भारत में जितने भी धर्मशास्त्र है सभी मानने पर कम एवं जानने पर ज्यादा जोर देते आये है फिर बात चाहे वेद-पुरान गीता की हो, बाइबिल की हो, कुरान की हो या अन्य की राम से रहीम, कृष्ण से पैगम्बर, जीसस से नानक एवं अन्य लोगों ने भी स्वयं वो जानने पर ही जोर दिया है, क्योंकि, जानने में खुद का ही श्रम काम आता है, खुद को ही चलना पड़ता हैं, खुद को ही गलना पड़ता है, खुद को ही मिटना पड़ता है। पूरा का पूरा रास्ता जोखिम भरा हुआ रहता है। इसलिए आदमी इस राह पर आसानी से चल नहीं सकता। मानना सबसे आसान काम है जिसमें कोई भी बुद्धि का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मसलन किसी ने कहा भगवान, अल्लाह, जीसस, महावीर, बुद्ध नानक या अन्य ने ऐसा कहा या ऐसा करो। बस मान लो। ये उनके अनुभव है जो आपके पथ प्रदर्शक हो सकते हैं लेकिन लाख टके का सवाल चलना, जानना तो स्वयं को ही पड़ेगा। महावीर ने त्रिभंगी सत्य की जगह सप्तभंगी सत्य को बताया अर्थात् सत्य को सात तरह से व्यक्त किया जा सकता है। मामला इतना बारीक था, समझना कठिन था, नतीजन भक्तों की संख्या भी कम रही।
माना हुआ धर्म केवल मिथ्या एवं भ्रम को ही जन्म देता है जो धर्म न होकर केवल अहंकार जानने का मात्र होता है और यही से धन, मोह, ईर्ष्या, लालच का फंदा अक्ल पर पर्दा डाल वो सब कुछ करवाता है जिसे कम से कम धर्म तो नहीं कहा जा सकता। चार पुस्तकों को पढ़ ज्ञानी होने का भ्रम पाल सीधे ईश्वर से सम्पर्क होने का दावा ठोकने या स्वयं को ही ईश्वर मान लेने का दावा करने वाले ढोंगी लोगों के अनुयाईयों की संख्या अधिक है, क्योंकि आज आपाधापी के इस दौर में भक्तों के पास भी समय नहीं है। वैसे भी कहा गया है ‘‘पानी पिओ छान के, साधु मानो जानके’’ आज हर आदमी इतना दुखी है वो पल भर का कुछ सुकून चाहता है फिर उसके लिए उसे सिनेमा हाल जाना पड़े, कथा-भजन सुनने जाना पड़े या आश्रमों-मठों की शरण में जाना पड़े। ये सभी कुछ समय के लिए सुकून प्रतीत पड़ते हैं मगर ऐसा होता नही है, जल्द ही उनका भ्रम टूट और भी गहरे अवसाद में ले जाता है। बात फिर वही आकर ठहर जाती है कि स्वयं को जानने से ही जगत और परम भ्रम परमेश्वर को जाना जा सकता है इसके अलावा कोई अन्य उपाय भी नहीं हो सकता।
कलयुग के इस दौर में ढोंगी और गाल-बजाने वालों की ही चांदी है लेकिन यह भी सत्य है कलयुग में परिणाम भी शीघ्र ही मिलते हैं अर्थात् अगले जनम इंतजार नहीं करना पड़ता। किये गये कर्मों का फल इसी जनम में मिल जाता है फिर बात चाहे विभिन्न आरोपों से घिरे आसाराम की हो, धीरेन्द्र ब्रहृाचारी की हो, चन्द्रास्वामी की हो, नित्यानंद स्वामी की हो, प्रेमानंद की हो, गुरमीत राम रहीम की हो, रामपाल की हो या ऐसे अन्य लोगों की सभी पर कही न कही बालात्कार, अश्लील साहित्य, हत्या, सेक्स, अय्यासी के इर्द-गिर्द ही घिरे पाये गये है। धर्म की आड़ में ये डान की ही तरह सिद्ध हुए। अब तो गुण्डागर्दी का आलम ये है इन बाबाओं ने अपनी सेना, कमाण्डो तक बना लिए हैं।
हाल ही में हरियाणा के हिसार के सतलोक आश्रम का तथाकथित संत रामपाल जो खुद को कबीर पंथ का अनुमाई बताता है वह हकीकत में न ही संत बन पाया और न ही कबीर का सच्चा अनुयाई। कहां कबीर का फक्कड़पन कहां रामपाल का वैभवी साम्राज्य? निःसन्देह कबीर की आत्मा कही न कही चीत्कारती तो होगी।
18 दिन, 56 घण्टे, 45 हजार की फोर्स, 6 की मौत, कई प्रश्नों को जन्म देते हैं। बेकसूरों की हत्या का जिम्मेदार कौन? भोली-भाली जनता के विश्वास का विश्वासघात का दोषी कौन? रामपाल या अज्ञानता या सरकार? संत का डान की तरह व्यवहार करना, संतों का राजसी ठाठ बाट कहां तक उचित? कबीर जो जीवन भर शोषण, अत्याचार, पाखण्ड के विरोधी रहे उसके विपरीत आचरण कहां तक उचित?
अब वक्त आ गया है सभी राज्यों की सरकारों को भी अपनी जवाबदेही समझना होगी। संत, आश्रम, मठों के लिए न केवल पारदर्शी नीति बनाना होगी, बल्कि ढांेगियों के खिलाफ अभियान भी चलाना होगा।
घटना घटे तथाकथित लोगों में विद्रोह करने की प्रवृत्ति पनपें, सरकार के खिलाफ जंग छेड़े उसके पहले ही चेत कठोर कानूनों को बनाना ही होगा। आखिर कोई भी धर्म कुकर्मो एवं कृकृत्यों की इजाजत नहीं देता।