एन.के. पाठक
जयप्रकाश नारायण आधुनिक भारत के इतिहास में एक अनोखा स्थान रखते हैं क्योंकि वह अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिनको देश के तीन लोकप्रिय आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेने का अनोखा गौरव प्राप्त है. उन्होंने न केवल अपने जीवन जोखिम में डालते हुए भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, बल्कि सत्तर के दशक में भ्रष्टाचार और अधिनायकवाद के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया और इसके पहले 50 और 60 के दशकों में लगभग दस वर्षों तक भूदान आन्दोलन में भाग लेकर हृदय परिवर्तन के द्वारा बड़े पैमाने पर सामाजिक परिवर्तन लाने का कार्य भी किया.
उनका जन्म 11 अक्टूबर 1902 को बिहार के सारण जिले के सिताब दियारा गाँव में हुआ था. 1920 में 18 वर्ष की उम्र में अपनी मैट्रिक परीक्षा पूरी करने के बाद वे पटना में काम करने लगे थे. उसी वर्ष उनका विवाह प्रभावती से हुआ. राष्ट्रवादी नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद द्वारा अंग्रेजी शिक्षा त्याग देने के आह्वान पर परीक्षा से मुश्किल से 20 दिन पहले उन्होंने पटना कॉलेज छोड़ दिया, और डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा स्थापित एक कॉलेज, बिहार विद्यापीठ, में शामिल हो गए. 1922 में अपनी पत्नी प्रभावती को महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में छोड़कर जयप्रकाश नारायण कैलिफोर्निया के बर्कले विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए रवाना हुए. अमेरिका में अपनी उच्च शिक्षा के खर्चों के लिए उन्होंने खेतों, बूचड़खानों, कारखानों और खदानों आदि में छोटे मोटे कार्य किये. अपने काम और अध्ययन के चरण के दौरान, उन्हें श्रमिक वर्ग की कठिनाइयों की करीबी जानकारी मिली. एम एन रॉय के लेखन से प्रभावित उनको यह यकीन था कि मानव समाज की मुख्य समस्या धन, संपत्ति, पद, संस्कृति और अवसरों में असमानता थी और समय बीतने से यह ख़तम होने वाली नहीं थी.
विदेशों में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद जब वह 1929 में भारत लौटे तो उनके विचारों और दृष्टिकोण में कार्ल मार्क्स का स्पष्ट प्रभाव था. भारत वापस आते वक़्त लंदन में और भारत में उनकी मुलाकात कई कम्युनिस्ट नेताओं से हुई जिनके साथ उन्होंने भारत की स्वतंत्रता और क्रांति के मुद्दों पर काफी चर्चा की. हालांकि उन्होंने भारतीय भारतीय कम्युनिस्टों के विचारों का समर्थन नहीं किया जो राष्ट्रीय कांग्रेस की स्वतंत्रता की लड़ाई के विरुद्ध थे. जवाहर लाल नेहरू के आमंत्रण पर 1929 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए, उसके पश्चात उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. ब्रिटिश शासन के खिलाफ सविनय अवज्ञा आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने पर 1932 में उन्हें जेल में बंद कर दिया गया. 1932 में नासिक जेल में अपने कारावास के दौरान वे राम मनोहर लोहिया, अशोक मेहता, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, सी के नारायणस्वामी और अन्य नेताओं के साथ घनिष्ठ संपर्क में आए. इस संपर्क ने उन्हें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जो आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में कांग्रेस पार्टी के भीतर बाएं झुकाव का एक समूह था. दिसंबर 1939 में सीएसपी के महासचिव के रूप में, जयप्रकाश ने लोगों से आह्वान किया कि द्वितीय विश्व युद्ध का फायदा उठाते हुए भारत में ब्रिटिश शोषण को रोका जाय और और ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंका जाय. इस वजह से उन्हें 9 महीनों के लिए जेल में डाल दिया गया था. अपनी रिहाई के बाद उन्होंने महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस से मुलाकात की. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूत करने के लिए उन्होंने दोनों नेताओं के बीच एक मैत्री लाने की कोशिश की, लेकिन उस में वे सफल नहीं हो सके.
बाद में अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण के अन्य उत्कृष्ट गुण सामने आए. जब सभी वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था तब उन्होंने राम मनोहर लोहिया और अरुणा आसफ अली के साथ मिल कर चल रहे आन्दोलन का प्रभार ले लिया था. हालांकि वह भी लंबे समय तक जेल से बाहर नहीं रह पाए और जल्द ही उन्हें भारत रक्षा नियम, जोकि एक सुरक्षात्मक कारावास कानून था और जिसमें सुनवाई की जरूरत नहीं थी, के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें हजारीबाग सेंट्रल जेल में रखा गया था. जेपी ने अपने साथियों के साथ जेल से भागने की योजना बनाना शुरू कर दिया. जल्द ही उनका अवसर नवंबर 1942 की दीवाली के दिन आया जब एक बड़ी संख्या में गार्ड त्योहार की वजह से छुट्टी पर थे. बाहर निकलने का यह एक साहसी कृत्य था जिसने जेपी को एक लोक नायक बना दिया.
इस अवधि में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जेपी ने भूमिगत रूप में सक्रिय रूप से काम किया. ब्रिटिश शासन के अत्याचार से लड़ने के लिए नेपाल में उन्होंने एक “आज़ाद दस्ता” (स्वतंत्रता ब्रिगेड) बनाया. कुछ महीनों के बाद सितंबर 1943 में एक ट्रेन में यात्रा करते वक़्त उन्हें पंजाब से गिरफ्तार कर लिया गया था और स्वतंत्रता आंदोलन की महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा उनको यातनाएं भी दी गईं. जनवरी 1945 में उन्हें लाहौर किले से आगरा जेल स्थानांतरित कर दिया गया. जब गांधीजी ने जोर देकर कहा कि वह केवल लोहिया और जयप्रकाश की बिना शर्त रिहाई के बाद ही ब्रिटिश शासकों के साथ बातचीत शुरू करेंगें, उन्हें अप्रैल 1946 को मुक्त कर दिया गया.
इस अवधि के दौरान और भारत के आजादी पाने के साथ ही जयप्रकाश को अपने राजनीतिक जीवन में शायद पहली बार सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसा की निरर्थकता का पूर्ण विश्वास हुआ था. हालांकि, गरीबों के लिए उनकी प्रतिबद्धता कम नहीं हुई और इसी ने उन्हें विनोबा भावे केf भूदान आंदोलन के करीब लाया. यह उनके जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण चरण था. फिर सत्तर के दशक की शुरुआत में तीसरा चरण आया जब आम आदमी बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और महंगाई की विकृतियों से पीड़ित था. 1974 में गुजरात के छात्रों ने उनसे नव निर्माण आंदोलन के नेतृत्व का आग्रह किया. उसी वर्ष जून में उन्होंने पटना के गांधी मैदान में एक जनसभा से शांतिपूर्ण “सम्पूर्ण क्रांति” का आह्वान किया. उन्होंने छात्रों से भ्रष्ट राजनीतिक संस्थाओं के खिलाफ खड़े होने का आह्वान किया और एक साल के लिए कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को बंद करने के लिए कहा, क्योंकि वह चाहते थे कि इस समय के दौरान छात्र अपने को राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए समर्पित करें. यह इतिहास का वह समय है जब उन्हें लोकप्रिय रूप से “जेपी” बुलाया जाने लगा.
इस आंदोलन के अंत में आपातकाल की घोषणा हुई और जो बाद में “जनता पार्टी” की जीत में तब्दील हुई तथा मार्च 1977 में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी. जनता पार्टी की छत्रछाया के तहत सभी गैर-कांग्रेसी दलों को एकत्रित करने का श्रेय उनको ही जाता है. हमारे देश के हर स्वतंत्रता प्रेमी व्यक्ति को जेपी हमेशा याद रहेंगे. एक श्रद्धांजलि के रूप में इस आधुनिक क्रांतिकारी को भारत सरकार ने 1999 में मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया.
(लेखक एक स्वतंत्र शोधकर्ता है और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर लिखते हैं. वे भारत सरकार के नीति आयोग में पूर्व संयुक्त सलाहकार रह चुके हैं)