केंद्रीय राज्य मंत्री रामदास आठवले ने गौरक्षकों को जो नसीहत दी है, उसे सभी विवेकशील लोग पसंद करेंगे। गोरक्षा जरुरी है लेकिन क्या वह मानव-रक्षा से भी ज्यादा जरुरी है? यह सवाल उन्होंने पूछा है, पिछले दिनों उप्र, गुजरात और मप्र में घटी हिंसक घटनाओं को लेकर! गोमांस खाने और बेचने के शक में गोप्रेमियों ने जो हिंसा की है, उसे किसी भी हालत में उचित नहीं कहा जा सकता। यह ठीक है कि गोमांस तो क्या, हर तरह का मांसाहार अनैतिक है, स्वास्थ्य के लिए खराब है, हिंसक है लेकिन गोवध तो कई राज्यों में गैर-कानूनी है। यदि वह गैर-कानूनी है तो सरकार उससे निपटे। आप अपने हाथ खून में क्यों रंगे? गाय की हत्या क्या मनुष्य की हत्या भी हो जाए तो क्या हत्यारे की हत्या करना कानून सम्मत होगा? यदि नहीं तो गोहत्या के बदले मानवहत्या कैसे उचित कही जा सकती है? यही बात आठवले ने कही है। उससे मेरी सहमति है।
लेकिन आठवले की दूसरी बात से मेरी सहमति नहीं है। आठवलेजी ने मायावती को सुझाव दिया है कि वे बौद्ध क्यों नहीं बन जातीं? यदि हिंदू जाति-व्यवस्था या ‘मनुवाद’ उन्हें इतना बुरा लगता है तो वे हिंदू धर्म से क्यों चिपकी हुई हैं? जैसे आंबेडकर बौद्ध बन गए, वे भी क्यों नहीं बन जातीं? आंबेडकरजी के बौद्ध बनने से दलितों को फायदा क्या हुआ? क्या उनकी स्थिति में कोई सुधार हुआ? क्या उनकी हैसियत ऊंची हुई? क्या उन्होंने खुद को दलित समझना बंद कर दिया? क्या उन लोगों ने दलितों को प्राप्त आरक्षण की सुविधाएं छोड़ दी? खुद आंबेडकरजी अपने जीवन के आखिरी वक्त में बौद्ध बने। यदि वे लंबे समय तक जीवित रहते तो वे शायद महसूस करते कि धर्म-परिवर्तन से दलितों का कोई फायदा नहीं हुआ। बहन मायावती के लिए बौद्ध बनना तो बड़ा सिरदर्द सिद्ध हो सकता है, क्योंकि उप्र के दलितों में हिंदू बहुतायत में हैं। महाराष्ट्र के मुकाबले उप्र का गणित दूसरा ही है। यदि मायावती बौद्ध बन जाएं तो उनका जनाधार खिसक सकता है। भाजपा हिंदुत्व के नाम पर दलित वोट बैंक में सेंध लगा सकती है। आजकल उप्र भाजपा के अध्यक्ष केशवप्रसाद मौर्य हैं, जो कि पिछड़े हैं। मायावती नेता हैं। चतुर हैं। सत्ताप्रेमी हैं। वे समाज-सेविका नहीं हैं। वे आंबेडकरजी की तरह विचारशील नहीं हैं। वे कांशीराम की तरह सवर्णों को ‘जूते मारो चार’ भी नहीं कहतीं। उनका आराध्य वोट है, कुर्सी है, पैसा है। बौद्ध बनने से उन्हें इनमें से कुछ भी नहीं मिलेगा। अभी उनका कोई विचार नहीं दिखता कि वे बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती हैं। पता नहीं क्यों? आठवलेजी उन्हें निर्वाण के मार्ग पर धकेलना चाहते हैं।