दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में गत् 9 फरवरी को कुछ राष्ट्रविरोधी तत्वों द्वारा भारत विरोधी तथा कश्मीर की आज़ादी के समर्थन में नारेबाज़ी की गई। खबरों के मुताबिक भारतीय संसद पर आतंकी हमले के दोषी अफज़ल गुरू के समर्थन में भी नारे लगाए गए। किसी भी भारतीय शिक्षण संस्थान में इस प्रकार का प्रदर्शन निंदनीय है। निश्चित रूप से इस घटना की भर्तस्ना की जानी चाहिए तथा इसमें शामिल लोगों के विरुद्ध कानून के अनुसार कार्रवाई की जानी चाहिए। परंतु इसी घटना का दूसरा दु:खद और बेहद शर्मनाक पहलू यह है कि जेएनयू कैंपस के भीतर घटी इस घटना के बाद स्वयंभू राष्ट्रवादी विचारधारा रखने वाली दक्षिणपंथी ताकतों ने इस विषय को इस प्रकार से अपने हाथों में लेने का प्रयास किया गोया देश की राष्ट्रवादिता तथा राष्ट्रभक्ति का पूरा ठेका इन्हीं लोगों ने ही ले रखा हो। उक्त घटना के बाद पूरे विश्वविद्यालय को बदनाम किया जाने लगा। जिस विश्वविद्यालय में लगभग 650 अध्यापक व तकरीबन 1500 कर्मचारी मिलकर लगभग 8500 छात्रों का भविष्य संवारने में लगे हों उस शिक्षण संस्थान को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का अड्डा बताया जाने लगा। जेएनयू पहले भी दक्षिणपंथी शक्तियों के निशाने पर मात्र इसलिए रहता आया है कि इस शिक्षण संस्थान के छात्रों तथा यहां के शिक्षकों का स्वभाव कट्टरपंथी वैचारिक सोच रखने वाला नहीं है। इस विश्वविद्यालय में खुले दिमाग से बच्चों को शिक्षित किया जाता है न कि उन्हें सांप्रदायिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। यही वजह है कि यहां छात्रसंघ के चुनाव में दक्षिणपंथी ता$कतों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाती। ज़ाहिर है यह स्थिति जेएनयू को दक्षिणपंथियों की नज़रों का कांटा बनाने के लिए पर्याप्त है।
जेएनयू की घटना ने राष्ट्रभक्ति और राष्टद्रोह के नाम पर एक ऐसी बहस छेड़ दी है जिसके चलते समाज में एक बड़ी विभाजन रेखा खिंचती दिखाई दे रही है। यह बहस अब केवल जेएनयू के छात्रों तक ही सीमित नहीं रही बल्कि इसका प्रभाव शिक्षकों,अदालतों,वकीलों,पत्रकारों पर भी पड़ता दिखाई दे रहा है। बावजूद इसके कि सभी भारतीय नागरिक और प्रत्येक व्यक्ति अपने पेशे व सामथ्र्य के अुनसार अपनी दैनिक कारगुज़ारियों के द्वारा समाज व देश के लिए कुछ न कुछ करता ही रहता है। इसके बावजूद देशभक्ति व देशद्रोह की बहस के बीच स्वयंभू राष्ट्रवादी ता$कतों द्वारा राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र जारी करने जैसा पाखंड शुरु कर दिया गया है। ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश की जा रही है कि जो व्यक्ति संगठन,संस्था,संस्थान अथवा समुदाय या राजनैतिक दल इनकी हां में हां मिलाएगा या इनके जैसी भाषा बोलेगा वही सच्चा देशभक्त और राष्ट्रवादी है। बावजूद इसके कि हमारे देश का संविधान तथा यहां के $कानून में उल्लिखित धाराएं इस बात की विस्तृत व्या या करती हैं कि राष्ट्रदा्रेह की परिभाषा आखिर है क्या? परंतु स्वयं को अति उत्साही स्वयंभू राष्ट्रवादी दर्शाने के लिए अपने हाथों में तिरंगा पकड़े इस विचारधारा के लोग स्वयं राष्ट्रदा्रेह की अपनी परिभाषा गढऩे पर तुले हुए हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापकों में एक गुरु गोलवरकर अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॅाटस में पहले ही लिख चुके हैं कि देश के लिए सबसे बड़ा खतरा मुस्लिम,ईसाई तथा क युनिस्ट विचारधारा के लोग हैं। हालांकि गुरु गोलवरकर के इस कथन से गृहमंत्री राजनाथ सिंह जैसे वरिष्ठ भाजपा नेता तक मुकरते देखे गए हैं। परंतु हकीकत में संघ की पाठशाला की शिक्षा ही ऐसी है जो धर्म,समुदाय व संगठन के आधार पर समाज में नफरत फैलाने का खुला संदेश देती है।
और ऐसी ही शिक्षा का परिणाम है कि जेएनयू को यही तथाकथित राष्ट्रवादी कभी देशद्रोहियों का अड्डा बताने लगते हैं तो कभी यहां के छात्रसंघ के अध्यक्ष को देशद्रोह के झूठे आरोप में जेल भेज देते हैं। ऐसे में यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि क्या देश की 125 करोड़ की जनसं या में यही संघ पोषित विचारधारा ही अकेली ऐसी विचारधारा या संस्था है जिसके द्वारा प्रमाणित किया गया व्यक्ति,धर्म,संगठन,संस्था,संस्थान या समुदाय ही राष्ट्रभक्त कहलाएगा? या जिसे यह देशद्रोही अथवा राष्ट्रविरोधी बता देंगे वह देशद्रोही या राष्ट्रदा्रेही समझा जाएगा? इस $खतरनाक वातावरण में राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोह का प्रमाणपत्र बांटने वालों से तुलनात्मक विमर्श किए जाने की भी स$ त ज़रूरत है। अफज़ल गुरु संसद के हमले की योजना में शामिल था और अदालत ने उसी आधार पर उसे फांसी की सज़ा सुनाई। भारतीय न्यायालय का स मान करते हुए इस फै़सले से सहमत होना हम सभी भारतीय नागरिकों का कर्तव्य है। अब यदि अफज़ल गुरु का महिमामंडन किया जाता है और उसकी फांसी को $गलत ठहराने की कोशिश की जाती है तो निश्चित रूप से यह हमारी न्याय व्यवस्था पर संदेह व्यक्त करने जैसा है। संसद पर हमले के दोषी का महिमामंडन भी जायज़ नहीं। परंतु ठीक इसी प्रकार महात्मा गांधी की हत्या में नाथू राम गोडसे को फांसी पर लटकाया गया था। यह फांसी भारतीय अदालत द्वारा पूरे साक्ष्यों,सबूतों तथा उसके बयान के आधार पर दी गई थी। ऐसे में क्या यह सवाल ज़रूरी नहीं कि आज जो लोग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे का महिमामंडन कर रहे हैं क्या वह स्वयं को राष्ट्रभक्त या राष्ट्रवादी कहलाने के योग्य हैं? क्या यह सवाल ज़रूरी नहीं कि वह कैन सी ताकतें थीं जिन्होंने गांधी जी की हत्या के बाद देश में मिठाईयां बांटने जैसा शर्मनाक काम किया था?
अफज़ल गुरु को शहीद बताना उन भारतीय सुरक्षाकर्मियों की तौहीन है जो संसद पर हुए हमले के दौरान आतंकवादियों से मुठभेड़ करते हुए शहीद हुए। परंतु अफज़ल गुरु को शहीद का दर्जा देने वाले और उसकी फांसी को हमेशा अन्याय बताने वाली पीडीपी के साथ कश्मीर में सरकार का गठन करना और एक साथ बैठकर राजनैतिक विमर्श करना यह क्या राष्ट्रभक्ति के लक्षण हैं? भारतीय संविधान के स्वयं को सबसे बड़े रखवाले तथा हमदर्द दिखाने वाले यही लोग भारतीय संविधान को इसीलिए नहीं हज़म कर पाते क्योंकि इसमें धर्मनिरपेक्ष भावनाओं व दिशानिर्देशों को संकलित किया गया है। हमारे तिरंगे राष्ट्रीय ध्वज को यह फूटी नज़रों से नहीं देख पाते क्योंकि इनकी नज़रों में भगवा ध्वज राष्ट्रीय ध्वज से अधिक महत्वपूर्ण व स मान योग्य है। इन्होंने 1947 के बाद तिरंगे झंडे को स्वीकार करने से भी इंकार कर दिया था। स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेना तो दूर बल्कि इनके कई नेताओं ने तो अंग्रेज़ों का साथ तक दिया था। कई वादामा$फ गवाह बने थे और कईयों ने मा$फीनामा दािखल कर अंग्रेज़ों के प्रकोप से बचने का प्रयास किया था। आज भी देश में अक्सर अस्थिरता व अलगाव पैदा करने का वातावरण बनाने में इन्हीं शक्तियों की भूमिका रहती है। कहीं गोडसे का मंदिर बनाए जाने की खबरें सुनाई देती हैं,कहीं गौमांस,लव जेहाद, घर वापसी जैसे विवादास्पद मुद्दों को हवा देकर समाज में नफरत और भय का माहौल पैदा किया जाता है। परंतु इन सब के बावजूद इन्हें इस बात की भी ‘खुशफ़हमी है कि देशभक्ति के जितने बड़े झंडाबरदार यह हैं उतना कोई दूसरा नहीं?
दरअसल हमारे विशाल भारत में देशभक्ति का विषय इतना कमज़ोर या हल्का नहीं कि चंद लोगों की कथित राष्ट्रविरोधी हरकतों से इसकी एकता,अखंडता,स्वतंत्रता या अस्मिता पर कोई आंच आ सके। चंद नारेबाज़ों से तो खैर देश का क्या बिगड़ेगा, हमारे देश के सैनिक,सुरक्षाकर्मी तथा यहां की सुरक्षा एजेंसियां देश के दुश्मनों के बड़े से बड़े षड्यंत्र को नाकाम करने में हमेशा सक्षम रही हैं। देश का तो 1965,1971 और कारगिल जैसे मोर्चों पर कुछ नहीं बिगड़ सका फिर आ$िखर किसी शिक्षण संस्थान के कैंपस में होने वाली नारेबाज़ी हमारे देश की एकता व इसकी अखंडता का क्या बिगाड़ सकेंगी? परंतु इसकी आड़ में और इसे मुद्दा बनाकर जिस प्रकार देश में विभाजन की रेखा खींचने की कोशिश की जा रही है उससे ज़रूर हमारे देश को काफी नुकसान पहुंच सकता है। इन शक्तियों द्वारा एक नारा अक्सर लगाया जाता रहा है कि-‘जो हिंदू हित की बात करेगा-वही देश पर राज करेगा। यह नारा अपने-आप में यह सोचने के लिए काफी है कि क्या यह भारतीय संविधान की तर्जुमानी करने वाला नारा है या इसमें फासीवादी सोच नज़र आ रही है? जो ताकतें 6 दिसंबर को शौर्य दिवस मनाती हों,जो शक्तियां उत्तर भारतीयों को दुश्मन समझने वाली शिव सेना से सत्ता की सांझीदार बनती हों,जो ताकतें कश्मीरी अलगाववादियों के प्रति नरम रुख रखने वाली पीडीपी की सहयोगी हों, जो ताकतें राजीव गांधी के हत्यारों के प्रति नरम रुख रखने वाली जयललिता के साथ खड़े रहने से न हिचकिचाती हों, भारतीय संविधान को अपमानित करने वाले अकाली नेता प्रकाशसिंह बादल के साथ जिनका सत्ता का गठजोड़ चला आ रहा हो, यहां तक कि देश के अधिकांश सांप्रदायिक दंगों में जिस विचारधारा के अधिकांश लोग आरोपी हों ऐसे लोग जब देश में जन्मे भारतवासियों को राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने की कोशिश करें और मात्र चिल्ला-चिल्ला कर तथा एक से बढ़कर एक झूठ गढ़कर स्वयं को सबसे बड़ा देशभक्त साबित करने का प्रयास करें,ऐसे में इनकी तथाकथित देशभक्ति को आईना दिखाए जाने की सतत ज़रूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं, इसस भारत वार्ता का सहमत होना अनिवार्य नहीं है)