जिन दिनों मैं पंजाब विश्वविद्यालय के विधि विभाग का छात्र था , उन दिनों वहाँ एक कहानी प्रचलित थी । कहा जाता था कि एल एल बी में वही फ़ेल होता है जो घर से यह फ़ैसला करके आये कि देखता हूँ कि मुझे कौन पास करता है । हिमाचल प्रदेश में भी अभी हुये राज्य विधान सभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने लगता है यही संकल्प लेकर चुनाव लड़ा और उसका वही परिणाम सामने आया जो ऐसे संकल्प के बाद आ सकता था । सोनिया कांग्रेस को ३६ सीटें मिलीं जो सरकार बनाने के लिये ज़रूरी सीटों से एक ज़्यादा है । परन्तु जब लड़ाई आर पार की हो तो एक का महत्व ही सर्वाधिक हो जाता है । उत्तराखंड में इस एक सीट ने ही भाजपा के हाथ से सत्ता छीन ली और अब यह एक ही हिमाचल की राजनीति में क़हर मचा रहा है । ऐसे ही किसी सन्दर्भ में धर्मवीर भारती ने कहा था कि रथ के टूटे पहिये को भी फेंको मत । न जाने कब इतिहासों की गति रुक जाये और टूटे पहिये ही काम आयें । भाजपा ने ,जब रथ के पहिये टूट रहे थे तब ज़्यादा ध्यान नहीं दिया । शायद तब सोचा हो कि इन के दूर छिड़क जाने से कम से कम भीतर का विरोध तो ख़त्म हो ही जायेगा । अलबत्ता तर्क के लिये तो कहा ही जा सकता है कि हिमाचल लोकहित पार्टी कुछ नहीं कर सकी । केवल माहेश्वर सिंह ही जीत पाये । इसके लिये उन्हें पार्टी बनाने की ज़रुरत नहीं थी । यदि वे विद्रोही के तौर भी खड़े हो जाते तो जीत ही सकते थे । फ़िलहाल इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है ।
इस तर्क के बाद भाजपा की हार की स्वनिर्मित रणनीति पर विचार करने के लिये क्या बचता है ?
भाजपा ने सोनिया कांग्रेस को उसके गढ़ में घेरने की माक़ूल योजना बनाई हुई थी और वह बहुत हद तक कामयाब भी हुई । हमीरपुर , ऊना व बिलासपुर ज़िले धूमल के गृह ज़िले माने जाते हैं । हमीरपुर लोकसभा का अधिकांश हिस्सा भी इन्हीं जिलों को मिलाकर बनता है । इन तीनों जिलों में कुल १४ सीटें हैं । पिछली विधान सभा में भाजपा को १४ में से ११ सीटें मिली थीं । इस बार कांग्रेस व भाजपा को सात सात मिली हैं । धूमल ने किसी भी तरह अपने क़िले को बचाये रखा । सिरमौर व सोलन कांग्रेस के प्रभाव क्षेत्र माने जाते हैं । पिछली बार भाजपा को इन जिलों की दस सीटों में से छह सीटें मिलीं थीं । इस बार भी भाजपा को छह सीटें ही मिलीं हैं । मंडी व क़ुल्लु ज़िला की चौदह सीटें हैं । पिछली बार भाजपा को यहाँ से आठ सीटें मिलीं थीं , लेकिन इस बार भी उसने छह सीटें जीत ही ली हैं । चम्बा जिला की पांच सीटों में से भाजपा ने पिछली बार भी तीन सीटें जीती थीं और इस बार भी यह संख्या बनाये रखी है । शिमला , लाहुल-स्पिति व किन्नौर ज़िले भी परम्परागत तौर पर कांग्रेस के गढ़ माने जाते हैं । यहाँ राजा वीरभद्र सिंह का व्यक्तिगत प्रभाव भी रहता है । इन तीनों जिलों की दस सीटें हैं । पिछली बार भाजपा यहाँ से चार सीटें जीत गई थी । लेकिन इस बार बहुत मुश्किल से वह एक ही सीट जीत पाई । लेकिन काँगड़ा ज़िला को छोड़ कर शेष पूरे हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को २३ और कांग्रेस को २६ सीटें मिलीं । इसका अर्थ हुआ कि दोनों दलों में लड़ाई केवल बराबर की ही नहीं थी बल्कि भाजपा ने कांग्रेस के गढ़ों में जाकर भी दो दो हाथ किये और उस स्थिति में भी जब उस इलाक़े में भाजपा से ही छिटककर बनी महेश्वर सिंह की हिमाचल लोकहित पार्टी भी भाजपा का खेल बिगाड़ने में जुटी हुई थी ।
लेकिन जैसा कि इतिहास गवाह है हिमाचल की इस लड़ाई का अन्तिम फ़ैसला तो नगरकोट में ही होना था । काँगड़ा का नगरकोट अनेक ऐतिहासिक लड़ाइयों का साक्षी है । प्रदेश के पत्रकार लिखते रहते हैं कि काँगड़ा की यह उपत्यकाएं भारतीय जनता पार्टी का ही गढ़ है और ऐसा है भी । हिमाचल प्रदेश में नगरकोट और भाजपा पर्यायवाची माने जाते है । काँगड़ा ज़िला में विधान सभा की पन्द्रह सीटें हैं जो प्रदेश के अन्य किसी भी ज़िले की सीटों से ज़्यादा है । कुरुक्षेत्र के युद्ध में धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा था कि रणभूमि में कौन क्या कर रहा है ? काँगड़ा की रणभूमि में भी लड़ाई होने पर पता चला की रातों रात पिच खोद दी गई है और बंकरों में कमज़ोर सिपाही तैनात कर दिये गये हैं । जिन सशक्त सिपाहियों को बंकरों से ज़बरदस्ती निकाल निकाल कर बाहर किया था , वे भी विद्रोह करके अपनी ही सेना को रौंदने के लिये तैयार खड़े थे । पोरस सिकन्दर के युद्ध जैसा दृश्य उपस्थित हो गया । पोरस की सेना के हाथी अपनी ही सेना को रौंद रहे थे । बाक़ी सारे प्रदेश में कांग्रेस को लगभग पीछे धकेलती हुई भाजपा की सेना अपने ही गढ़ काँगड़ा में आकर पराजित हो गई । काँगड़ा ज़िले की पंद्रह में से दस सीटें झटक कर कांग्रेस ने छत्तीस के जादुई आँकड़े को छू लिया । भाजपा को केवल तीन सीटें मिलीं । दोनों दिग्गज मंत्री कृष्ण कपूर और रमेश धवाला भी खेत रहे । लेकिन धृतराष्ट्र तो अंधा था और देख नहीं पाता था , इसलिये उसे सही स्थिति जानने के लिये संजय की सहायता लेनी पड़ रही थी , जब बंकरों से लड़ने वाले सैनिक हटा कर कमज़ोर सैनिक तैनात किये जा रहे थे , पिटें खोदी जा रही थीं तो भाजपा क्या कर रही थी ?
पिछली बार जब २००७ में जब कांग्रेस पराजित हुई थी अौर वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री पद से हटे तो उन्होंने चुनाव परिणामों पर टिप्पणी करते हुये कहा था कि कांग्रेस हाई कमांड ने हिमाचल की सत्ता तश्तरी पर रखकर भाजपा को सौंप दी है । लेकिन इस बार वे यही टिप्पणी बेझिझक भाजपा के बारे में कर सकते हैं ।
लेकिन कांग्रेस की सारी ख़ुशी गुजरात के चुनाव परिणामों ने धोकर रख दी है । कांग्रेस इस बार किसी भी हालत में नरेन्द्र मोदी को हटाने या कम से कम भाजपा की सीटें सौ के आस पास सिमटाने का प्रयास कर रही थी । इस के लिये हिमाचल की तर्ज़ पर केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी पर कांग्रेस आशा लगाये बैठी थी । अन्तर इतना ही पड़ा कि हिलोपा को हिमाचल में एक सीट मिली और गुजरात परिवर्तन पार्टी को गुजरात में दो सीटें मिलीं । कांग्रेस का कोई भी बड़ा नेता गुजरात में जीत नहीं पाया । सोनिया गान्धी और राहुल गान्धी गुजरात में चक्कर लगाते रहे , लेकिन मोदी ने पाँचवीं बार भाजपा की जीत दर्ज करवा कर सिद्ध कर दिया कि भाजपा पर मुस्लिम विरोधी होने का जो प्रचार सभी दल , मुसलमानों की वोटों को कंसोलिडेट करने के लिये करते रहते हैं , उसे अब मुसलमानों ने भी नकार दिया है । गुजरात के मुस्लिम बहुल इलाक़ों से भी भाजपा ने जीत दर्ज करवाई है ।
लेकिन कांग्रेस ने इन चुनावों की व्याख्या शायद अपनी भावी रणनीति को ध्यान में रखकर ही की है । गुजरात के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करते हुये वित्त मंत्री पी चिदम्बरम का कहना था कि पार्टी गुजरात के चुनाव परिणामों को अपनी जीत ही मानती है । क्योंकि वहाँ उसकी कुछ सीटें बढ़ी हैं और भाजपा उतनी सीटें नहीं ले पाई जितनी एक्ज़िट पोल के लोग कह रहे थे । एक भाजपाई की टिप्पणी थी — यदि कांग्रेस प्रदेश में भाजपा सरकार बनने को अपनी जीत मानती है तो हमारी कामना है कांग्रेस इस प्रकार की जीत हर प्रान्त में हासिल करे और वहाँ हमारी सरकारें बनती रहें । बहुत साल पहले जम्मू कश्मीर में कांग्रेस के हारने पर राजीव गान्धी ने कहा था कि चाहे कांग्रेस हारी है , लेकिन उसकी हार में भी लोकतंत्र की जीत है । तब मैंने लिखा था कि हम कामना करते हैं कि सारे देश में लोकतंत्र की जीत हो ।