संपूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था संयुक्त राष्टï्र संघ २४ अक्टूबर को अपनी 71वीं वर्षगांठ मना रहा है। अपने सदस्य देशों के कारण दुनिया के सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले इस संस्था पर पिछले कई सालों से अविश्वास की छाया पड़ती रही है। कारण यह है अधिनायकवादी मानसिकता से ओतप्रोत इसके सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देशों ने इस संस्था को अपनी कठपुतनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यदि इस संस्था को एक व्यक्ति के रूप में ही मान लिया जाए तो इकसठ साल की उम्र बहुत होती है। अमूमन साठ साल की उम्र पूरी दुनिया में रिटायरमेंट की मानी जाती है। ऐसे में जिस तरह से शांति स्थापना के अपने असली मकसद से यह संस्था दिनों दिन भटकती जा रही है। उस लिहाज से एक बड़ा तबका अब यह मानने लगा है कि इसके उद्देश्य, कार्यक्षेत्र और निहित शक्तियों में अब वह बात नहीं। इसी के चलते इसके संगठनात्मक ढाचे में पिछले कई बर्षों से बदलाव की जरूरत महसूस किया जा रहा है।
देखा जाए तो राष्टï्रसंघ की भूमिका युद्ध की विभीषिका को रोकने में तो नहीं मगर उसके बाद शुरू होती है। युद्ध नीति में मामले में तो यूएनओ वे देश ही सबसे पहले धोखा देते रहें हैं जो इसके आधारभूमि सदस्य हैं और जिन पर इसकी परंपरा का आगे बढ़ाने का विशेष दारोमदार है। इराक पर अमेरिकी हमले के समय तो यह संस्था पूरी तरह से निष्क्रिय साबित हुई। संयुक्त राष्टï्र इराक के तर्कों से अमेरिकी खुफिया रिपोटों की तुलना में कहीं ज्यादा सहमत दिखा। इसके बाद भी अमेरिका ने अपनी मनमानी के सामने इसे बौना साबित कर दिया। नतीजतन संयुक्त राष्ट्र के तमाम शांति प्रयास विफल हुए और युद्ध की रणभेरी के साथ ही इतिहास राष्टï्र संघ के औचित्य और इसके निष्प्रभावी कारवाई का दो अध्याय जुड़ गए। तब दुनिया भर में यह बहत तेज हो गई थी कि क्या अब इस संस्था की जरूरत है। यदि जरूरत है तो इसमें बदलाव की कितनी जरूरत है? इसे लेकर एक लंबी बहस आज भी जार हैं।
संयुक्त राष्ट्र के प्रभाव में आने के लिए सबसे पहली जरूरत तो यह है कि इसे इसके कथित उन पंज प्यारों से आजाद कराया जाए, जो इसे कठपुतनी बनाये हुए हैं। ये पंज प्यारे हैं- अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रुस और चीन। स्थायी सदस्यों की संख्या बिस्तार की चर्चा होते ही इन देशों ने किसी न किसी रूप में अपनी असहमती जाहिर कर दी। बीते वर्ष में ही इसके विस्तार को लेकर यूएनओ में काफी बहस हुआ था। विस्तार की पूरजोर वकालत तत्कालीन महासचिव कोफी अन्नान ने भी की थी। मगर इसके विस्तार का उपाय संयुक्त राष्टï्र में ही नहीं है। जिससे यह मामला आज भी उलझा हुआ है। अगर इसके बिस्तार का रास्ता है भी तो जटिल ही नहीं नामुमकिन भी है। क्योंकि इसके विघटन का अथवा विस्तार को कोई भी अधिकार स्थायी सदस्यों के पास ही सुरक्षित है। जो किसी भी हालत में अपनी शक्ति का बंटवारा नहीं चाहते हैं। यह उनकी प्रतिष्ठïा का प्रतीक सा बन चुका है। संविधान के मुताबिक यूएनओ में किसी भी प्रकार का बदलाव या कोई नया कानून तब तक प्रभावी नहीं किया जा सकेगा जब तक कि स्थायी सदस्य अपनी सहमती का घोषणा इसकी बैठक में सार्वजनिक रूप से न कर दें। हालांकि अक्सर किसी न किसी मुद्दें पर इन पंज प्यारों में मतभेद होता है, लेकिन स्थायी सदस्याता के मामले पर तो यह हमेशा ही एक दूसरे को समर्थन करते हैं। सुरक्षा परिषद के विस्तार से संबंधित बहस को बार-बार टालने का जो मामला है वह निश्चय ही उसके स्थाई सदस्यों की नीयत में खोट का संकेत देता है। शायद ही राष्टï्र संघ निर्माताओं ने उस समय इस खामी की ओर कुछ ध्यान दिया हो कि शेष विश्व को युद्ध का भय दिखाकर बड़ी चलाकी से कथित समातंवादी राष्टï्र इसकी पूरी मलाई मार ले जाए। इनकी नीयत इतनी खोट निकली कि बाकी के गरीब देशों को यह उनके हिस्से की छाछ तक देने से गुरेज करते हैं। इसी के चलते राष्टï्र संघ महज स्थाई सदस्य देशों की हित चिंतक मात्र बनकर रह गई है। सवाल यह उठता है कि विश्व में देशों के संगठन की अगुवाई चीन, फ्रांस, अमेरिका और इंगलैंड को ही क्यो करें? क्या बाकी के तकरीबन दो सौ देश या उनके प्रतिनिधि इसके हकदार नहीं? शेष दुनिया की कारगुजारियों में इसके सदस्य देश हर तरह से इन स्थाई सदस्यों की मोहताज बनकर ही रह गये हैं। किसी भी देश के पक्ष-विपक्ष में कोई भी रणनीति बगौर इनकी रजामंदी के पास नही हो सकती। स्थाई सदयों की मनमानी क्यूबा, वियतनाम, सोमालिया, यूगोस्लाविया और हालिया इरान-इराक में देखी जा चुकी है। यही कारण है कि संघ की शक्ति के विघटन को लेकर अंतरराष्टï्रीय स्तर पर बहस तेज हो रही है, जिसके मूल में स्थाई सदस्य देशों की भूमिका को लेकर कसमकसाहट सबसे तेज है।
1970 के दशक के अंत में जानबूझ कर इस संस्था को कमजोर बनाने की कोशिर चलती रही है। 1971 में पाकिस्तान से भारत में आए एक करोड़ शरणार्थियों से जुड़े ममाले में संयुक्त राष्टï्र ने कोई कार्रवाई करने के बजाय भारत के खिलाफ ही मतदान कराया। पिछले दशकों में सीमापार से आतंकवाद के संबंध में भी यूएन की ऐसी ही उदासीनता देखने को मिली है। राष्टï्र संघ की मौजूदा स्थितियों से महासचिव कोफी अन्नान खासा खिन्न थे जिसका उन्होंने कई बार सार्वजनिक इजहार किया। जिसके कारण उनके कार्यकाल के अंतिम दिनों में तो अमेरिका ने खुलेआम उनके खिलापऊ में उतर आया था। ऐसा लग रहा था कि उनके खिलाफ महाभियोग लाकर अमेरिका एक नई परंपरा शुरू कर देगा। लेकिन तमाम अटकलों को पार कर आखिर उनकी विदाई हो ही गई। उनकी जगह दक्षिण कोरिया के मून नये महासचिव बने। जिनके सामने सबसे पहली चुनौती उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षण का मामला आया। हालांकि इस पर मून का रुख विश्व जनमत के अनुरूप और सख्त ही रहा, लेकिन वे यादगार भूमिका नहीं छोड़ पाए
यह कितना हास्यास्पद है कि २१वीं सदी की दुनिया को बीसवीं सदी के उत्तराद्ध में बना एक संगठन नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है जो खुद में बदलाव नहीं कर पाया। 1945 से अब तक ही दुनिया में बहुत कुछ बदल चुका है। शक्ति संतुलन बदल चुका है। भारत, ब्राजील, जापान और जर्मनी दुनिया के नये ताकतवर देश के रूप में उभरे हैं जो उस समय अगल-अलग कारणों से विश्व परिदृश्य से गायब थे। इन बदली हुई परिस्थितियों में इन देशों का संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों में भागीदारी न बनाना सामंती प्रवृति ही कही जाएगी। दुनिया में यदि लोकतंत्र का भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो स्थाई सदस्यों के हाथों से कठपुतली बने संयुक्त राष्टï्र का आजाद कराना ही होगा। वैसे संयुक्त राष्टï्र संघ की 71वीं वर्षगांठ नई चुनौतियों के साथ आई है। स्थाई सदयों की संख्या बढ़ाने की मुहिम आगामी दिनों में जाहिर तौर पर तेज होगी।