसने अनिरुद्ध को मारने के लिये आक्रमण कर दिया । अपने पौत्र की रक्षा के लिये कृष्ण भी पहुँच गये । जब शिव को पता चला तो वे भी अपने भक्त बाण की सहायता के लिये पधारे । दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध छिड़ गया । यह हरि और हर के युद्ध के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है । रक्त की धारायें बहने लगीं । तब ब्रह्मा जी ने दोनों पक्षों का समझौता करवाया । तब से इस क्षेत्र का नाम शोणितपुर पड़ गया । लेकिन १९६२ इस शोणितपुर को लज्जित कर गया । तेजपुर के पुराने शिव मंदिर के आगे खड़ा एक बुजुर्ग इस का प्रतिवाद करता है । मेरे पूछने पर कहता है -“प्रशासन भाग गया था लेकिन यहाँ के निवासियें ने शिव के नाम को लज्जित नहीं होने दिया । तेजपुर में कुछ लोग फिर भी बचे रहे थे । वे यहीं डटे रहे । नहीं भागे । यहाँ की महिलायें सैनिकों के लिये ऊनी कपड़े बुनकर भेज रही थीं । ” वैसे लज्जित तो यहाँ के लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में भी होने दिया था । शोणितपुर जनपद में गाहपुर नाम का छोटा सा स्थान है । इस छोटे गाँव ने ही १९४२ में बड़ा काम कर दिखाया था । वहाँ के पुलिस स्टेशन पर से १८ साल की कनकलता ने यूनियन जैक उतार कर तिरंगा झंडी फहरा दिया था । पुलिस ने उसे गोली मार दी और वह वहीं शहीद हो गई । लेकिन अब यह सारा इतिहास है । वैसे तो असम के साथ विश्वासघात करने बाला नेहरु का वह भाषण भी अब इतिहास ही है । लेकिन लोग भुला नहीं पाते । न कनकलता के इतिहास को और न ही नेहरु के १९६२ के भाषण को । लेकिन इतिहास की यात्रा तो इसी प्रकार चलती रहती है । हमारी यात्रा भी तो इसी इतिहास को पकड़ने की कोशिश है । तेजपुर के इस ऐतिहासिक मंदिर में घंटियाँ पता नहीं कितनी शताब्दियों से बज रही थीं । स्वागत समारोह के बाद सभी यात्री तेजपुर के इसी ऐितहासिक शिव मंदिर के दर्शन के लिये आ गये थे । भगवान शिव शंकर की महिमा भी अपरम्पार है । शिव का निवास कैलाश मानसरोवर चीन के कब्जे में है और शिव को मानों इसकी कोई चिन्ता ही नहीं । मंदिर के सामने फूल बेच रहा बूढ़ा इससे सहमत नहीं है । वह प्रतिवाद करता है -“शिव को तो चिन्ता है पर उसे सच्चे मन से कोई पुकारे तो सही ा”
अरूणाचल प्रदेश में प्रवेश
अब सभी को अरूणाचल प्रदेश की ओर प्रस्थान करना था । पूर्वोत्तर भारत में अरूणाचल प्रदेश ऐसा प्रान्त हैजिसमें सामान्य बोलचाल की भाषा हिन्दी है । प्रदेश में तीस के लगभग जनजातियां हैं । प्रत्येक जनजाति की भाषा अलग अलग है । एक जनजाति की भाषा दूसरी जनजाति के लोग समझ नहीं पाते । इसलिये आपस में बातचीत के लिये हिन्दी का प्रयोग करते हैं । विधान सभा में भी बहस और भाषण ज्यादातर हिन्दी में ही होते हैं । अरूणाचल की सीमा तिब्बत के साथ लगती है । १९५९ में तिब्बत से दलाई लामा अरूणाचल से ही आये थे । तेजपुर से लगभग साठ किलोमीटर आगे अरूणाचल का प्रवेश द्वार भालुकपोंग आता है । लेकिन अरूणाचल में प्रवेश के लिये परमिट लेना अनिवार्य है । यह परमिट दिल्ली स्थित अरूणाचल भवन से लिया जा सकता है । लेकिन फिर भी इस प्रक्रिया में दो दिन लग ही जाते हैं । यह परमिट गुवाहाटी स्थित अरूणाचल भवन से भी बनाया जा सकता है , लेकिन बताते हैं कि वहां दो दिन से भी ज्यादा समय लग जाता है । कुल मिलाकर इसका अर्थ यह हुआ कि यदि कोई अरूणाचल जाना चाहे तो पहले तीन चार दिन दिल्ली या गुवाहाटी में रहने की व्यवस्था अवश्य कर ले । जाहिर है इतनी प्रक्रिया से गुजरकर अरूणाचल जाने वाले वही होंगे जो राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में सचमुच यायावर होंगे । अब इन सचमुच के यायावरों की संख्या इतनी तो नहीं हो सकती कि उससे अरूणाचल का पर्यटन उद्योग पनप सके । चीन की लडाई के बाद तो भारत सरकार को इस क्षेत्र को देश के शेष हिस्से से भावनात्मक स्तर पर जोड़ने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने चाहिये थे , लेकिन सरकार ने उलटे परमिट की दीवार खड़ी कर दी । ” लेकिन यह परमिट व्यवस्था तो अंग्रेजों के समय की है ” दिल्ली मे एक अधिकारी विजय के लहजे में बता रहे थे । ” इसे इनर लाईन परमिट कहा जाता है ।” उसने अपनी ही पीठ थपथपाने की मुद्रा में मेरे ज्ञान में इजाफा किया । मैं चुप रहा । क्योंकि तवांग यात्रा के यात्रियों के परमिट महेश चड्डा ने दिल्ली स्थित अरूणाचल भवन से पहले ही बना रखे थे ा भालुकपौंग पर निर्वासित ि त ब्बती सरकार के प्रतिनिधियों ने यात्रियों का स्वागत किया ।लगभग तीस तिब्बती कार्यकर्ता आये हुये थे । इनको भी यात्रा में शामिल होना था । यहां अरूणाचल के कुछ कार्यकर्ता भी यात्रा की अगवानी करने के लिये आये हुये थे ा अरूणाचल प्रदेश में राष्टीय स्वयंसेवक संघ के प्रान्त प्रचारक प्रदीप जोशी तो तेजपुर से ही यात्रा में शामिल हो गये थे ।
भालुकपोंग में ही सभी को अपना अपना परमिट दिखाना था । भालुकपोंग का इतिहास पुराना है । कभी यहाँ राजा भालुक का राज होता था ।उसी के नाम से क्षेत्र का नाम भालुकपोंग हुआ । अब तो भालुकपोंग के ही दो हिस्से हैं । ऊपरी भालुकपोंग और निचला भालुकपोंग । गाँव में अका जनजाति के लोग रहते हैं । कभी इस क्षेत्र पर उन्हीं का राज होता था । दरअसल भालुकपोंग से लेकर तवांग तक का सारा क्षेत्र कामेंग कहलाता है । यहीं से यात्रा कामेंग नदी के साथ साथ शुरु हो जाती है । अब तो कामेंग ज़िला के भी दो हिस्से हो गये हैं । पश्चिमी कामेंग और पूर्वी कामेंग । हमारी तवांग तक की सारी यात्रा कामेंग नदी के साथ साथ पश्चिमी कामेंग ज़िले में ही सम्पन्न हुई । यही कामेंग बाद में ब्रह्मपुत्र में मिल जाती है । भालुकपोंग के अका सूर्य और धरती मां की आराधना करते हैं और आस्था में हिन्दू हैं । लेकिन इधर चर्च के मतान्तरण आन्दोलन से कुछ ईसाइ मजहब में भी मतान्तरित हो गये हैं । कस्बे की लगभग आठ हजार जनसंख्या में से कुछ इस्लाम मजहब को मानने बाले भी है ,लेकिन वे ज्यादा बाहर से आकर बसे हैं । जब तक हम यहां अधिकारियों को अपने परमिट दिखाते रहे तब तक जिज्ञासा वश स्थानीय लोग भी एकत्रित हो गये थे । चीन से कितना खतरा हैं , यह यहां किसी को समझाने की जरुरत नहीं है , क्योंकि यहां तो लोग खुद पूछ रहे हैं कि सरकार चीन के खतरे का मुकाबला करने के लिये क्या तैयारी कर रही है ?
भालुकपोंग से लगभग अस्सी किलोमीटर चल कर यात्रा टेंगा कस्बा में पहुँची । १९६२ के युद्ध में चीनी सेना ने टेंगा पर कब्जा कर लिया था । टेंगा में स्थानीय लोगों ने पूर्व मंत्री नरेश गलो के नेतृत्व में यात्रा के स्वागत और जलपान की व्यवस्था की हुई थी । रास्ते में यात्री यात्रा से सम्बंधित हैंडबिल बाँटते रहे थे ा टेंगा पहुँचते पहुँचते अंधेरा हो चुका था । जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है नरेश गलो ,गलो जनजाति से ताल्लुक रखते हैं । गलो जनजाति के अब केवल तेरह परिवार ही बचे हैं । जिन दिनों भारत तिब्बत सहयोग मंच की ओर से यात्रा की रुप रेखा बन रही थी उन दिनों मैंने एक दिन वैसे ही चलते चलाते इस का जिक्र राम प्रसाद जी से किया । राम प्रसाद जी तेजपुर में लम्बे अरसे तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रह चुके हैं । अरूणाचल का चप्पा चप्पा उनका छाना हुआ है । यहां उनका सम्बधों का दायरा भी उतना ही विस्तृत है जितना अरूणाचल का क्षेत्रफल । उन्होंने टेंगा में नरेश से यात्रा के बारे में बात की तो वे बहुत प्रसन्न हुये । उन्होंने आग्रह किया कि यात्रा कुछ देर के लिये टेंगा में रुके ताकि स्थानीय लोग उसका स्वागत कर सके । यद्यपि हम काफी लेट हो गये थे और अरूणाचल में बैसे भी सूर्य देव पहले ही अस्त हो जाते हैं , लेकिन फिर भी उनके उत्साह में कोई अन्तर नहीं आया था । नरेश गलो ने स्थानीय लोगों की ओर से यात्रा का स्वागत। करते ह,ुये कहा कि सरकार को तिब्बत की सीमा तक परिवहन के साधनों का विकास करना चाहिये तभी चीन से मुकाबला किया जा सकता है । यदि हिन्दोस्तान मज़बूत होगा तो तिब्बत भी आजाद हो जायेगा ।उन्होंने इस बात पर दुख प्रकट किया की चीन की लड़ाई के पचास साल बाद भी हम सीमान्त क्षेत्रों में अच्छी सड़कों का निर्माण नहीं कर पाये हैं । इस बार हमें वे ग़लतियाँ नहीं दोहराना चाहिये, जो १९६२ में की थीं ।नरेश गलो ने आग्रह किया की आयोजकों को यात्रा के उपरान्त यहाँ की स्थिति भारत सरकार को बतानी चाहिये । अपने बारे में भी बताया कि उत्तराखंड़ में तीन धामों की यात्रा कर चुका हूं । इन्द्रेश कुमार और स्वामी यतीन्दरानंद जी ने सभी का आभार प्रकट किया ।इस के उपरान्त सभी यात्रियों का स्थानीय परम्परा के अनुसार स्वागत किया गया ।टेंगा में ही हिमाचल प्रदेश के लाहुल स्पिति के ओम प्रकाश कंटोच मिल गये जो तीस साल से यहीं रह रहे हैं । लेकिन नवम्बर में हिमाचल प्रदेश विधान सभा के होने वाले चुनावों में उनकी रुचि अभी तक बरकरार थी । कुछ दिनों में चुनाव प्रचार हेतु हिमाचल में जाने वाले थे । वैसे तवांग तक सड़क के किनारे जितनी दुकानें हैं वे ज्यादातर बिहार या उत्तर प्रदेश के लोगों की हैं । अरूणाचल के युवक दुकान कम ही करते हैं । अवैध बंगलादेशी भी अब बड़ी संख्या में प्रदेश में आ गये हैं । अरूणाचल के पूर्व शिक्षा मंत्री और पूर्व सांसद रिंचन खांडू खिरमे भी टेंगा में आने वाले थे लेकिन उनका संदेश आ गया था कि उनके एक रिश्तेदार की मृत्यु हो गई है इसलिये वे दिरांग जा रहे हैं । खिरमे भी लम्बे अरसे से सहयोग मंच से जुड़े हुये हैं । उनके न आ पाने से सभी को दुख था ।
बोमडीला में किया विश्राम
टेंगा से चलते चलते काफ़ी अन्धेरा हो गया था । बोमडीला वैसे तो टेंगा से केवल बाईस किलोमीटर ही दूर है लेकिन सड़क की जो हालत है उसके हिसाब से सौ ही मानना चाहिये । यहाँ तक सड़क का मामला था ,तेजपुर से ही सड़क की हालत ऐसी हो गई थी कि उसे सड़क कहना ठीक नहीं होगा । सड़क तवांग तक इसी हालत में थी । सरकार का कहना है कि सड़क को चौड़ा किया जा रहा और इसमें कोई शक भी नहीं की पहाड़ काट काट कर सड़क चौड़ी की जा रही है । लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि यह काम पिछले पाँच साल से इसी तरह चल रहा है और यदि इसी गति से चलता रहा तो इसके दस साल में भी पूरा होने की संभावना नहीं है । तेजपुर से तवांग तक की यह सड़क दरअसल कामेंग क्षेत्र की जीवन रेखा ही है । लेकिन अब इस की हालत ऐसी हो गई है कि लगभग तीन सौ किलोमीटर की इस सड़क को अपनी कार में भी कबर करने में १२ घंटे लगते हैं और यदि वर्षा हो जाये, जो यहाँ होती ही रहती है तो सदा यही संशय बना रहता है कि कभी पहुँच भी पायेंगे या नहीं । यह सड़क भारत और चीन में मनोवैज्ञानिक युद्ध का कारण भी बनी हुई है । चीनी अधिकार में गये तिब्बत में सड़कों के मामले में बहुत प्रगति हुई है ,ऐसा आम तौर पर माना जा रहा है । लेकिन हमारी इस सड़क की हालत कैसी है ? थोड़ा रोष में आकर नरेश गलो भी पूछ रहे थे । तवांग में किसी ने कहा – तिब्बत के गाँवों में पक्की सड़कों की कहानियाँ मात्र चीनी प्रापेगंडा है । सीमा से थोड़ा दूर हट कर कुछ नहीं है । लेकिन कुल मिला कर यह सड़क अरूणाचलवासियों के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई है ताकि वे चीन को कह सकें कि देखो हमारी भी सड़क ! किसी से कम नहीं है । लेकिन दिल्ली में अरूणाचलवासियों की इस प्रतिष्ठा की रक्षा करने वाला है कोई ? एक बात के लिये अरुणाचलवासियों को दाद देनी पड़ेगी । प्रदेश के जंगल अभी भी संतोषजनक सीमा तक सुरक्षित बचे हुये हैं ।घने जंगलों में केला जगह जगह दिखाई दे रहा है , लेकिन प्रदीप जी का कहना है कि यह केवल हाथियों के खाने के काम आता है । हाथी तो इस इलाके में होते ही होंगे । बड़े शहरों में जैसे घरों के आगे लिखा रहता है , कुत्तों से सावधान उसी तरह यहाँ सड़क पर अनेक जगह लिखा मिल जायेगा , हाथियों से सावधान । बैसे भी सड़क की जैसी हालत है , इस पर हाथी ही चल सकते हैं । परन्तु ड्राईवर के माथे पर शिकन तक नहीं आ रही थी ।
रात्रि को दस बजे यात्रा बोमडीला पहुँची । बोमडीला पश्चिमी कामेंग जनपद का केन्द्र है ।। संघ के प्रचारक नरेन्द्र जी को यात्रा की सूचना थी । उन्होंने स्थानीय युवकों के साथ मिलकर सारी व्यवस्था की हुई थी । १९६२ की लड़ाई में जब बोमडीला का पतन हुआ तो नेहरु रो पड़े थे । इस क्षेत्र में मोनपा , शेरदुकपेन और अका जनजाति के ही ज्यादा लोग रहते हैं । ज्यादा लोग बुद्ध मत को मानने वाले हैं । पुराने लोग अभी तक १९६२ की चीन की लड़ाई को भूले नहीं हैं । कुछ लोग सैनिकों की बहादुरी की कहानियां सुनाते हैं और दूसरे भाग रहे सैनिकों की नक़ल उतारने में भी पीछे नहीं हैं । लेकिन बोमडीला मेरे लिये कोई नया स्थान नहीं है । मैं पहले भी यहां कई बार आ चुका हूं । लेकिन इसके बाबजूद मैं इस बार कैसे भूल गया कि बोमडीला में काफ़ी ठंड होती है ? मैं गर्म कपड़े लेकर नहीं आया था । लेकिन अब तो केवल सोना ही था । इसलिये डरने की कोई जरुरत नहीं थी । भोजन करने के उपरान्त सभी प्रतिभागी सोने के लिये चले गये । प्रातःकाल स्थानीय लोगों ने यात्रा का स्वागत किया और यात्रा तवांग के लिये रवाना हो गई । अरूणाचल प्रदेश का यह कामेंग क्षेत्र एक प्रकार से बुद्ध क्षेत्र ही कहा जाना चाहिये । विदर्भ से अशोक मेंढे के नेतृत्व में आये हुये अधिकांश यात्री भगवान बुद्ध के बचनों का गहराई से अध्ययन करने वाले यात्री ही थे । यह क्षेत्र गुरु रिम्पोछे पदमसम्भव की चरण रज से भी पावन हुआ है । कुछ विद्वान पदमसम्भव को हिमाचल प्रदेश का मानते हैं । रिवालसर में उनका मंदिर भी है । अरूणाचल प्रदेश से प्रतिवर्ष हज़ारों तीर्थ यात्री वहाँ जाते हैं । लेकिन कुछ विद्वान उन्हें ओडीशा का मानते हैं । ओडिया के जाने माने पत्रकार समन्वय नंद ने मुझे बताया कि ओडीशा में तो उनका जन्म स्थान भी खोज लिया गया है और बाकायदा वहाँ उनका जन्म दिन मनाया जाता है । लेकिन विद्वानों का एक समूह उन्हें अफगानिस्तान का बताता है । अशोक मेंढे की उत्सुकता स्वभाविक ही ऐसे सभी स्थानों में थी । इस क्षेत्र में अनेक स्थानों पर धर्म ध्वजाएँ लहराती हुई मिल जायेंगी । कपड़े पर लिखे मंत्र , जिन्हें रस्सी से बाँध कर लटका दिया जाता है । भक्तों का विश्वास है कि हवा के फहराने से इन मंत्रों का प्रभाव दूर दूर तक फैल जाता है । याक यहाँ का मुख्य पशु है । अनेक स्थानों पर उनके झुंड चरते दिखाई देते हैं । जिसके पास जितने ज्यादा याक वह उतना ही अमीर । इन्हीं याकों को देखते हुये हम तवांग की ओर बढ़ रहे हैं ।
चले तवांग की ओर
बोमडीला से तवांग की दूरी लगभग दो सौ किलोमीटर है । रास्ते में ऐसे अनेक स्थान हैं जहाँ १९६२ में भारतीय सेना और चीनी सेना में विलक्षण युद्ध हुआ । उन शहीदों की याद में स्मारक बने हुये हैं जहाँ स्थानीय लोग अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है । न्यूकमादौंग युद्ध स्मारक पर सभी यात्री अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिये रुके ा इस स्थान पर १८ नवम्बर १९६२ को भयंकर युद्ध हुआ था । ब्रिगेडियर होशियार सिंह सेला में अपने सैनिकों के साथ मोर्चा संभाले हुये थे । लेकिन सेना के उच्च अधिकारियों में आपस में कोई तालमेल नहीं था । युद्ध की रणनीति तो जनरल बी एम कौल बना रहे थे जिन्होंने जिन्दगी में कभी लड़ाई में एक हजार सैनिकों का भी नेतृत्व नहीं किया था । होशियार सिंह जब चीनी सेना से लोहा लेने की तैयारी कर रहे थे तो उन्हें कौल और पठानिया परस्पर विरोधी आदेश दे रहे थे । वे उन्हें सेला का मोर्चा छोड़ कर दिरांग में आने के लिये कह रहे थे । होशियार सिंह ने विरोध किया लेकिन अन्त में उन्हें पीछे हटना पड़ा । लेकिन पीछे हटने की भनक चीनी सेना को पहले ही लग गई थी । चीनी सेना ने पीछे हट रही होशियार सिंह की टुकडी पर नयूकमादौंग के स्थान पर १७/१८ नवम्बर की मध्य रात्रि को आक्रमण किया । होशियार सिंह ने अप्रतिम शौर्य का प्रदर्शन किया । वहीं लडते हुये वे शहीद हो गये । भारतीय टुकड़ी छिन्न भिन्न हो गई । सुबह जब गांव बालों ने देखा तो चारों ओर सैनिकों की लाशें बिखरी पडीं थीं । गांव वालों ने ही बाद में उनका संस्कार किया । उन सब की स्मृति में भारतीय सेना ने इस स्मारक का निर्माण करवाया । स्मारक पर पट्टिका लगी हुई थी कि इस स्मारक का पुनरुद्धार बीस मार्च २००८ को किया गया । वहाँ से यात्रा सेला पहुँची । सेला सागर तल से लगभग १४००० फीट की ऊँचाई पर स्थित है । तेज बर्फीली हवा चल रही थी । यहीं से तवांग ज़िला प्रारम्भ होता है । भव्य प्रवेश द्वार यहाँ बना हुआ है । सड़क के बांयी ओर झील है जिसके बारे में कहा जाता है कि सर्दियों में पूरी तरह जम जाती है । वैसे तो तिब्बत के सीमान्त तक जो भी झीलें हैं सर्दियों में वे सभी जम जाती हैं । झीलें यहाँ सभी पवित्र मानी जातीं है और हर झील के साथ कोई न कोई दन्त कथा जुड़ी हुई है । यहाँ सेना के कुछ लोगों से गपशप हुई । चिन्ता सब की एक ही थी । भारत सरकार को चीन के झाँसे में नहीं आना चाहिये । लेकिन १९६२ की लड़ाई में तवांग से लेकर बोमडीला तक भारतीय सेना के नेतृत्व ने जिस अयोग्यता का प्रदर्शन किया, उस की कहानियाँ अभी भी यहाँ के गाँवों में सुनी जा सकती हैं । जनरल बी एम कौल िजसकी नियुक्ति राजनीति का शर्मनाक प्रदर्शन ही था , इस अयोग्यता के लिये जिम्मेदार माने जाते हैं । बहुत साल पहले भारत तिब्बत सहयोग मंच ने पंजाब के पटियाला में तिब्बत समस्या पर एक गोष्ठी का आयोजन किया था । मैंने अपने सम्बोधन में दो तीन बार कहा कि १९६२ में भारतीय सेना हार गई थी । एक बुजुर्ग सरदार जी उठ कर खड़े हो गये । बोले,” आप बार बार यह क्या कह रहे हो कि सेना हार गई । सेना नहीं हारी थी , सरकार हारी थी । सेना के पास बर्फ जमाने वाली सर्दी में न गर्म कपड़े थे और न ही हथियार । फिर भी सेना जिस बहादुरी से लड़ी आप उस के सबूत नेफा में जाकर देखें । ” उसी नेफा में हम सेना के शौर्य और नेतृत्व की कायरता की कहानियाँ सुन और देख रहे थे । इसी सेला के आसपास पिछले दिनों अरूणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री खांडू दोर्जी के अवशेषों की तलाश की जा रही थी । उन का जहाज सेला की इन्हीं उपत्यकाओं में कहीं गिर गया था । चार दिन के बाद अवशेष मिले । लेकिन से ला इस सबसे बेपरवाह उसी तरह स्थिर है । बादल भी सेला के नीचे ही दिखाई देते हैं । सेला इतना ऊँचा है कि इस ऊँचाई पर तो कोई वनस्पति भी उग नहीं सकती । उसके बाद दूर तक पत्थर के नंगे पहाड़ ही दिखाई देते हैं ।
जसवन्त मंदिर में भर आई सब की आंखे
सेला से लगभग बीस किलोमीटर आगे जाकर भारतीय सेना का वह मंदिर आता है जिसकी चर्चा पूरे हिन्दोस्तान में है । सेना के इतिहास में यह नूरानांग का युद्ध कहलाता है । चीनी हमले का प्रतिरोध यहाँ चतुर्थ गढ़वाली राईफल कर रही थी । राईफलमैन जसवन्त सिंह रावत ने जो शौर्य दिखाया उसकी अब दन्त कथाएँ बनने लगी हैं । उसके सब साथी वीर गति को प्राप्त हो गये थे ा शत्रु एम एम जी से आग बरसा रहा था । जसवन्त सिंह और उसके दो साथी रेंगते हुये दुश्मन के एक बंकर के पास पहुँचे । बंकर के अन्दर ग्रेनेड फेंका और मर गये चीनी सैनिक की मशीन लेकर रेंगते हुये ही वापिस अपने मोर्चे पर आ गये । अब केवल जसवन्त सिंह ही बचा था । उसकी सहायता दो स्थानीय लड़कियां सेला और नूरा कर रही थी । जसबन्त कभी एक बंकर से तो कभी दूसरे से गोलियां चला रहा था । शत्रु समझ रहा था कि इस ओर भारी फौज है । उसने तीन दिन और तीन रात तक िवशाल चीनी सेना को रोके रखा और तीन सौ चीनियों को मार गिराया । अन्त में वे लड़कियां पकड़ी गईं तो शत्रु को पता चला कि इधर भारतीय सेना का एक सिपाही ही तीन दिन से कहर वर्षा रहा है । शत्रु ने पीछे से आक्रमण किया और कहा जाता है वहीं जसवन्त सिंह को टैलीफोन की तारों पर लटका कर शहीद कर दिया । कहते हैं शत्रु उसकी गर्दन काट कर अपने साथ ले गये लेकिन बाद में उसके शौर्य से प्रभावित होकर उसकी धातु की प्रतिमा भारतीय सेना को दी । स्थानीय लोग आज भी जसबन्त सिंह को कप्तान साहिब के नाम से याद करते हैं । उन्होंने उस स्थान का नाम ही जसवन्त गढ़ कर दिया और भारतीय सेना ने उस स्थान पर मंदिर बना दिया । जसवन्त सिंह का सामान भी उस मंदिर में रखा हुआ है । १९६२ के बंकर भी जगह जगह बने हुये हैं । सेनापति से लेकर साधारण सिपाही तक जब भी कोई उधर से गुज़रता है तो जसवन्त सिंह के आगे शीश नवा कर जाता है । सेना की ओर से यहाँ सभी को चाय पिलाई जाती है । तवांग यात्रा का काफिला भी यहाँ रुका और स्मारक में श्रद्धा सुमन अर्पित किये । वहाँ के सैनिकों ने विस्तार से तवांग यात्रा की जानकारी ली और भारत तिब्बत सहयोग मंच को इस राष्टीय यात्रा के लिये बधाई दी । दो सौ के लगभग सैनिक इस क्षेत्र में पहली बार आये थे ।सबसे पहले जसवन्त मंदिर में माथा निभा रहे थे । मंच की तवांग यात्रा भी आगे बढ़ चली ।
और पहुँच गये तवांग
सात बजते बजते यात्रा तवांग पहुँची । तवांग भारत और तिब्बत के पुराने रिश्तों की ऐतिहासिक कड़ी है । यहीं छटे दलाई लामा का जन्म हुआ था । आजकल वहाँ एक बहुत बड़ा मठ बना हुआ है जहाँ देश के अन्य प्रान्तों और तिब्बत से हज़ारों श्रद्धालु आते हैं ।तवांग पहुँचने पर स्थानीय लोगों की ओर से यात्रियों का स्वागत किया गया । तेरह तारीख को सुबह ही यात्रा भारत तिब्बत के सीमान्त बुमला की ओर रवाना हुई । १९६२ में बुमला में भारतीय सेना की पराजय के बाद चीनी सेना ने बिना किसी प्रतिरोध के तवांग पर कब्जा कर लिया था । तवांग में सीमान्त पर जाने के लिये विशेष परमिट लेना पड़ता है । इसकी व्यवस्था प्रदीप जोशी जी ने पहले से ही की हुई थी । पूरे जत्थे में चालीस भारतीयों के अलावा तीस तिब्बती भी शामिल थे । दस गाड़ियों का काफिला ऊबड़ खाबड़ मार्ग पर आगे बढ़ रहा था ।जगह जगह सेना के जवान परमिट चैक कर रहे थे । रास्ते में ही वह झील दिखाई दी जिसे अब माधुरी लेक कहा जाने लगा है क्योंकि वहाँ किसी फ़िल्म में माधुरी ने कोई गाना गाया था । यात्रा अब नागुला पहुँच चुकी थी । यहाँ सेना की एक कंटीन है जिसमें सभी यात्रियों को चाय दी गई ।रास्ते में एक सूचना पट लगा हुआ था जिस पर लिखा हुआ था कि यहाँ से आप दुश्मन की निगरानी में हैं । यहाँ पंजाब के बरनाला के रहने बाले एक सैनिक से बातचीत हुई । वह जल्दी ही गुस्से में आ गया । पंजाबी में बोला – ये साले हिन्दी चीनी भाई भाई करते रहे और वे हरामखोर अपनी तैयारी करते रहे । ” मेरी आंखों के आगे भी पुराना समय आ गया । जब चीन ने भारत पर हमला किया था मैं उन दिनों आठवीं में पढ़ता था । भारत का मानचित्र तो पाठ्यक्रम में था , लेकिन उससे आत्मा रुप से जुड़ने के लिये जरुरी उड़ान नहीं थी । आकाशवाणी से अजीब अजीब नाम आते थे । भारत की सेना अत्यन्त बहादुरी से लड़ी लेकिन अन्त में उसे पीछे हटना पड़ा । चाहे नेफा के स्थानों के नाम कल्पना की पकड़ में तो नहीं आते थे , लेकिन भारत की सेना हार रही है , यह सुन कर ऐसा लगता था कि कहीं मैं ही हार रहा हूं । यह अलग बात है कि रेडियो ने कभी सेना हार रही है , ऐसा नहीं कहा , लेकिन अब गाँव वाले जान गये थे कि पीछे हटने का अर्थ हारना ही होता है । इस हार के कारण मैं उस उम्र में ही हिमालय के इस सीमान्त से जुड़ गया था । पुस्तक में छपा मानचित्र जो काम नहीं कर सका उसे इस हार ने कर दिया था । चन्द दिन पहले तक हम स्कूल में िहन्दी चीनी भाई भाई के नारे लगाते थे । स्कूल के पी टी साहिब खेल के मैदान में ये नारे लगवाते थे । पी टी मास्टर बलबीर सिंह पहले सेना में होते थे और मेरे पिता जी के मित्र भी थे । पिता जी को हम बाऊ जी कहते थे । मुझे अभी भी याद है २० अक्तूबर को वे हमारे घर आकर बाऊ जी से बोले कि चीन ने हम पर हमला कर दिया है । मुझे समझ नहीं आया पी टी साहिब तो हिन्दी चीनी भाई भाई के नारे लगवा रहे थे । लेकिन एक बात समझ में जरुर आ गई थी पी टी साहिब शायद धोखा खा गये थे । चीन कभी भी हमारा भाई नहीं था । उस दिन जब हम शाम के समय गाँव के मंदिर के पास खेलने के लिये इक्कठे हुये तो एक नया खेल खेला । घास फूस एकत्रित करके माओ का एक पुतला बनाया । मंदिर के पुजारी से एक फटा पुराना कपड़ा लिया । वह माओ के वस्त्र बने । माओ का नाम उन दिनों चल निकला था । शायद पी टी साहिब ही हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा लगवाते समय बताते थे । मंदिर से लेकर बाज़ार के चौक तक पहली बार माओ मुर्दाबाद के नारे लगे थे । चौक में हमने माओ को आग के हवाले किया । भीड़ जुड़ ही गई थी । दशहरे में तो रावण का पुतला जलाया ही जाता था । पहली बार रावण के अतिरिक्त कोई दूसरा पुतला जला था । यह तो दशहरे के दिन भी नहीं थे । पर युद्ध तो शुरु हो ही चुका था । घर जाने पर बाऊ जी ने कहा — यदि तुम्हारे कपड़ों को आग लग जाती तो ? उस दिन तो आग नहीं लगी थी लेकिन आज यहाँ उस समय के नेफा में भारतीय सैनिकों के शौर्य और नेतृत्व की अक्षमता की कहानियाँ सुन कर जरुर आग लग रही थी ।
इन्द्रेश कुमार जी सभी को आगे की यात्रा की हिदायतें दे रहे थे । यहाँ से बुमला केवल तेरह किलोमीटर रह गया था । कुछ दूर आगे जाकर भारतीय सेना की अन्तिम चौकी समाप्त हो गई । आगे का मोर्चा भारत तिब्बत सीमा पुलिस ने संभाला हुआ था और फिर उससे आगे थी नो मैन लैंड़ । लेकिन इस के बीच स्थित सूबेदार जोगिन्दर सिंह के स्मारक की चर्चा किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता । सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने यहाँ बहादुरी का जो कारनामा किया उसे देख कर चीनी सेना भी नतमस्तक थी । सूबेदार जोगिन्दर सिंह की पलाटून बुमला क्षेत्र में टेंगपेंगला पर मोर्चा संभाले थी । बुमला में मैकमोहन रेखा के दूसरी ओर शत्रु तैयारी कर रहा था । उसकी संख्या कहीं ज्यादा थी । टेंगपेंगला के मोर्चे को लांघकर ही तवांग पहुँचा जा सकता था । चीनी सेना ने आक्रमण किया । उनकी संख्या दो सौ थी । इस हमले को जोगिन्दर सिंह के साथियों ने पछाड़ दिया । शत्रु ने तैयारी कर दूसरी बार आक्रमण किया । जोगिन्दर सिंह के आधे से ज्यादा सिपाही मारे जा चुके थे । पलाटून को पीछे हटने का आदेश भी मिला, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी । जोगिन्दर सिंह ने निर्णय कर लिया था । उसके आदमी आग उगल रहे थे । लेकिन इस बार भी शत्रु इस मोर्चे को जीत नहीं सका । तीसरी बार दुश्मन ने एक बार फिर गोल बाँध कर आक्रमण किया । जोगिन्दर सिंह के पास तो अब बैसे भी गिनती के सैनिक बचे थे । इस बार शत्रु ने अपने साथियों के मरने की भी चिन्ता नहीं की । वह आगे ही बढ़ता आ रहा था । जोगिन्दर सिंह के पास भी गोला बारुद ख़त्म हो चुका था । वह और उसके साथी,” वाहेगुरु जी का खालसा वाहेगुरु जी की फतेह ” का जय घोष करते हुये बंकरों में से निकल आये । संगीनों से और हाथों से ही युद्ध होने लगा । जोगिन्दर सिंह के १७ गोलियाँ लगीं थीं । चीनी सेना ने उन्हें युद्ध बन्दी बना लिया । वहीं उनकी मृत्यु हुई । उन्हे मरणोपरान्त परम वीर चक्र दिया गया । सभी यात्री रुक कर इसी नर पुंगव को नमन कर रहे थे । सभी की आंखें भर आई थीं ।
भारत तिब्बत सीमा पर लिया संकल्प
अब हम उस जगह पहुंच गये थे यहंा से खड़े होकर हम तिब्बत की धरती को छू सकते थे । सीमान्त बुमला पर सेना के जवानों ने यात्रियों का स्वागत किया । एक चट्टान पर बोर्ड लगा हुआ है । शान्ति की चट्टान । यही भारत और तिब्बत की सीमा है अंग्रेजी और चीनी भाषा में लिखा हुआ है – भारत और चीन, विश्व की दो प्राचीनतम सभ्यताएं : प्रगति में सांझीदार । मन में प्रश्न आ रहा था कि यह हिन्दी में भी लिखा जा सकता था । कम से कम भोटी में तो लिखा ही जाना चाहिये था । भोटी तिब्बत की भाषा है । तवांग क्षेत्र में भी भोटी ही प्रचलित है । इन चीज़ों से भावनात्मक एकता बढ़ती है । लेकिन अपनी सरकार की दृष्टि में तो यह भावनात्मक एकता ही साम्प्रदायिकता है । सामने दो तम्बू तनें हैं । एक सैनिक ने बताया ये चीन के तम्बू हैं ,लेकिन चीनी सेना यहाँ से चार किलोमीटर दूर है ।यह सारी ज़मीन भारतीय सैनिकों के खून से सनी हुई है । भारत तिब्बत सहयोग मंच की यात्रा यहाँ लगभग बारह बजे पहुँची थी और एक बजे चीनी प्रतिनिधि मंडल आने वाला था । इस बैठक की तैयारी भारतीय सेना ने की हुई थी । सभा स्थल का नाम मैत्रीस्थल रखा हुआ था । मैत्रीस्थल अवश्य हिन्दी में लिखा हुआ था । सीमा पर दूर एक याक भी घूम रहा था । लेकिन वह चीन के कब्जे वाले तिब्बती क्षेत्र में था । थोड़ी देर बाद वह मस्ती से चलता हुआ भारतीय क्षेत्र में आ गया । किसी ने भी उस ओर ध्यान नहीं दिया । उसके लिये कोई सीमाएँ नहीं थीं । एक सैनिक बता रहा था कि सामने जो शिवलिंग है वह तिब्बती क्षेत्र में है । मैंने पूछा कौन सा शिवलिंग ? तो वह सामने के पहाड़ पर प्राकृतिक रुप से उभर आये स्थान की ओर इशारा करने लगा । इसी आस्था के बल पर ये सैनिक इतनी ऊँचाई और विपरीत परिस्थितियों में भी डटे हुये हैं । अब मुझे समझ आने लगा था कि सूबेदार जोगिन्दर सिंह और राईफलमैन जसवन्त सिंह हाथ में कुछ न होते हुये भी कैसे रणक्षेत्र में अविश्सनीय कारनामे कर गये और पंडित नेहरु सब कुछ होते हुये भी १९६२ में पराजित हो गये । प्रश्न आस्था का ही है । इन सैनिकों के लिये हर पहाड़ शिव शंकर का प्रतिरुप है और पंडित नेहरु के लिये चीन के कब्जे में गई ज़मीन बंजर और बेकार थी ।
इन्द्रेश कुमार जी ने सीमा पर गंगाजल छिड़का और वहाँ की मिट्टी से सभी यात्रियों का तिलक किया । तिब्बती यात्रियों ने सीमा पर पूजा अर्चना की ।उनकी आँखों में आंसू थे । वहाँ का दृश्य अत्यन्त संवेदनशील था । तिब्बती ध्वज और भारतीय ध्वज यात्रियों ने साथ साथ थाम रखा था । बुमला में भारत माता की जय और तिब्बत की आजादी का संंकल्प लेते हुये यात्री वापिस तवांग की ओर रवाना हुये ।लगभग तीन बजे यात्री वापिस तवांग पहुँच गये ।
तवांग महाविहार में गुरु रिम्पोछे का प्रवचन और पूजा अर्चना चल रही थी । यात्रा के सभी यात्री महाविहार में पहुँचे रिम्पोछे जी का आशीर्वाद लेने । रिम्पोछे जी की हाजिरी में एक प्रस्ताव पारित किया गया । असम और कश्मीर में जो मंदिर मठ तोड़े गये,उन का पुनर्निर्माण किया जाये । बंगलादेश और अफगानिस्तान में जो मंदिर मठ तोड़े गये थे उनका निर्माण करने के लिये भारत सरकार पर दबाव डाला जाये ।भोटी भाषा को संविधान की आठवीं सूची में शामिल किया जाये । तिब्बती स्वतन्त्रता में भारत सरकार को सहायता करनी चाहिये ताकि कैलाश मानसरोवर में सभी भारतीय बना किसी प्रतिबन्ध के जा सकें । भारत सरकार भारत चीन सीमा शब्द का प्रयोग न कर भारत तिब्बत सीमा शब्द का प्रयोग करे । चीन के कब्जे में गई हज़ारों वर्ग मील भारतीय भूमि को मुक्त करवाने के लिये सरकार को क़दम उठाने चाहिये । गुरु रिम्पोछे ने भारत तिब्बत सहयोग मंच के प्रयत्नों की प्रशंसा की । गुरु रिम्पोछे से विदा लेकर यात्री १९६२ के शहीदों की याद में बने शहीद स्मारक पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने पहुँचे । वहाँ सेना के जवानों ने यात्रियों का स्वागत किया । १९६२ की लड़ाई से सम्बंधित एक डाक्यूमैंटरी दिखाई गई ।
वापसी यात्रा शुरु
१४अक्तूबर को यात्रा का वापिसी सफर शुरु हुआ । प्रात तवांग चौक में स्थानीय लोगों की ओर से यात्रियों के लिये जलपान का आयोजन किया गया था । इसमें निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रतिनिधि भी शामिल थे । सभी को खतक भेंट कर भावभीनी विदाई दी गई । रात्रि को तेजपुर पहुँच कर इन्द्रेश कुमार ने पत्रकारों को यात्रा का विवरण दिया । रात्रि तेजपुर में व्यतीत कर प्रातःकाल यात्री गुवाहाटी के लिये रवाना हो गये । दोपहर गुवाहाटी पहुँचने पर सभी यात्री कामाख्या मंदिर के दर्शन करने के उपरान्त अगली यात्रा का संकल्प लेकर विदा हुये और सत्रह नवम्बर को इन्द्रेश कुमार जी ने तिब्बत की की वह पावन माटी धर्मशाला में परम पावन दलाई लामा जी को दुनिया भर से आये हुये दो सौ प्रतिनिधियों के सामने समर्पित कर दी ।
बहुत अच्छा आलेख