आजादी के अडसठ बरस बाद यह सोचना कि मीडिया कितना स्वतंत्र है। यह अपने आप में कम त्रासद नहीं है। खासकर तब जबकि सत्ता और मीडिया की साठगांठ खुले तौर पर या तो खुशहाल जिन्दगी जीने और परोसने का नाटक कर रही हो या फिर कभी विकास के नाम पर तो कभी राष्ट्रवाद के नाम पर मीडिया को धंधे में
बदलने की बिसात को ही चौथा स्तंम्भ करार देने नहीं चूक रही हो। तो क्या सियासी बिसात पर मीडिया भी अब एक प्यादा है । और प्यादा बनकर खुद को वजीर बनाने का हुनर ही पत्रकारिता हो चली है। जाहिर है यह ऐसे सवाल है जिनका जवाब कौन देगा यह कहना मुश्किल है लेकिन सवालों की परतों पर उघाडें तो मीडिया का सच डरा भी सकता है और आजादी का जश्न सत्ता से मोहभंग कर भी सकता है। क्योंकि माना यही जाता है कि मीडिया के सामने सबसे बडी चुनौती आपातकाल में आई। तब दिखायी दे रहा था कि आपातकाल का मतलब ही बोलने-लिखने की आजादी पर प्रतिबंध है। लेकिन यह एहसास 1991 के आर्थिक सुधार के बाद धीरे धीरे काफूर होता चला गया कि आपातकाल सरीखा कुछ अब देश में लग सकता है जहा सेंसरशिप या प्रतिबंध का खुल्लम खुल्ला एलान हो।
दरअसल देश का नजरिया ही इस दौर में ऐसा बदला जहा मीडिया की परिभाषा बदलने लगी तो फिर सेंसरशिप सरीके सोच का मिजाज भी बदलेगा। शायद सीलिये पहला सवाल मीडिया को लेकर यह भी उभरा कि क्या वाकई मीडिया की आजादी का बोलने-लिखने से कोई वास्ता है। विकास के नाम पर बाजार व्यवस्था को विस्तार दिया गया। मीडिया पूंजी पर आश्रित होती चली जा रही है। तो बोलना-लिखना भी मीडिया संस्थानों के मुनाफे घाटे से जुड़ने लगा। यानी जो पत्रकारिता जनमानस के सवाल उठाकर सत्ता को बैचेन करती वही मीडिया सत्ता की उपलब्धि बताकर जनमानस को सत्ता के लिये अभयस्त करने में लग गई। असर इसी का हुआ कि व्यवस्था चलाते संवैधानिक संस्थानो की धार भी राजनीतिक सत्ता के सामने भोथरी होने लगी। ऐसे में अपनी नयी जमीन बनाते -तलाशते चौथे स्तम्भ को 2015 तक पहुंचते पहुंचते रास यही आने लगा कि रात के अंधेरे में सत्ता के साथ गलबहियां डाली जायें और सुबह सुबह अखबारो में या ढलती शाम के साथ चैनलों के प्राइम टाइम में राजनीतिक जमीन सत्ता के लिये मजबूत किया जाये। जिससे विकास की परिभाषा भूखे-नंगों के देश के बदले करोड़पतियों की बढ़ती तादाद पर टिके। विदेशी पूंजी या चुनिंदे मित्र कारपोरेट के साथ गलबहियां करते हुये इन्फ्रास्ट्रक्चर का राग अलाप कर क्रोनी कैपटलिज्म के अपराध को सांगठनिक व्यवस्था में बदल दिया जाये।
तो मीडिया का असल संकट पत्रकारिता के उस बदलाव से शुरु होता है जो सत्ता के विरोध और निगरानी के बदले खुद की सत्ता बनाने की जद्दोजहद को ही पत्रकारिता मान बैठी। यानी एक दौर में सत्ता से दो दो हाथ करते हुये सत्ता बदलने की ताकत को ही “जर्नलिज्म आफ करेज” माना गया तो एक वक्त पत्रकारिता की ताकत मीडिया हाउस शब्द पर जा टिकी। पत्रकारिता को किस महीन तरीके से मीडिया संस्थानो ने हड़पा और कैसे संपादक संपादकीय पेज से निकल कर संस्थानों के टर्न ओवर [ बैंलेस शीट ] में सिमटने लगा। और किस हुनर से मीडिया संस्थानो के टर्न-ओवर को अपनी मुठ्ठी में सत्ता ने कर लिया यह उपभोक्ताओ के हिन्दुस्तान में कोई समझ ही नहीं पाया। और असल भारत जबतक इस हकीकत को समझने की हालात में आता तब तक उपभोक्ता समाज को ही असल भारत करार देने में वही मीडिया जुट गया जिसके भीतर बदलते मीडिया के चेहरो से ही दो दो हाथ करने की बैचेनी थी। जिसे सत्ता पर निगरानी करनी थी। जिस अपनी रिपोर्टो से किसान-मजदूर के भारत की अनदेखी पर सवाल खड़े करने थे। क्योंकि जैसे ही जनमानस को लेकर किसी पत्रकार ने सवाल उठाये। जैसे ही किसी मीडिया हाउस के तेवर सत्ता को चिकोटी काटने लगे। वैसे ही सिस्टम सक्रिय होने लगा। जो मीडिया को बिके होने या विरोधी राजनीतिक दल या धारा का बताकर हमला करने लगा। सत्ता वहा सफल नहीं हुई तो हमला उस पूंजी पर ताले लगाने से शुरु हुआ जिसपर कभी अखबारी कागज के जरीये होता था । लेकिन अब लाइसेंस रद्द करने या विज्ञापनो पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने को लेकर होता है । अगर हाथ वहा भी फिसले तो फिर सत्ता को हिंसक होने में भी देर नहीं लगती। और यही से पत्रकार और मीडिया हाउस के बीच एक लकीर भी नजर आती है।
और पत्रकारिता का रास्ता बंद गली के आखिरी छोर पर दीवार से टकराते हुये भी नजर ता है क्योंकि पत्रकारों के हाथ में पूंजी पर टिके वह औजार होते नहीं है जिसके जरीये वह मीडिया में तब्दील हो सके या पत्रकारिता को ही मीडिया में बदल सके। मीडिया के लिये बनायी व्यवस्था मीडिया हाउस को ही पत्रकारिता का खिताब देती है। लेकिन मीडिया कैसे किस रुप में भटका इसे समझने से पहले बदलती राजनीतिक सत्ता और उसकी प्राथमिकता को भी समझना जरुरी है। क्योंकि आजादी के तुरंत बाद देश को किसी पार्टी की सरकार नहीं बल्कि राष्ट्रीय सरकार मिली थी। इसीलिये नेहरु के मंत्रिमंडल में वह सभी चेहरे थे जिन चेहरो के आसरे आज राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिये टकराती है। यानी 68 बरस पहले 1947 में सवाल देश का था तो नेहरु की अगुवाई में देश के कानून मंत्री बी आर आंबेडकर थे। गृह मंत्री सरदार पटेल थे। तो शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और इंडस्ट्री-सप्लाई मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। इसी तर्ज पर अठारह कैबिनेट मंत्री अलग अलग जाति-सप्रदाय-धर्म-भाषा-सूबे के थे। जो मिलकर देश को दिशा देने निकले। तो पत्रकारिता भी देश को ले कर ही सीधे सवाल नेहरु की सत्ता से करने की हिम्मत रखती थी। असर इसी का था कि संसद के भीतर की बहस हो या सडक पर हिन्दु महासभा से लेकर समाजवादियो का विरोध । लोहिया के तीखे सवाल हो या गैर काग्रेसवाद का नारा लगाते हुये काग्रेस विरोधी संगठन और पार्टियों को लाने की कवायद। हर सोच के पीछे देश को समझने और भारत के हर सूबे-सप्रदाय-धर्म तक न्यूनतम जरुरतो को पहुंचाने की होड़ थी। यही हर राजनीतिक दल के घोषणापत्र का एलान था और यही समझ हर राजनेता के कद को बढाती कि उसे देश की कितनी समझ है। तब लड़ाई न्यूनतम जरुरतों को लेकर थी। यानी सिर्फ हिन्दू या मुस्लिम। या फिर आर्य-द्रविड कहने भर से काम नहीं चलेगा बल्कि सूबे-दर-सूबे न्यूनतम जरुरतो को कैसे पहुंचाया जा सकता है । खेत-मजदूर के सवाल देश के सवाल थे। आदिवासियो के सवाल थे । अल्पसंख्यकों की मुश्किलात का जिक्र था । देश के तमाम संस्थान देश को बांधने में लगे थे। तो पत्रकारिता के सामने सत्ता को लेकर सारे सवाल अवाम से जुडे थे।
क्योंकि राजनीतिक सत्ता के सारे राजनीतिक सरोकार पहले जनता से जुडे थे। इसीलिये मुद्दा सांप्रादियकता का हो या किसानों का। मुद्दा विकास का हो या इन्फ्रास्ट्रक्चर का । हर हालात देश के भीतरी माहौल से ही टकराते और उसी में रास्ता निकालने की कोशिश होती। यानी देश के सामाजिक-आर्थिक चेहेरे से इतर टाटा-बिडला सरीखे उघोगपति भी नहीं देख पाते और अखबारी पत्रकारिता और उसके संपादक की कलम भी आम जनता के सरोकार से जुडकर सवाल भी उठाती और सत्ता को प्रभावित करने वाली रिपोर्ट को लेकर सौदेबाजी का दायरा भी राजनीतिक दलाली की जगह सत्ता से टकराने का हुकूक दिखाने को तैयार हो जाता । यानी इस दौर तक संपादक,पत्रकार और मीडिया संस्थान अक्सर रिपोर्ट या लेखनी के जरीये बंटते भी और अलग अलग दिखायी भी देते। संजय गांधी की जनता कार यानी मारुति पर पहली रिपोर्ट टीएन निनान ने लिखी । लेकिन उसे बिजनेस स्टैन्डर्ड ने नहीं छापा। तो वह रिपोर्ट इंडिया टुडे में छपी। कमोवेश एक लंबा इतिहास रहा है जब किसी रिपोर्टर या किसी संपादक ने संस्थान इसलिये छोडा क्योकि उसकी रिपोर्ट सत्ता के दबाब में नहीं छपी। या फिर सत्ता ने संपादक को ही बदलवा दिया। जैसे कुलदीप नैयर को सत्ता के इशारे पर हटाया गया। लेकिन वह पत्रकारिता के हिम्मत का दौर था। वह राजनीतिक सत्ता के रिपोर्ट से खौफजदा होने का भी दौर था। यानी मीडिया का प्रभाव जनता में और जनता को प्रभावित कर सत्ता पाने की राजनीति। शायद इसीलिये हर कद्दावर राजनेता का लेखन या पत्रकारिता से जुडाव भी उस दौर में देखा जा सकता है। और संपादकों में संसद जाने की लालसा को भी देखा जा सकता था। एक लिहाज से समझे तो पत्रकारिता देश को जानने समझने के लिये ही नहीं बल्कि राजनेताओं को दिशा देने की स्थिति में भी रही। उस पर भी साहित्य और पत्रकारिता को बेहद नजदीक पाया गया। इसलिये विभन्न भाषाओ के साहित्यकार भी संपादक बने और राजनीतिक तौर पर किस दिशा में देश को आगे बढना है या संसद के कानून बनाने को लेकर किसी भी मुद्दे पर पत्रकारिता ने बडी लंबी लंबी बहस की । जिसने देश को रास्ता दिखाने का काम किया । क्योकि तब राजनीति का आधार और पत्रकारिता की पूंजी जनता थी । बहुसंख्यक आम जनता । लेकिन 1991 के बाद बाजार देश पर हावी हुआ। देश की सीमा पूंजी के लिये पिघलने लगी । उपभोक्ता और नागरिक के बीच लकीर दिखायी देने लगीं । भा-सरोकार सिमटने लगे। समाज के भीतर ही संवादहीनता की स्थिति बनने लगी ।नेहरु, शाश्त्री या इंदिरा गांधी आदिवासी गौंडी भाषा भी समझ लेते थी या फिर संवाद के लिये आदिवासियो के बीच एक द्विभाषिए को साथ ले जाते थे । पत्रकार आदिवासियों से संपर्क साध कर उनकी भाषा के जरीये उनके संवाद को कागज पर उकेरता। या फिर दंगों की रिपोर्टिंग या संपादकीय में पत्रकार दंगों से प्रभावित सच तक पहुंचने की जद्दोजहद करता नजर आता। उन रिपोर्ट को पढ़ने के बाद ही पता चलता कि कौन संपादक कितना बड़ा है और किस राजनीतिक दल या राजनेता के सरोकार दंगाईयों से रहे। एक चैक-एंड बैलेंस लगातार काम करते रहता। क्योंकि पत्रकारिता की पूंजी जनता की मान्यता थी। और पत्रकार की वहीं साख सत्ता को भी परेशान करती । लेकिन बाजार का मतलब पूंजी और पूंजी का मतलब मुनाफा हुआ तो देश का मतलब भी पूंजी पर टिका विकास हुआ । यानी 1991 के बाद राजनीतिक सत्ता ने जिस तेजी से अर्थव्यवस्था को लेकर पटरी बदली उसने झटके में उस सामाजिक बंदिशो को ही तोड दिया, जहां दो जून की रोटी के लिये तडपते लोगो के बीच मर्सिर्डिज गाडी से घूमने पर अपराध बोध होता । बंदिशें टूटी तो सत्ता का नजरिया भी बदला और पत्रकारिता के तौर तरीके भी बदले। बंदिशें टूटी तो उस सांस्कृतिक मूल्यों पर असर पडा जो आम जन को मुख्यधारा से जोडने के लिये बेचैन दिखती। लेखन पर असर पड़ा। संवैधानिक संस्थाये सत्ता के आगे नतमस्तक हुई और झटके में सत्ता को यह एहसास होने लगा कि वही देश है। यानी चुनावी जीत ने पांच साल के लिये देश की चाबी कुछ इस तरह राजनीतिक सत्ता के हवाले कर दी कि संविधान के तहत कार्यपालिका,न्यायपालिका और विधायिका जहा एक दूसरे को संभालते वहीं आधुनिक सत्ता के छाये तले सभी एक सरीखे और एक सुर में करार दे दिये गये। और इसी कडी में शामिल होने में मीडिया ने भी देर नहीं लगायी ।
क्योंकि सारी जरुरते पूंजी पर टिकी । मुनाफा मूल मंत्र बन गया। हर संवैधानिक संस्था को संभाले चौकीदार सत्ता के लिये बदलते दिखे। सीबीआई हो या कैग या सीवीसी। झटके में सभी दागदार या कहे सत्ता से प्रभावित दिखे। लेकिन उनकी संवैधानिक छवि ने उनकी आवाज को ही हेडलाइन बनाया। यानी सत्ता अगरखुद दागदार हुई तो उसने सिस्टम के उन्ही आधारो को अपना ढाल बनाना शुरु किया जिन्हे सत्ता पर निगरानी रखनी थी। यानी सत्ता का कहना ही हेडलाइन बन गई। और सत्ता की हर क्षेत्र को लेकर परिभाषाये ही मीडिया की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट मान ली गई । और इस सत्ता का मतलब सिर्फ दिल्ली यानी केन्द्र सरकार भर ही नहीं रहा। बल्कि चौखम्भा राज सत्ता ने राष्ट्रीय अखबारो और न्यूज चैनलों से लेकर क्षेत्रिय और जिले स्तर के अखबार और टीवी चैनलो को भी प्रभावित किया। और इसकी सबसे बडी वजह यही रही कि जिस भी राजनीतिक दल को सत्ता मिलती है उसके इशारे पर समूची व्यवस्था खुद ब खुद चल पडती है। यानी एक वक्त कल्याणकारी राज्य की बात थी जो राज्यसत्ता की जिम्मेदारी थी। लेकिन अब बाजारवाद है तो खुद का खर्चा हर संस्थानों को खुद ही निकालना चलाना है। और खर्चा निकालने-चलाने में राज्यसत्ता की जहां जहा हरी झंडी चाहिये उसके लिये सत्ता के मातहत संस्थानों के नौकरशाह, पुलिस, अधिकारी निजी संस्थानो के लिये वजीर बने बैठे है । लेकिन सत्ता के लिये वही प्यादे है जो पूंजी बनाने कमाने के लिये शह-मात का खेल बाखूबी खेलते है । यानी मीडिया के सामने यबसे बडी चुनौती यही है कि वह या तो सत्ता की परिभाषा बदल दें या फिर सत्ता के ही रंग में रंगा नजर आये । क्योंकि समूचा तंत्र ही जब सत्ता के इशारे पर काम करने लगता है तो होता क्या है यह भी किसी से छुपा नहीं है। गुजरात में पुलिस नरेन्द्र मोदी की हो गई था तो 2002 के दंगों ने दुनिया के सामने राजधर्म का पालन ना करने सबसे विभत्स चेहरा रखा । 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या को बडे वृक्ष के
गिरने से हिलती जमीन को देखने की सत्ता की चाहत में खुलेआम नरसंहार हुआ। शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में शिंकजा कसा तो लाखो छात्रों की प्रतियोगी परीक्षा धंधे में बदल गई। रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में शिंकजा कसा तो आदिवासियों के हिस्से का चावल भी सत्ताधारी डकारने से नहीं चूके। उत्तर प्रदेश में तो सत्ता चलाने और चलवाने का ऐसा समाजवाद दिखा की हर संस्था का रंग सत्ता के रंग में रंग दिया गया या फिर खौफ ने रंगने को मजबूर कर दिया । कलम चली तो हत्या भी हुई । और हत्या किसने की यह सवाल सियासी बिसात पर कुछ स तरह गायब किया गया जिससे लगे कि सवाल करने या जबाब पूछने पर आपकी भी हत्या हो सकती है । सिर्फ यूपी ही क्यों बंगाल में भी मां , माटी ,मानुष का रंग लाल हो गया । पत्रकार को गायब करना या निशाने पर लेने के नये हालात पैदा हुये । मध्यप्रदेश तो रहस्यमयी तरीके से पत्रकारिता को अपने चंगुल में फांसने में लगा । इसलिये व्यापम पर रिपोर्ट तैयार करने गये दिल्ली के पत्रकार की मौत को भी रहस्य में ही उलझा दिया गया । मुश्किल सिर्फ इतनी भर नहीं है कि पत्रकारिता और मीडिया हाउस सत्ता के लिये एक बेहतरीन हथियार बन चुके है मुश्किल यह भी है कि सत्ता कभी हथियार तो कभी ढाल के तौर पर मीडिया का इस्तेमाल करने से नहीं चुकती और मीडिया के सामने मजबूरी यह हो चली है कि उसने जिस बिजनेस माडल को चुना है वह सत्ता के किलाफ जाकर मुनाफा दिनाले में सक्षम नहीं है । वजह भी यही है कि झटके में कारपोरेट का कब्जा मीडिया पर बढ रहा है और मीडिया पर कब्जाकर कारपोरेट अपनी सौदेबाजी का दायरा सत्ता से सीधे करने वाले हालात में है । अब यहा सवाल यह उठ सकता है कि जब पत्रकार या मीडिया की साख उसकी विश्वसनीयता का आधार खबरों को लेकर इमानदारी ही है तो फिर सौदेबाजी पर टिके मीडिया हाउस को जनता देखेगी क्यो । तो इसका तो जबाब आसान है कि सभी को एक सरीखा कर दो अंतर दिखायी देंगे ही कहां। लेकिन जो सवाल मीडिया को विकसित करने के बिजनेस मॉडल के तहत दब जाता है उसमें समझना यह भी होगा कि एक वक्त के बाद संपादक भी कारपोरेट के रास्ते क्यों चल पडता है। मसलन टीवी 18 जिस तरह पत्रकार मालिकों के हाथ से निकल कर कारपोरेट के पास चला गया उसमें टीवी 18 की साख बिकी। न कि कोई बिल्डिंग। और पत्रकारों ने जिस मेहनत से एक मीडिया हाउस को खड़ा किया उसे कही ज्यादा रकम देकर अगर कोई कारपोरेट खरीद लेता है तो जिम्मेदारी होगी किसकी। यानी हमारे यहां इसकी कोई व्यवस्था ही नहीं है है कि किसी मीडिया हाउस में काम कर रहे पत्रकारों की मेहनत उन्हें कंपनी के शेयर में हिस्सादारी देकर ऐसा चेक-बैलेंस खडा कर दें जिससे कोई कारपोरेट हिस्सेदारी के लिये किसी संस्थान को खरीदने निकले तो उसे सिर्फ एक या दो पत्रकार मालिकों से नहीं बल्कि पत्रकारों के ही बोर्ड से दो दो हाथ करने पड़ें। या फिर मीडिया हाउस पत्रकारों के हाथ में ठीक उसी तरह रहे जैसे खबरों को लेकर पत्रकार मेहनत कर अपने संस्थान को साख
दिलाता है।