भारतीय जनता पार्टी के राष्टीय अध्यक्ष नितिन गडकरी पिछले कुछ दिनों से विवादों के घेरे में हैं । कम से कम दो तीन इलैक्ट्रिोनिक चेनलों की कुछ दिनों की कवरेज से तो ऐसा ही आभास मिलता है । नितिन गडकरी व्यवसाय करते हैं , यह कोई ऐसा गुप्त रहस्य नहीं है जिसके बारे में इन चैनलों के मालिकों को या फिर सरकार को अभी ही पता चला हो । लेकिन मीडिया का एक वर्ग गडकरी के व्यवसाय की ख़बरों को कुछ इस ढंग से परोस रहा है ,मानों उसने बहुत मेहनत करके कोई टाप सीक्रेट खोज निकाला हो । किसी भी कम्पनी में कौन कौन लोग निदेशक हैं ,इसके लिये बहुत परिश्रम करने की ज़रुरत नहीं होती, आसानी से इसे कम्पनी पंजीकरण के कार्यालय से प्राप्त किया जा सकता है । लेकिन मीडिया का एक वर्ग इस ख़बर को भी इस ढ़ंग से दे रहा है मानों उसे चीन के परमाणु रहस्यों का पता चल गया हो । लेकिन इन सभी चैनलों के मालिकों को सबसे ज्यादा हैरानी इस बात से हो रही है कि एक ड्राईवर या ज्योतिषी कम्पनी का निदेशक कैसे बन सकता है ? बात इन मालिकों की सच्ची है । टाटा , बिरला , रिलायन्स इत्यादि के मालिकों को ही यह अधिकार है कि उनके नाती ,पोते कम्पनियों के निदेशक बनें । ये कम्बखत ड्राईवर ज्योतिषी भी निदेशक बनने लगे ? इनकी इतनी हिम्मत ? आखिर औकात का प्रश्न तो है ही । वैसे तो औकात के प्रश्न पर तो स्वयं गडकरी को लेकर ही कहीं न कहीं कष्ट रहा है । गडकरी आखिर है कौन ? जब जिम्मी कार्टर अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव में खड़े हुये थे तो आभिजात्य वर्ग वाले अखबार व्यंग्य से लिखते थे , मूंगफली चली राष्ट्रपति बनने । कुछ ऐसा भाव ही गडकरी को लेकर व्यक्त किया गया था या किया जा रहा है । खैर गडकरी को घेरने के ये मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं, मुख्य कारण नहीं । मुख्य कारणों की तलाश कहीं और करनी होगी ।
एक बात और ध्यान में रखनी चाहिये । टी.वी चैनलों पर जब ऊँची आवाज में समाचार बाचक या एंकर तथाकथित भ्रष्टाचार के खुलासे कर रहा होता है, तो प्रथम दृष्ट्या यह सामान्य समाचार लगता है और समझा जाता है कि संवाददाता ने जो समाचार दिया है , उसे पढ़कर सुनाया जा रहा है । लेकिन प्राय ऐसा नहीं होता । चैनल का मालिक लम्बी बैठकों में नीतिगत निर्णय करता है कि किसको घेरना है और किसको बचाना है । एक बार मालिक के स्तर पर यह निर्णय हो जाने के बाद , जिसको घेरना होता है ,उसके खिलाफ़ सामग्री एकत्रित की जाती है । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं की जो सामग्री मिलती है, या फिर मेहनत से एकत्रित की जाती है , उससे यह सिद्ध ही होता हो कि सम्बंधित व्यक्ति बेईमान या भ्रष्टाचारी है । यदि सामग्री से यह नहीं भी सिद्ध होता कि सम्बंधित व्यक्ति भ्रष्टाचारी है ,तब भी मालिक को कोई फ़र्क नहीं पड़ता । क्योंकि तय किये गये व्यक्ति को भ्रष्टाचारी सिद्ध करना मालिकों का नीतिगत फैसला है, इसका तथ्यों से कुछ लेना देना नहीं है । जब एक बार यह तय हो गया कि गडकरी को भ्रष्टाचारी सिद्ध करना है ,तो आगे का काम उनका है जो चैनल पर प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । मालिक तो पर्दे पर दिखाई देगा नहीं । सामग्री निर्दोष है , लेकिन अब उसे स्क्रीन पर इस ढंग से पेश करना है कि दर्शक उसका वही अर्थ निकाले जो मालिक चाहता है । पत्रकारिता में यह इनटीरियर डैकोरेशन कहलाता है । पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में यह नया अध्याय कुछ वर्ष पहले ही जुड़ा है जबसे इलैक्ट्रिोनिक मीडिया ने भारत में गति पकड़ी है । मालिक द्वारा दी गई असाईनमैंट को पूरा करने के लिये यहाँ इनटीरियर डैकोरेशन के साथ अभिनय कला का भी इस्तेमाल करना होता है । बाड़ी लैंगूएज तो है ही । साथ साथ बीच बीच में ऐसे प्रश्न उछालने होते हैं ,जिन्हें क़ानूनी भाषा में सुजैसटिव प्रश्न कहा जाता है । यह सारी कथा का शैली पक्ष है ।
अब कहानी का तकनीकी पक्ष और उसका गुण दोष पक्ष । यदि चैनल के पास गुण दोष के आधार पर कोई ऐसी सामग्री नहीं है जिससे उसे दोषी सिद्ध किया जा सके तो ऐसी स्थिति में तकनीकी पक्ष का सहारा लिया जाता है । एक उदाहरण इसको समझने के लिये पर्याप्त होगा । मान लीजिये मैं गुवाहाटी से डिब्रूगढ़ किसी छात्र की मौखिक परीक्षा लेने के लिये जाता हूं ।मैं अपनी कार से जाता हूं, लेकिन यात्रा व्यय बिल रेलगाड़ी का भर देता हूं । अपनी गाड़ी से जाने में मेरा खर्च ज्यादा हुआ है, रेलगाड़ी के यात्रा व्यय बिल में मुझे कम पैसे मिलेंगे । परन्तु क्योंकि मैं रेलगाड़ी से नहीं गया, इसलिये तकनीकी दृष्टि से मेरा केस ग़लत आचरण में ही आयेगा । लेकिन वास्तव में यह भ्रष्टाचार नहीं है, ऐसा सभी स्वीकारेंगे । परन्तु अब यदि किसी स्तर पर रणनीति के तौर पर यह निर्णय ले लिया गया है कि मेरे खिलाफ़ अभियान चलाना है ,तो इस पूरे केस का यही हिस्सा बार बार दोहराया जायेगा कि मैंने बिना यात्रा किये टी.ए बिल क्लेम किया है । यह नहीं बताया जायेगा कि मैं सचमुच डिब्रूगढ़ छात्रों की मौखिक परीक्षा लेने गया था । गडकरी पर जो आरोप लगाये जा रहे हैं , वे कुल मिला कर इसी प्रकार के तकनीकी आरोप हैं । अलबत्ता उन्हें परोसने का तरीका इनटीरियर डैकोरेशन और अभिनय कला युक्त ही रहेगा ,ताकि सामान्य दर्शक सहज ही विश्वास कर लें । गडकरी बार बार कह रहें हैं कि सरकार मेरी सभी कम्पनियों की जाँच करवा लें । दिल्ली की सरकार तो आखिर कांग्रेस की है । लेकिन गडकरी की इस पेशकश को चैनल का इनटीरियर डैकोरेटर इस तरह प्रस्तुत करेगा ताकि यह आवाज तो सुनाई न दे ,यदि सुनाई दे भी जाये इस शैली में कि इस की गम्भीरता ख़त्म हो जाये । आखिर इस चिल्लाने वाले शख्स को मालिक के आगे वही उत्पाद प्रस्तुत करना है जिसका आदेश उसे दिया गया है ।
लेकिन अब असली प्रश्न आता है कि आखिर गडकरी को कोई बिना कारण के क्यों फँसाना चाहेगा ? यह प्रश्न उपर से सरल है लेकिन भीतर से टेढ़ा है । इस का उत्तर सोनिया कांग्रेस और भाजपा की प्रतिद्वंद्विता में तलाशना होगा । भारतीय जनता पार्टी या फिर राष्ट्रवादी शक्तियाँ पिछले दो दशकों में देश की राजनीति के केन्द्र में पहुँच गई हैं । पत्रकारिता की सामान्य भाषा में इन राष्ट्रवादी शक्तियों को संघ परिवार कहा जाता है । भाजपा की भारतीय संस्कृति और इतिहास को लेकर अपनी एक विशिष्ट नीति और विचारधारा है । सोनिया कांग्रेस की इन सभी प्रश्नों पर अपनी एक राय है । इन प्रश्नों पर सोनिया कांग्रेस की विचारधारा उन शक्तियों को बहुत माकूल लगती है जो इस देश की पहचान बदलने के प्रयासों में लगे हुये हैं । यहाँ यह उल्लेख करने अनुचित नहीं होगा ,कि उस अरुणाचल प्रदेश में जहाँ मतान्तरण को रोकने वाला क़ानून बना हुआ है ,और उस क़ानून का उल्लंघन कर जो विधायक बने,उन नबम तुकी को सोनिया गान्धी ने अरुणाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया । इस के लिये दुनिया भर की ईसाई संस्थाओं ने, उनका सार्वजनिक आभार प्रकट किया । यह केवल एक उदाहरण है । अब इस बात में कोई रहस्य नहीं रह गया है कि सोनिया कांग्रेस की सरकार भारत में अमेरिकी हितों की ही पूर्ति कर रही है । खुदरा व्यपार में विदेशी निवेश की अनुमति से लेकर अन्य अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें शरेआम भारतीय हितों की बलि दी जा रही है । इस सूची को लम्बी करने की ज़रुरत नहीं है । यू.पी.ए सरकार पर उन लोगों का कब्जा हो गया है जिन्होंने सारी लोकलाज त्याग कर देश को लूटना शुरु कर दिया है । अब अरबों के घोटालों में आम आदमी कहीं नहीं है । जिन के हाथ में सत्ता है ,उन्होंने सीधे सीधे खुद ही देश को लूटना शुरु कर दिया है । पहले यह काम दलालों के माध्यम से होता था ,अब दलालों ने ही सत्ता संभाल ली है । यू पी ए में दो समूह समानान्तर कार्य कर रहे हैं । एक समूह वह है जो भारत में एक विशेष सांस्कृतिक नीति लागू करने के काम में लगा हुआ है । यह नीति भारत की सनातन पहचान समाप्त करने की नीति है । दूसरा समूह सभी प्रकार से देश के स्रोतों को लूटने के काम में लगा हुआ है । इस में देशी और विदेशी दोनों किस्म के लोग हैं । ये दोनों समूह एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहायता करते हैं । दूसरा समूह पहले समूह को धन मुहैया करवाता है और पहला समूह दूसरे की लूटपाट में सहायता करता है । हालत यहाँ तक खराब हुये कि सरकार में प्रधानमंत्री को ही कहना पड़ा कि कुछ ताकतें भारत विरोधी कामों के लिये पैसा मुहैया करवा रही हैं ।
सोनिया कांग्रेस के ये दोनों समूह जानते हैं कि २०१४ को होने वाले संसदीय चुनाव इनकी बिसात उलटा सकते हैं । जाहिर है यह बिसात भारतीय जनता पार्टी ही अपने सहयोगियों के साथ मिल कर उखाड़ सकती है । और यह जरुरी भी है,क्योंकि यदि सत्ता और ज्यादा देर सोनिया के हाथ रही तो देश का इतना नुकसान हो सकता है कि उसकी भरपाई करना मुश्किल हो जाये । इस लिये भाजपा को घेरा जाये और यह घेराबन्दी इस प्रकार की जाये ताकि एक ओर तो उसके सहयोगी उसे छोड़ना शुरु करें दूसरी ओर भाजपा के भीतर ही द्वन्द्व पैदा किया जाये । यदि भाजपा के खिलाफ़ इस प्रकार का वातावरण बना दिया जाये कि आने वाले चुनाव में उसका जीतना मुश्किल है , तो उसके सहयोगी दलों को रास्ता नापते भला कितनी देर लगेगी ? नये सहयोगी दलों के आने का रास्ता भी अवरूद्ध हो जायेगा । ऐसा नहीं कि यह स्थिति केवल भाजपा के साथ ही है । यदि आज ये संकेत मिलने शुरु हो जायें कि माँ बेटा अब लोगों को जितवा कर विधान सभाओं या संसद में नहीं पहुँचा सकते तो सहयोगी दलों की बात तो दूर की है ,कांग्रेस के लोगों को ही डूबता जहाज छोड़ने में भला कितनी देर लगेगी ? सोनिया गांधी से बेहतर इसे कौन जानता है क्योंकि इंदिरा गान्धी के सत्ता से उतर जाने के बाद उसने स्वयं कांग्रेसियों को उनका साथ छोड़ते देखा है । कुछ नजदीकी लोग तो स्वयं सोनिया का नाम भी उस वक्त जहाज छोड़ने वालों में ही शामिल करते हैं । इस लिये नीति आगे बढ़ कर भाजपा को घेरने की बनी ताकि उसे रक्षात्मक लड़ाई के लिये मजबूर किया जाये, आक्रामक होने का अवसर न दिया जाये । गड़करी को घेरने से अच्छी नीति और भला क्या हो सकती थी ।
लेकिन अब प्रश्न उठता है कि यदि यह सारा कुछ इसी लम्बी रणनीति के तहत हो रहा है तो आखिर सोनिया के दामाद राबर्ट बढ़ेरा पर भ्रष्टाचार के आरोप क्यों लगाये गये ? सलमान खुर्शीद को भी तो घेरा गया है । पन्द्रह मंत्रियों के नाम पढ़ कर कुछ दिन भूखे रहने की कवायद भी की गई । इससे अधिक और क्या किया जा सकता है ? ऊपर से देखने पर बात ठीक दिखाई देती है । लेकिन है नहीं । कांग्ेस जानती है कि भ्रष्टाचार के इन आरोपों से उसकी जन छवि पर कोई बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ता । कांग्रेस में भ्रष्टाचार के इतने स्कैंडल हो चुके हैं कि अब वह इन आरोपों के प्रभाव से इम्यून हो चुकी है ,उसी प्रकार जिस प्रकार मलेरिया फैलाने वाले मच्छर पर अब डी डी टी का कोई असर नहीं पड़ता । वह उससे इम्यून हो चुका है । सोनिया गान्धी के पारिवारिक मित्र क्वात्रोची ने बोफोर्स तोपों की दलाली में करोड़ों रुपये खाये। अब यह अनुमान नहीं बल्कि प्रामाणिक तथ्य है । दरअसल नेहरु काल के जीप स्कैंडल से लेकर सोनिया काल के कोयला स्कैंडल तक कांग्रेस में भ्रष्टाचार का एक समानान्तर इतिहास है ।हाल ही में केन्द्र सरकार के मंत्री तक न्यायपालिका की सक्रियता के कारण जेल यात्रायें नियमित रुप से कर रहे हैं । जनता के मन में कांग्रेस की जो पहचान बन चुकी है , भ्रष्टाचार उस का अभिन्न हिस्सा है ,इसे सोनिया से लेकर ,उसके देशी विदेशी सहायकों तक सभी अच्छी तरह जानते हैं । पार्टी और सरकार के भीतर ईमानदार आदमी की क्या औकात है , इसे जयपाल रेड्डी को पैट्रोलियम मंत्रालय से हटा कर बता भी दिया है । उत्तर भारत की राजनीति में क्षेत्रीय स्तर पर दो राजनैतिक दल कांग्रेस के विकल्प बन सकते हैं । वे हैं मायावती का बी एस पी और मुलायम सिंह यादव का समाजवादी दल । लेकिन दोनों दलों का भ्रष्टाचार को लेकर क्या मत है यह तभी स्पष्ट हो गया था जब भ्रष्टाचार के मामलों में जेल की ओर भाग रहे या पुलिस से छिप रहे अपने पूर्व मंत्रियों को बचाते हुये मायावती ने दुख प्रकट किया कि मैंने मुलायम सिंह के मंत्रियों को प्रमाण होते हुये भी नहीं पकड़ा था , अब समाजवादी पार्टी की सरकार ऐसा करके खेल के अघोषित नियमें को तोड़ रही है । साम्यवादी आन्दोलन अपनी अभारतीय bविचारधारा के कारण पहले ही इस देश से निपट चुका है , वह समय आने पर कांग्रेस की सहायता ही करेगा , उसका विरोध नहीं , ऐसा इतिहास बताता है । इसलिये असली ख़तरा भारतीय जनता पार्टी की ओर से ही है , उसकी विशिष्ट विचारधारा के कारण भी और देश भर में फैले संगठनात्मक ढं़ाचे के कारण भी । देश की जनता भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर देखती है । इस लिये कांग्रेस की रणनीति स्पष्ट है, किसी तरह यह प्रमाणित किया जाये कि कांग्रेस और भाजपा में कोई अन्तर नहीं है , दोनों एक ही थैली के चट्टे पट्टे हैं ।
लेकिन यहाँ यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि इससे अाखिर कांग्रेस को क्या लाभ होगा ? जब तक भाजपा की छवि सामान्य जन के मन में कांग्रेस से बेहतर और आचारण के मामले में साफ़ सुथरी रहेगी तब तक लोग विकल्प के रुप में भाजपा को चुन सकते हैं इसकी संभावना बराबर बनी रहेगी । इसलिये कोई भी चतुर रणनीतिकार यही नीति बचायेगा कि सब से पहले संभावित विकल्प की अलग छवि को खंडित किया जाये । भाजपा को लेकर यही सब किया जा रहा है । परन्तु सभी जानते हैं कि विकल्पहीनता की स्थिति तो और भी ज्यादा ख़तरनाक होती है , उससे तो अराजकता के हालात बन सकते हैं । इससे भला कांग्रेस को क्यामिलेगा ?
कांग्रेस विकल्पहीनता पैदा नहीं कर रही , बल्कि वह अप्रत्यक्ष रुप से जनता के सामने विकल्प परोस रही है । कुछ गिने चुने चैनल दिन रात बता रहे हैं कि विपक्ष की भूमिका में अब भाजपा नहीं रही है , बल्कि उस का यह स्थान अब अरविन्द केजरीवाल ने ले लिया है । कांग्रेस अब सारा जोर यह सिद्ध करने में लगा रही है कि उसका आगामी मुकाबला केजरीवाल के जल्दी ही पैदा होने वाले राजनैतिक दल से होगा । भाजपा तो इस पूरी लड़ाई में हाशिये पर चली गई है । भाजपा क्यों हाशिये पर चली गई है , इसका जबाब केजरीवाल देते हैं । उनका कहना है कि एक तो भाजपा ने कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ना बंद कर दिया है , दूसरे वह यह लड़ाई लड़ भी नहीं सकती क्योंकि वह तो खुद ही भ्रष्टाचार में डूबी हुई है । यह थीसिस सोनिया कांग्रेस और केजरीवाल दोनों के लिये ही लाभदायक है । कांग्रेस को इसलिये क्योंकि वह जानती है कि केजरीवाल की पार्टी उसका बाल भी नहीं उखाड़ सकती और केजरीवाल को इसलिये कि उसे बिना कुछ किये धरे केवल मीडिया समैनेजमैंट से ही भारतीय राजनीति में एक मुकाम हासिल हो जायेगा । लेकिन केजरीवाल और उनके ,कश्मीर पाक्सितान को दे देने की वकालत करने वाले संगी साथी भी जानते थे कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये शुरुआती दौर में किसी बड़े नाम का सहारा लेना होगा । इस काम के लिये अन्ना हज़ारे को पकड़ा गया था । लेकिन अन्ना हज़ारे तो मंच पर ही भारत माता की जय और बंदे मातरम् के जय घोष करने लगे थे । वैसे भी हज़ारे भ्रष्टाचार से लड़ना चाहते थे, केजरीवाल को संसद में पहुँचाने में उनकी कोई रुचि नहीं थी । इसलिये केजरीवाल ने तुरन्त ” मैं अन्ना हूं ” की टोपी उतार कर सभी को ” मैं केजरीवाल हूं ” की टोपियां पहनाईं । केजरीवाल के साथी प्रशान्त बाबू के लिये बन्दे मातरम् से ज्यादा महत्वपूर्ण कश्मीर पाकिस्तान को देना है ।
रणनीति में अब नितिन गडकरी को घेरने का सही समय था । गुजरात और हिमाचल में विधान सभा के चुनाव हो रहे हैं । उद्देश्य केवल आम जनता में ही भाजपा की छवि धूमिल करने का नहीं है बल्कि इसके साथ पार्टी के भीतर भी धुंध फैलाना है । भाजपा के भीतर पिछले कुछ अरसे से नेतृत्व और कार्यकर्ता के बीच संवाद रचना शिथिल हुई है, इसलिये कार्यकर्ता आन्तरिक संवाद के अभाव में बाहरी स्रोतों से प्राप्त समाचार को भी प्रथम दृष्ट्या स्वीकारने लगा है । केजरीवाल और सोनिया कांग्रेस की पीछे की शक्तियाँ इसे अच्छी तरह जानती हैं । इस केहरे को बढ़ना भी इसी रणनीति का हिस्सा है ।
गडकरी के खिलाफ़ आखिर मीडिया को गेम खेलने के लिये कुछ न कुछ प्रमाण तो देने होंगे । लेकिन जो प्रमाण दिये जा रहे हैं उन की हैसियत न्याय शास्त्र के ” सर्प रज्जू प्रमाण ” और ” धूम्र अग्नि प्रमाण ” से ज्यादा कुछ नहीं है । सर्प रज्जू प्रमाण जग विख्यात है । जब अन्धेरे में रस्सी को साँप बताया जाता है । जाहिर है दर्शक उसे साँप ही समझेंगे । यही आरोप लगाने वाले की सफलता है । जहाँ धुआं होगा वहाँ आग होगी , इस में कोई शक नहीं , लेकिन जब कोहरे को ही दूर से धुआं बताया जाये और उसी के आधार पर अग्नि होने की बात उछाली जाये तो इसे आरोप लगाने वालों की चालबाजी ही कहा जायेगा । लेकिन आरोप लगाने वाले भी जानते हैं कि कुछ लोग इन प्रमाणों को भी स्वीकार करेंगे ही ।
असली प्रश्न इसके बाद ही शुरु होता है । इस मरहले पर भाजपा क्या करेगी ? पंचतंत्र की पुरानी कथा यहां भी प्रासंगिक है । क्योंकि पंचतंत्र लिखा ही राजनीति को समझने के लिया था । ब्राह्मण को किसी यजमान ने पूजा के बाद बकरी का बच्चा दक्षिणा में दिया । कन्धे पर लाद कर वह उसे घर ला रहा था कि रास्ते में तीन ठगों की नज़र उस पर पड़ी और उन्होंने ब्राह्मण से बकरा लेने की योजना बनाई ।योजना की खूबसूरती यह थी कि ब्राह्मण खुद ही बकरा छोड़ दे । एक ठग ब्राह्मण के पास गया और चरण छूकर कन्धे पर कुत्ता ढोने के लिये आश्चर्य प्रकट किया । ब्राह्मण ने बकरे को कुत्ता कहने पर ड़ांटा तो वह ठग चला गया । थोड़ी दूर जाने पर दूसरा ठग प्रकट हुआ । उसने भी बकरे को कुत्ता कहा । ब्राह्मण के ड़ंटने पर वह भी चला गया । थोड़ा और आगे जाने पर तीसरा ठग प्रकट हुआ । उसने भी बकरे को कुत्ता कहा तो ब्राह्मण ने उस बकरे को यह कह कर छोड़ दिया कि तीनों लोग तो ग़लत नहीं हो सकते । जबकि वे तीनों लोग ग़लत ही नहीं थे बल्कि एक सोची समझी रणनीति के तहत काम कर रहे थे । आशा है भाजपा उस ब्राह्मण की ग़लती नहीं दोहरायेगी । वैसे तो पंचतंत्र का ब्राह्मण भी २०१२ तक आते इतना समझदार तो हो ही गया होगा कि उस ग़लती को इस बार न दोहराये । और भी , भाजपा को अपना नेतृत्व भी दक्षिण में नहीं मिला हुआ बल्कि इसे लाखों कार्यकर्ताओं ने अपने परिश्रम से स्वयं गढ़ा है । इसलिये इसे खंडित करने के स्थान पर उन ठगों की रणनीति को परास्त करने की रणनीति बनाना ही देशहित और पार्टी हित में होगा ।