तंत्र की तानाशाही के आगे लोकतंत्र की बेबसी

विकास की नयी आर्थिक लकीर महज गांव और छोटे शहरो से महानगरों की ओर लोगों का पलायन ही नही करवा रही है बल्कि लोकतंत्र का भी पलायन हो रहा है। लोकतंत्र के पलायन का मतलब है, प्रभु वर्ग की तानाशाही। या कहें तंत्र के आगे लोकतंत्र का घुटने टेकना । यह ऐसा वातावरण बनाती है, जहां आरोपी को साबित करना होता है कि वह दोषी नहीं है। दोष लगाने वाले को कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती । लोकतंत्र की नयी परिभाषा में संसद और संविधान के साथ बाज़ार और मुनाफा भी जुड़ गया है। इसलिये लोकतंत्र के पलायन के बाद नेता के साथ साथ बाज़ार चलाने वाले व्यापारी भी सत्ता का प्रतीक बन रहा है। उसके आगे मानवाधिकार कोई मायने नहीं रखता।

 

पिछले दो दशक के दौरान बिहार, उत्तरारखंड, छत्तीसगढ, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में दो लाख से ज्यादा लोग मानवाधिकार हनन की चपेट में राजनीतिक प्रभाव की वजह से आए। यानी राजनीति ने अपना निशाना साधा और आम आदमी की पुलिस-प्रशासन ने सुनी नहीं। अदालत में मामला पहुंचने पर आम नागरिक के खिलाफ हर तथ्य उसी पुलिस प्रशासन ने रखे, जो सिर्फ नेताओं की बोली समझ पाते हैं। इन छह राज्यों में करीब पचास हजार मामले ऐसे हैं, जिनमें जेल में बंद कैदियो को पता ही नहीं है कि उन्हें किस आरोप में पकड़ा गया ? ज्यादातर मामलों में कोई एफआईआर तक नहीं है। या एफआईआर की कॉपी कभी आरोपी को नहीं सौपी गयी। यह मामला चाहे आपको गंभीर लगे लेकिन जिन राज्यों से लोकतंत्र का पलायन हो रहा है, वहां यह सब सामान्य तरीके से होता है। भुक्तभोगियों की त्रासदी उन्हीं के मुंह से सुनिये, तब तंत्र के आगे देश के लोकतंत्र की बेबसी समझ में आयेगी ।

 

छत्तीसगढ का शहर भिलाई । जेल के अंधेरे में नब्बे दिन काटने के बाद अजय टीजे को अपने उस शहर में रोशनी दिखायी नहीं दी, जहां उन्होंने दस साल काटे । जेल क्यों गया। घर से जब पुलिस पकड़ कर ले गयी तो पुलिस ने कुछ नहीं कहा। अब जेल से छुटा है तो यह सब किसे बताये । जो अपने संगी – साथी – सहयोगी थे वह अजय टीजे के पास इसलिये नहीं आ रहे है कि पुलिस उन्हे भी गिरफ्तार कर जेल में ठूस देगी। फिर उनकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं होगा । अजय की पत्नी शोभा और बेटे अमन को भी भिलाई में कोई छत नसीब नहीं हुई, जब अजय जेल में था । अजय को जमानत इस शर्त पर दी गयी कि वह हर दूसरे सोमवार को पुलिस थाने में अपने होने का सबूत देता रहेगा । यानी छत्तीसगढ में अभिव्यक्ति के लिये भी अजय को जगह नहीं मिली । अजय 12 अगस्त को दिल्ली आया, जहा लोकतंत्र बरकरार है । दिल्ली पहुंच कर अजय ने बताया कि ज़मानत मिलते ही पुलिस ने धमकी दी थी- खबरदार किसी से कुछ न कहना । मीडिया के पास तो बिलकुल नहीं जाना । अजय केरल का है और साठ के दशक में उसके चाचा भिलाई आए । उन्होंने भिलाई स्टील प्लांट के बाहर चाय की दुकान लगा ली । फिर पिता नौकरी के सिलसिले में नब्बे के दशक में भिलाई आये तो अजय फिर छत्तीसगढ का ही होकर रह गया । फोटोग्राफी से जिन्दगी की गाड़ी शुरु करने वाले अजय की ज़िन्दगी में कई मोड़ आये, लेकिन गरीबी की वजह से बच्चों के न पढ़ पाने का दर्द उसे सालता रहा। आखिर में दस-बारह बच्चों को खड़िया स्लेट दे कर उसने पढ़ाने की ठानी । गड़बड़ी वहीं से शुरु हुई । सामाजिक संगठनों से जुड़ा। मानवाधिकार संगठन और कार्यकत्ताओं से मिला । कथित लोकतंत्र की तानाशाही या कहे लोकतंत्र का पलायन यही से उभरा । सामाजिक कार्यकर्त्ता या मानवाधिकार कार्यकर्त्ता राज्य की गलत नीतियों पर उंगुली उठायेगे ही । फिर उनसे अजय टीजे की मुलाकात ने नया रंग भरा । क्योंकि अजय आदिवासी गरीब बच्चों को पढ़ा रहा था। तो पुलिस की नज़र में अजय चढ़ गया । विकास का जो खाका छत्तीसगढ सरकार ने खींचा है, उसमे अजय फिट बैठता नही है । 5 मई को पुलिस ने अजय के घर का दरवाजा खटखटाया । कम्प्यूटर, किताब, खडिया, स्लेट समेत अजय को भी पुलिस ने जीप में डाला और बंद कर दिया । 48 घंटे बाद अदालत में पेश किया गया । लेकिन अजय को नहीं बताया गया कि उसे किस आरोप बंद किया जा रहा है । यहा तक कि 93 दिन जेल में बंद रहने के बाद जब जमानत दी गयी, तब भी आरोप की जानकारी अजय को नहीं मिली । कानूनी कागज पर अजय को राष्ट्रविरोधी जरुर बताया गया और राज्य के विशेष कानून के तहत गिरफ्तारी दिखाते हुये गैर कानूनी कार्यों में संलग्न होने का अरोप जरुर लिखा गया । लेकिन आरोप की जानकारी आज भी अजय को नहीं है ।

 

महाराष्ट्र का जिला गढ़चिरोली। इसी जिले का है मनकु उइके । जिसे जन्म से ही पता नही कि देश स्वतंत्र है। यहा कानून का राज चलता है । जनता की चुनी सरकार काम करती है।

 

1993 में जब तीन साल का था, तब पिता रेणु केजीराम उइके को पुलिस पकड़ कर ले गयी । मनकु पांच साल का हुआ तो जेल में पिता की मौत हो गयी इसकी जानकारी उसे एक साल बाद यानी 1996 में मिली । उसके बाद से बारह साल बीत चुके हैं, और पहली बार वह दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के चुनाव में वोट डालेगा । अब उसकी उम्र 18 साल हो चुकी है । लेकिन बचपन से लेकर अभी तक उसने अपने घर पर सिर्फ खाकी वरदी का रौब देखा है । पुलिस-सुरक्षाकर्मी जब चाहे उसके घर में घुसते हैं, उसके परिवार के किसी ना किसी सदस्य को मनमानी तरीके से थाने ले जाते । कई कई दिन तक बंद कर देते । मनकु किससे शिकायत करे, यह उसे आज तक समझ में नहीं आया । 5 अगस्त को वह अपने एक साथी के साथ दिल्ली आया । लोकतंत्र की खुशबू वाले शहर दिल्ली में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दफ्तर है, वहीं तकलीफ बताने से शायद पुलिस का खौफ उसके घर में नहीं होगा । यही सोच कर चन्द्रपुर के वकील एकनाथ साल्वे की चिट्टी लेकर मनकु दिल्ली पहुंचा । वकील सालवे उनके पिता रेणु केजीराम उइके के भी वकील थे । मनकु के मुताबिक उनके पिता को नक्सलियों का हिमायती बताकर टाडा के तहत अक्तूबर 1993 में गिरफ्तार किया गया । टाडा की धारा 3,4,5 लगायी गयी और आईपीसी 307,334,353,435 और आर्म्स एक्ट 3/25 दर्ज की गयी । लेकिन रेणु केजीराम उइके की मौत 20 फरवरी 1995 को नागपुर जेल में हो गयी । मौत की जानकारी देने पुलिसकर्मी ही घर पहुंचे थे । गढ़चिरोली के सावरगांव के घर में तब पांच साल के मनकु को कुछ धुंधला सा याद है कि कैसे पुलिस घर पर आयी और मां उसके बाद रोने लगी । लेकिन मां को तीन दिन बीद ही पुलिस पकड़ कर ले गयी । मनकु उइके के मुताबिक उस दिन से लेकर आजतक पुलिस लगातार उसके और गांव में जिसके मन चाहे उसके घर पर जाती है । दरवाजा खटखटाती है । मनचाहे पुरुष -महिला को पकड़ कर आरोप लगाती है । नागपुर मुख्यालय में अपनी उपल्ब्धि की जानकारी यह कहते हुये देती है कि खूखांर माओवादी उसकी गिरफ्त में हैं । मनकु इससे तंग आकर गढ़चिरोली से सटे चन्द्रपुर जिले में नौकरी करने आ गया । लेकिन पुलिस ने उसे वहां भी नहीं छोड़ा । मनकु समझ नही पाता कि वह अपनी जिन्दगी कैसे जिये । आदिवासियों में शादी जल्दी हो जाती है। लेकिन पुलिस के खौफ से उसने शादी भी नहीं की । पिता की मौत जेल में हुई । उसकी भरपायी से लेकर अपने जीने के हक का कच्चा चिट्टा लेकर मनकु दो बार मानवाधिकार आयोग के दरवाजे से भी वापस लौट आया । पिता मरे थे तो डॉक्टरी रिपोर्ट में कहा गया था आदिवासी जेल के वातावरण में रह नही सका, इसलिये मर गया । मनकु को दिल्ली में मानवाधिकार आयोग के एक अधिकारी ने समझाया तुम्हारी भाषा कोई समझ नहीं पाता इसलिये वकील की लिखी अर्जी छोडकर चले जाओ । मनकु उइके अर्जी छोड कर जा चुका है।

 

उत्तर प्रदेश का शहर है सोनभद्र । इसी शहर का है विनोद । विनोद ने जिस शहर में बचपन गुजारा । जहां के स्कूल में पढ़ाई की,जहां माता-पिता की अंगुली पकड कर जीने का सलीका सिखा । उसी शहर में आज उसका दर्द सुननेवाला कोई नहीं है । पिछले तीन साल से जेल में बंद था । विनोद को पता नहीं कि किस आरोप में उसे पकड़ा गया । उसे इतना जरुर पता है कि पांच साल पहले उसकी नौकरी इसलिये छूट गयी कि जिस निजी कंपनी में वह काम करता था, उस कंपनी को बेच दिया गया । हर्जाने की मांग उसने भी की । विरोध प्रदर्शन के बीच पुलिस ने गोली चलायी । तीन मरे, चौबिस घायल हुये । कई घायलों को मरा हुआ बता कर कंपनी ने पल्ला झाडा । उसमे विनोद भी है । 2003 में कंपनी के दस्तावेजो में मृत विनोद 2004 में पहली बार दिल्ली पहुचा था । राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दरवाजे पर गया । यह बताकर आया कि कैसे उसकी नौकरी गयी । कैसे उसे हर्जाना नहीं मिला । कैसे उसे मरा हुआ मान लिया गया है । आयोग ने वायदा किया था कि वह विनोद को जल्द ही जीवित कर देगी और उसे हक दिलायेगी । लोकतंत्र की सौंधी खुशबू लेकर विनोद सोनभद्र लौटा तो गरुर में था । लेकिन उसके शहर से लोकतंत्र का पलायन हो चुका है, उसका एहसास उसे सात दिनों के भीतर ही हो गया । पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया । विनोद को तो कुछ पता ही नहीं है कि आरोप क्या है। लेकिन जनवरी 2008 में जब वह जेल से जमानत पर छूटा तो उसे हर हफ्ते थाने में हाजिरी देने का निर्देश दिया गया । विनोद को लगा अब वह कंपनी से हर्जाने की मांग कर सकता है । लेकिन उसकी मांग फिर से भारी पड़ गयी, क्योकि जिस जमीन पर बनी कंपनी में वह काम करता था, संयोग से वह जमीन थर्मल पावर प्लांट के लिये किसी ने खरीद ली । कंपनी की बिल्डिंग तोड़ी जा चुकी है । लेकिन जो कंपनी ठीक पहले तक काम कर रही थी, उसके कर्मचारी किसी हर्जाने की मांग न करे, उसके लिये नये मालिक ने स्थानीय नेता और पुलिस को ठेका दे दिया । ऐसे में अचानक पुरानी कंपनी के कर्मचारी विनोद को पुलिस बर्दाश्त नहीं कर पायी और पहले उसकी जमकर धुनायी हुई और फिर जेल में बंद कर दिया गया । आरोप क्या लगाया गया, इसकी जानकारी उसे न तब दी गयी न ही जुलाई के महीने में रिहायी के वक्त । हां, पहली बार राष्ट्रहित के खिलाफ विनोद की हरकतों को माना गया । गैरकानूनी संगठनो के साथ उसके ताल्लुकात जुड़े । माओवादियों के साथ रिश्ते रखने का आरोप उस पर जरुर लग गया । लेकिन कैसे रिश्ते हैं, उसने क्या ऐसा किया जिसके बाद पुलिस ने यह आरोप उस पर लगाया, उसकी जानकारी उसे आज भी नहीं है । इसी खाके-चिट्टे को लेकर विनोद एकबार फिर राष्टीय मानवाधिकार आयोग के पास पहुंचा है । लेकिन इस बार वह आयोग से गांरटी चाहता है कि जब वह गांव लौटे तो फिर पुलिस उसे गिरफ्तार कर जेल में न ठूंस दे । मानवाधिकार आयोग ने भरोसा दिलाया है, गारंटी नहीं । इसलिये विनोद सीधे सोनभद्र नही लौटा है, बल्कि लखनऊ में राज्यमानवाधिकार आयोग को बताने गया है कि वह सोनभद्र लौट रहा है।

 

सवाल यही है कि देश में जीने के हक को कोई नहीं छिनेगा, इसकी गांरटी देने वाला भी कोई नहीं है । और लोकतंत्र के पलायन के बाद अब आरोपी को साबित करना है कि वह दोषी नहीं है। राज्य की कोई जिम्मेदारी नागरिकों को लेकर नहीं है।