दुनिया में आतंक का सवाल। देश में विकास का सवाल । यूपी में राम नाम का जाप । और सफलता की कुंजी सर्जिकल स्ट्राइक। जी, फिलहाल मोदी सरकार ने हर क्षेत्र की उस नब्ज को पकड़ा जिसमें दुनिया में आतंकवाद के सवाल पर भारत अगुवाई करें। तो देश में विकास के सवाल पर मोदी अगुवाई करते दिखें। और यूपी चुनाव में राम नाम का आसरा चुनावी राजनीति में नैया पार करा कर सत्ता दिला दें। और कोई कही सवाल करे तो सर्जिकल स्टाइक की चाबी हर किसी को दिखा दी जाये। वह भी संघ के स्वयंसेवक होने के नाम पर। तो क्या वाकई बेहतरीन सरकार चलाने की ट्रेनिंग के पीछे स्वयंसेवक होना है। या फिर पहली बार प्रधानमंत्री मोदी ने हर क्षेत्र के उस मर्म को समझा है, जिसे सीधे कहने से पहले के हर प्रधानमंत्री कतराते रहे।
इसीलिये दुनिया ही नहीं देश और यूपी चुनाव तक में मोदी के इर्द गिर्द ही समूची दुनिया और समूची सियासत सिमटती दिख रही है। और ऐसी तस्वीरें दुनिया के मंच पर उभर रही है जो पहले देखने को नहीं मिलती थी। बिम्सटेक यानी ‘द बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टरल टेक्निल एंड इकोनोमिक कोऑपरेशन’ में मोदी हीबांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका और थाईलैंड की अगुवाई करते नजर आ रहे है तो ब्रिक्स में मोदी के उठाये आंतकवाद के सवाल पर हर देश का ठप्पा अपनी जरुरत के मुताबिक है। तो क्या वाकई सर्जिकल अटैक ने भारत को दुनिया के सामने ऐसे ऐसे ताकतवर देश के तौर पर रख दिया है जिसमें मंच पर वाह वाही दिखायी देने लगी है। या फिर जिस रास्ते मोदी निकल पड़े है उसमें देश दुनिया और यूपी में ही नयी चुनौती उभर सकती है। क्योंकि ब्रिक्स में आंतकवाद शब्द है लेकिन ना हाफिज सईद है ना अजहर मसूद। यानी लशकर और जैश पाकिसातन की जमीन पर काम कर रहे है इसकी चिंता ब्रिक्स देशों को नहीं बल्कि चिता इस्लामिक आंतकवादी संगठन आईएस की है जिसके आतंक से भारत नहीं बल्कि यूरोप, अमेरिका ज्यादा परेशान है। तो क्या सरकार सिर्फ रणनीतिक तौर पर सफल है।
यानी ये सोच सोच कर खुश है कि पाकिस्तान को उसने अलग थलग कर दिया या फिर पहली बार मोदी सरकार कोई अलग थलग रास्ता तलाशने की जुटी है। और देश में राष्ट्रवाद की हवा में राजनीति घुल रही है। क्योंकि व्यापार हो या पानी या कूटनीति। भारत पाकिस्तान के बीच कोई दरवाजा बंद नहीं हुआ है। और युद्द कोई रास्ता नहीं है । इसे हर देश मान रहा है। तो क्या देश दुनिया या यूपी चुनाव का चक्रव्यूह सियासत के लिये एक सरीखा है। क्योंकि दुनिया के मंच पर आतंकवाद का सवाल पाकिस्तान और सीरिया तले टकराता है। जहां अमेरिका अब एल्प्पो शहर को लेकर रुस से ही दो दो हाथ करने को तैयार है । तो देश के भीतर सत्ता का संघर्ष विकास के राग और राम नाम के नारे तले टकराता है ।
और अब हर किसी को इताजार है कि वाजपेयी के जन्म दिन यानी 25 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी के लखनऊ रैली का। वहां मोदी किस मुद्दे के लिये कौन सी कुंजी का इस्तेमाल करते हैं। क्योंकि पिछले बरस प्रधानमंत्री मोदी 25 दिसंबर को लाहौर में थे। और नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई दे रहे थे। और इस बरस यूपी चनाव के मुहाने पर देश की राजनीति जा खड़ी हुई है तो 25 दिसंबर को मोदी लखनऊ में होंगे। को क्या वाकई सियासत ही हर मुद्दे को निर्धारित रती है। क्योंकि सिर्फ भारत ही नही बल्कि दुनिया के ताकतवर देश भी आतंकवाद के मुद्दे पर टकरा भी हे है और गलबहियां भी डाल रहे हैं। क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन ने रुस और सीरिया को चेतावनी दी है कि अगर उसने एलप्पो शहर पर बमबारी जारी रखी तो वह उनके खिलाफ नए आर्थिक प्रतिबंध लगा देंगे। तो पाकिस्तान में सक्रिय आंतकवादी संगठनों का नाम ब्रिक्स में ना आये इसके लिये चीन ने भारत के सामने अपना दबदबा दिखा दिया।
और उससे पहले अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकी देश मानने से इंकार कर दिया। तो अमेरिका भारत के कितना खड़ा है और जब अमेरिका रुस एलप्पो पर टकरायेंगे तब भारत का नजरिया होगा क्या। क्योंकि रुस के साथ भारत ने ब्रिक्स में कई समझौते किये तो चीन ने पाकिस्तान के साथ कई नये आर्थिक समझौतो का जिक्र किया। और इन हालातो के बीच -भारत सार्क के विक्ल्प के तौर पर बिम्सटेक को देख रहा है। तो पाकिस्तान सार्क के विक्लप के तौर पर ईरान समेत सेन्ट्रल एशियाई देशो को एकजुट कर रहा है। तो क्या मौजूदा दौर दुनिया में टकराव का नया चेहरा है। और युद्द सरीखी उन लकीरो की जड़ में आतंकवाद भी है और हथियारों का बिजनेस भी। और नयी विश्व व्यवस्था बनाने की कवायद भी । जिसके केन्द्र में भारत भी जा फंसा है। क्योंकि एक तरफ लग रहा है दुनिया आतंकवाद के सवाल पर बंट रही है। तो दूसरी तरफ लग रहा है पहली बार आतंकवाद को परिभाषित करने से बच रही है । क्योंकि पीएम बनने के बाद पहली बार मोदी ने आतंकवाद के सवाल पर यून में यूएन को ही घेरा था। और दो करीब दो बरस बाद जब ब्रिक्स में चीन-रुस की मौजूदगी में पाकिस्तान की जमीन पर पनपते आतंकवाद का जिक्र किया तो भारत को उम्मीद मुताबिक समर्थन नहीं मिला । क्योंकि समिट के बाद जारी संयुक्त घोषणापत्र में कहीं भी क्रॉस बॉर्डर टेरेरिज्म यानी सीमा पार आतंकवाद का जिक्र नहीं है । कहीं भी जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों का जिक्र नहीं है । जबकि इस्लामिल स्टेट, अल कायदा और सीरिया के जुबहत अल नुस्र का जिक्र है । इतना ही नहीं, जिस पुराने दोस्त रुस के साथ भारत ने 39 हजार करोड़ के रक्षा समझौते किए। उस रुस ने अपने बयान में आतंकवाद शब्द का ही जिक्र नहीं किया। चीन ने कश्मीर समस्या के राजनीतिक समाधान की जरुरत बतायी । ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका और ब्रिटेन अब रुस से कह रहे है कि एल्प्पो का राजनीतिक समाधान होना चाहिये।
इसके लिये संघर्षविराम कर जेनेवा टेबल पर बातचीत के लिये रुस को आना चाहिये । और रुस ने इसी दौर में पाकिस्तान को हथियार न बेचने की अपनी स्वघोषित नीति खत्म कर दी है, और इसीलिए पहली बार पाक सेना के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किया । तो क्या आतंकवाद का सवाल ही दुनिया को आंतकवाद को खत्म करने के लिये आपस में लड़ायेगा। शायद दुनिया के सामने ये नया सवाल है । लेकिन भारत के सामने सवाल तो अपना ही है । और पीएम मोदी किस रास्ते को पकडेगें ये अब महत्वपूर्ण हो चला है । क्योंकि राष्ट्रवाद से पेट नहीं भरता । और आर्थिक सुधार के बाद 1991 के बाद से ही देश को ट्रेनिंग यही दी गई कि इक्नामी पुख्ता होनी चाहिये। जिसकी कोई सरहद नहीं होती । ध्यान दें तो अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, रुस , फ्रास सभी आंतकवाद के सवाल का जिक्र करते हुये भी अपनी अर्थव्यस्था को लेकर ही स्टैंड ले रहे है । ऐसे में भारत के सामने बडी मुशकिल चीन को लेकर भी है । क्योकि पहली बार इक्नामी और राष्ट्रवाद के बीच मोटी लकीर भी खिंच रही है । एक तरफ भारत में चार लाख करोड का चीनी माल हर बरस आता है । और दूसरा सच ये है कि आतंकवादी देश पाकिस्तान के साथ जब तक चीन खडा है,भारत के सामने अंतरराष्ट्रीय मंच पर क्या मुश्किल आ रही है ये यूएन से लेकर ब्रिक्स तक में सामने आ गया ।
तो ऐसे में चीन का जो विरोध सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है । जो तमाम ट्वीट और पोस्ट इस दिवाली पर चीन का माल न खरीदने की अपील के साथ की जा रही है और हैशटैग बॉयकॉट चाइना टॉप ट्रेंडिंग टॉपिक मे शुमार होता दिख रहा है । उसका मतलब है कितना। क्योंकि सच यह है कि चीन के सामान के बहिष्कार की कोई सरकारी नीति नहीं है। अलबत्ता विदेशी निवेश और चकाचौंध के घोड़े पर सवार प्रधानमंत्री मोदी की
नीति में चीन अहम कारोबारी साझेदार है। मोदी रेलवे, उत्पादन और स्मार्ट शहरों में चीनी निवेश को बढ़कर गले लगा रहे हैं। आलम ये कि -सिर्फ इस साल चीन का भारत में निवेश बीते एक दशक में हुए 40 करोड़ डॉलर के निवेश से दोगुना था। तो सरकार ना तो चीन के निवेश को रोक रही है ना निर्यात को । लेकिन आम लोग गुस्से में है तो फिर रास्ता जाता कहां है। और जहां रास्ता है वहा की तैयारी भारत में है नहीं । मसलन । करेंसी कमजोर है । दुनिया के बाजार में भारत का माल टिकता नहीं है ।शिक्षा, हेल्थ, इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर खेती के रिसर्च तक में चीनी दखल है । तो स्वालबंन के आसरे देश मजबूत होगा या गुस्से के आसरे । तय तो करना होगा नहीं तो राष्ट्रवाद को इक्नामी हरा देगी। और आतंकवाद का सवाल सियासत की भेंट चढ जायेगा।
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