लेख को लिखने का आशय किसी का अपमान या छवि धूमिल करना नहीं है, बल्कि उनकी सोयी आत्मा को झकाझौरना है। इतिहास गवाह है कि चरित्रहीन व्यक्ति या समूह को न पहले कभी सराहा गया था और न आज और न कल सराहा जायेगा। शब्दों का ज्ञान ज्ञानी होने का भ्रम पैदा कर अपने अज्ञान, मूढ़ता एवं कुरूपता को छिपाने का एक अच्छा साधन हो सकता है। लेकिन खुद तो असलियत जानते हैं उससे कैसे भागोगे? वो लाख दर्जा अच्छे हैं जो हकीकत को न केवल स्वीकार करने का साहस रखते बल्कि उसे स्वीकार कर जीते भी हैं, फिर बात चाहे तवायफ, नगर वधु या शरद बाबू के उपन्यास चरित्रहीन का किरदार ही क्यों न हो। वे लोग खतरनाक होते हैं, जो दोहरी जिदगी जी लोगों को समाज को, भ्रमित कर रहे हैं, देवता, रहनुमा के रूप में शैतान बने बैठे हैं।
यहां निःसंदेह पहला वर्ग तो एक बार सम्मान का हकदार हो सकता है लेकिन दूसरा वर्ग तो केवल घृणा का ही पात्र हो सकता है। कृष्ण ने गीता में कहा कि पाप तब तक ही पाप है जब तक उसे छिपाया गया है, हकीकत में पाप उतना नहीं सताता जितना कि उसका किया जाना। कृष्ण ने केवल एक ही बार कहा है निष्पाप अर्जुन और अर्जुन में पुनः नई शक्ति का संचरण हुआ।
आज वर्तमान परिदृश्य में सब कुछ बदला-बदला है नगर बंधुओं की जगह कस्बा, मोहल्लाओं ने ली है, कोठे की जगह दरबारों ने ले ली है, चरित्रहीन पूजनीय एवं माननीय हो गए है, इस सब में यदि कोई नहीं है, तो वह है कृष्ण-अर्जुन! जब साधन दूषित हो गए हैं तो साधक भी कैसे बच सकता है।
चरित्रहीन की इस दौड़ में सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा हे, मर्यादाएं एवं नैतिक मूल्य आज दो कोड़ी की चीज बन प्रदर्शनी के भी लायक नहीं रह गई। चारों ओर लूट डकैती, बलात्कार, भूखमरी, बेरोजगारी का हला-हल विष के सागर में विशाल ज्वार उठ रहे है, समाज भयभीत है, डरा है, कहते हैं देवताओं एवं असुरों ने मिल जब समुद्र का मंथन किया तो अमृत और विष दोनों ही निकले असुर बहरूपीया होने के कारण देवता की पंगत में बैठ अमृत पीने का असफल प्रयास राहू के द्वारा किया गया था, जो अमर है, जो आज भी चाहे जब किसी को भी ग्रस रहा है। क्या आज कुछ चरित्रहीन माननीय, माननीय का चोला ओढ़ जनता को नहीं ग्रस रहे हैं? मंथन में निकला हलाहल विषपान करने के लिये उस समय तो भोलेबाबा शिव थे, लेकिन आज कौन? कुछ हद तक यह कार्य म.प्र. के मुखिया ‘‘शिवराज’’ समय-समय पर विषपान करते रहते हैं। आखिर शिव का मन ही ऐसा है खरी कहे बिना रह नहीं सकता दिल पर बोझ लिये चल नहीं सकता।
संसद लोकतंत्र का पवित्र मंदिर होता है जिसका दुरूपयोग करने का अधिकार भारत में किसी को भी नहीं है, फिर चाहे वह सांसद हो या जनता? चरित्रवान होने की जिम्मेदारी जनता की तुलना में यहां सांसदों की ज्यादा बनती है। कहते भी हैं कि एक सड़ी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। शरीर के किसी अंग में यदि कोई कैंसर हो जाता है तब व्यक्ति की जान बचाने के लिये डाॅक्टर उस शरीर से उस ग्रसित अंग को काट देता है। इसी तर्ज पर अच्छे चरित्रवान सांसदों को मिल चरित्रहीन अर्थात् दागी लोगों को दाग घुलने तक लोकतंत्र के मंदिर में प्रवेश वर्जित करने के कड़े नियमों को बनाना होगा। यहां लोक हया और लोकतंत्र दोनों केा बचाना है। केवल गाल बजाने से स्थिति, परिस्थितियों में सुधार नहीं हो सकता।
लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है, मालिक होती है, बाकी के केवल सेवक होते हैं, फिर चाहे वह सांसद हो, विधायक हो या अन्य जनप्रतिनिधि या अधिकारी या कर्मचारी हो।
अन्ना टीम के अरविंद केजरीवाल अपने सेवकों पर व्यक्तिशः आरोप लगाते हैं कि 162 सांसदों के खिलाफ कुल 522 मामले चल रहे हैं, जिनमें से 76 बहुत ही गंभीर किस्म के हैं एवं विवादस्पद छवि वाले है। उसी के साथ 14 केन्द्रीय मंत्रीयों की भी सूची जारी की है यहां यक्ष प्रश्न उठता है क्या दागी को दागी भी नहीं कहा जा सकता? कहीं विशेषाधिकार का राग अलाप कहीं अनैतिक कार्याें को करने छूट का अधिकार तो नहीं मान रहे? यहां व्यक्ति समूह एवं संस्था को अलग-अलग कर चिंतन एवं बहस की महति आवश्यकता है ताकि दागी भी न बच सके और संस्था भी ऐसों से कलंकित न हो सके। जब सीता अग्नि परीक्षा दे सकती है तो सांसद क्यों नहीं? यहां सरकार स्वयं आगे बढ़ ऐसे सभी दागियों के विरूद्ध उचित कठोर कार्यवाही करने से क्यों कतरा रही है? आखिर जनता को पूरा सच जानने का हक है? क्या लोकतंत्र में जनता अपने जन प्रतिनिधि से भी प्रश्न नहीं पूछ सकती ? उल्टी गंगा बहाने का कुत्सित प्रयास किसी को भी नहीं करना चाहिये।
यहां जहन में कुछ प्रश्न उठ रहे हैं मसलन संसद के द्वार तक अपराधियों को भेजने का मुख्य दोषी कौन है, जनता या राजनीतिक पार्टियां? क्या सुधार संभव है? यदि हाॅ तो कैसे। मेरा मानना है कि राजनीतिक पार्टियां ही इन सभी कृत्यों के लिये मुख्यतः जवाबदेह है। आज राजनीतिक पार्टियां कोठे की तवायफ की भूमिका में ज्यादा नजर आती है, जिसने इन पर जितना धन लुटा दिया वही उसका प्रिय हो गया फिर ये बात गौण हो जाती है कि धन लुटाने वाला बलात्कारी,लूट, हत्या या बदचलनी का आरोपी है। फिर धन लुटाने वालों की मेहरबानियों पर ही जिस तरह तवायफ मुजरा करती है, ठीक कुछ वैसा ही मुजरा, नाटक, नौटंकी राजनीतिक पार्टियां भी करती है? आज बड़े एवं छोटे मुजरा करने वाली पार्टियों के बीच ही कड़ी प्रतिस्पर्धा है धन या नाच दिखाने की । युवा ऐसे कृत्यों में ज्यादा आकर्षित होता है। आंकड़ों को देख लें। सभी राजनीतिक पर्टियों ने ऐसे लोगों को टिकट देने में अपना प्रतिशत ही बढ़ाया है, इसलिये लोकतंत्र के मंदिर में इनका प्रतिशत बढ़ना भी लाज़मी है, ऐसे माहौल में कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के एक नेता द्वारा म.प्र. में युवाओं को पुलिस प्रकरण दर्ज होने का भय त्याग जोश खरोशी के साथ कार्य करने के साथ पार्टी आने पर दर्ज प्रकरणों को माफ करने का आश्वासन इस दिशा में एक नई परम्परा का सूत्रपात है?
तवायफ के सिद्धांत को जोर देता हाल ही में झारखंड में राज्य सभा का चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों में से एक के भाई की कार से आयकर विभाग ने दो करोड़ रूपये के साथ ही कुछ विधायकों के नाम लिखे कागजात बरामद होने की प्रकाशित खबरों के साथ ही निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव रद्द करना भी एक उत्कृष्ट उदाहरण है। राज्य सभाओं एवं लोक सभाओं में पूंजीपतियों एवं बाहुबलियों की संख्या में बढ़ोतरी तवायफ सिद्धांत को बल देता है।
इतिहास गवाह है कि चाहे चित्रलेखा हो या राजा भृतहरि दोनों ही अंत में संत बने। ऐसा भी नहीं है कि राजनीतिक चरित्रहीन पार्टियों में सुधार नहीं हो सकता ? मेरा मानना है कि हो सकता है। अच्छे चरित्रवान लोगों को चुनाव में खड़ा कर! हो सकता है कि प्रारंभ मैं इस अच्छे कार्य में नुकसान उठाना पड़े वैसे भी सत्य के मार्ग में कांटे ही होते हैं! रहा सवाल जनता का, तो वो पहले भी दो बुरों में से एक को चुनती थी अब अच्छों में एक को चुनेगी क्योंकि उसके पास केवल एक ही आॅप्शन है एक को चुनना! इस तरह राजनीतिक चरित्रहीन पार्टियां भी संत हो समाज में न केवल प्रतिष्ठा पायेगी बल्कि राजनीति की मेली गंगा में शुद्धिकरण हो लोक एवं तंत्र दोनों का उद्धार हो सकेगा।