डॉ0 संतोष राय (Santosh Rai) की कलम से
धर्म का अनुवाद जब से Religion हुआ है तब से यही प्रचलित हो गया है की धर्म का अर्थ एक पूजा पद्धतिसे है अथवा किसी सम्प्रदाय से है जिसका में पूर्ण रूप से खंडन करता हूँ । धर्म एक संस्कृत शब्द है और धर्म का अर्थ तो बहुत व्यापक है और उसकी कोई सीमा नहीं है, प्रत्युत आज के इस कलियुग के समय में पुरी पृथ्वी संकट में है जैसे – दानवो द्वारा मानवों का संहार, मजहबी आतंकवाद, अलगाववाद, अतिबौद्धिक आतंकवाद, पर्यावरण का क्षय, इत्यादी । धर्म न ही जन्मा है और न ही अजन्मा है एवं इसका न कोई आदि है और न ही अंत है, अतः सनातन धर्म ही धर्म है । धर्म किसी व्यक्ति अथवा किसी पैगम्बर द्वारा नहीं चलाया जाता है जबकि मजहब या Religion किसी व्यक्ति या पैगम्बर द्वारा चलाये गए हैं । मानवता एवं संसार कि रक्षा हेतु यह श्लोक सटीक बैठता है : धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः तस्माद्धर्मो न हन्तव्यः मानो धर्मो हतोवधीत् – मनुस्मृति अर्थ : धर्म उसका नाश करता है जो उसका (धर्म का ) नाश करता है | धर्म उसका रक्षण करता है जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है | अतः धर्म का नाश नहीं करना चाहिए |
ध्यान रहे धर्म का नाश करने वाले का नाश, अवश्यंभावी है | मानव समाज, जीवों, पर्यावरण तथा पृथ्वी की रक्षा हेतु धर्म की व्याख्या यही और उचित प्रतीत होती है और यही व्याख्या सनातन धर्म की भी है । सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि हिन्दू की परिभाषा क्या है। वीर सावरकर ने हिन्दू और हिंदुत्व की सही व्याख्या की है “आसिंधु सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारतभूमिका । पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिंदुरिति स्मृत:” ॥ सिन्धु नदी से लेकर हिंद महासागर तक पर्यंत फैली हुई भूमि को जो व्यक्ति अपनी पितृभूमि(पूर्वजों की भूमि) व पुण्यभूमि मानता है वह हिन्दू है । भारत में अवतरित सभी सम्प्रदायों, पंथों एवं मतों को मानने वालों की यह भूमि उनकी पितृभूमि यानी पूर्वजों की भूमि एवं पुण्य-भूमि यानी उनके देव, गुरु या ग्रन्थ यहीं अवतरित हुए हैं । हिन्दुत्व की जड़ें किसी एक पैगम्बर पर टिकी न होकर सत्य, अहिंसा, सहिष्णुता, ब्रह्मचर्य , करूणा पर टिकी हैं । हिन्दू विधि के अनुसार हिन्दू की परिभाषा में जिनकी आस्था इस भूमि पर नहीं है वे सब हिन्दू है। इसमें आर्यसमाजी, सनातनी, जैन, सिख, बौद्ध, लिंगायत, वारकरी, नास्तिक इत्यादि !
सभी लोग आ जाते हैं और यही हिन्दू की भी परिभाषा है । कोई व्यक्ति किसी भी भगवान को मानते हुए, एवं न मानते हुए भी हिन्दू बना रह सकता है । हिन्दू की परिभाषा को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि भारत में हिन्दू की परिभाषा में सिख बौद्ध जैन आर्यसमाजी सनातनी इत्यादि आते हैं । हिन्दू की संताने यदि इनमें से कोई भी अन्य पंथ अपना भी लेती हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं समझी जाती एवं इनमें रोटी-बेटी का व्यवहार सामान्य माना जाता है एवं एक दूसरे के धार्मिक स्थलों को लेकर कोई झगड़ा अथवा द्वेष की भावना नहीं है । सभी पंथ एक दूसरे के पूजा स्थलों पर आदर के साथ जाते हैं । जैसे स्वर्ण मंदिर में सामान्य हिन्दू भी बड़ी संख्या में जाते हैं तो जैन और बौद्ध मंदिरों में भी हिन्दुओं को बड़ी आसानी से देखा जा सकता है । इस प्रकार भारत में फैले हुए पंथों को किसी भी प्रकार से विभक्त नहीं किया जा सकता एवं सभी मिलकर अहिंसा करूणा मैत्री सद्भावना ब्रह्मचर्य को ही पुष्ट करते हैं ।
इसी कारण कोई व्यक्ति चाहे वह राम को माने या कृष्ण को बुद्ध को या महावीर को अथवा गोविन्द सिंह को परंतु यदि अहिंसा, करूणा, मैत्री, सद्भावना, ब्रह्मचर्य, पुर्नजन्म, अस्तेय, सत्य को मानता है तो हिन्दू ही है । इसी कारण जब पूरे विश्व में 13 देश हिन्दू देशों की श्रेणी में आएगें । इनमें वे सब देश है जहाँ बौद्ध पंथ है । भगवान बुद्ध द्वारा अन्य किसी पंथ को नहीं चलाया गया उनके द्वारा कहे गए समस्त साहित्य में कहीं भी बौद्ध शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । उन्होंने सदैव इसे धर्म कहा । भगवान बुद्ध ने किसी भी नए सम्प्रदाय को नहीं चलाया उन्होनें केवल मनुष्य के अंदर श्रेष्ठ गुणों को लाने उन्हें पुष्ट करने के लिए ध्यान की पुरातन विधि विपश्यना दी जो भारत की ध्यान विधियों में से एक है जो उनसे पहले सम्यक सम्बुद्ध भगवान दीपंकर ने भी हजारों वर्ष पूर्व विश्व को दी थी ।
एवं भगवान दीपंकर से भी पूर्व न जाने कितने सम्यंक सम्बुद्धों द्वारा यही ध्यान की विधि विपश्यना सारे संसार को समय समय पर दी गयी और ऐसा स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा कहा गया है । उन्होंने मानवीय गुणों को अपने अंदर बढ़ाने के लिए अनार्य से आर्य बनने के लिए ध्यान की विधि विपश्यना दी जिससे करते हुए कोई भी अपने पुराने पंथ को मानते हुए रह सकता है । परंतु विधि के लुप्त होने के बाद विपश्यना करने वाले लोगों के वंशजो ने अपना नया पंथ बना लिया । परतुं यह बात विशेष है कि इस ध्यान की विधि के कारण ही भारतीय संस्कृति का फैलाव विश्व के 21 से भी अधिक देशों में हो गया एवं 11 देशों में बौद्धों की जनसंख्या अधिकता में हैं । सनातन धर्म अथवा हिंदुत्व व बौद्ध मत में समानताएं – 1- दोनों ही कर्म में पूरी तरह विश्वास रखते हैं । 2- दोनों में विभिन्न प्रकार के स्वर्ग व नरक को बताया गया है । 3- दोनों में ही सभी जीवधारियों के प्रति करूणा व अहिंसा के लिए कहा गया है ।
– दोनों ही पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं ! 5- दोनों ही भारतीय हैं भगवान बुद्ध ने भी एक हिन्दू सूर्यवंशी राजा के यहां पर जन्म लिया था इनके वंशज शाक्य कहलाते थे । स्वयं भगवान बुद्ध ने तिपिटक में कहा है कि उनका ही पूर्व जन्म राम के रूप में हुआ था । 6- दोनों में ही सन्यास को महत्व दिया गया है । सन्यास लेकर साधना करन को वरीयता प्रदान की गयी है । धर्म एक रहस्य है, संवेदना है, संवाद है और आत्मा की खोज है। कोई शक्ति है या कोई रहस्य है। धर्म तो अनंत है और अज्ञात में छलांग लगाना जैसा है तथा धर्म जन्म, मृत्यु और जीवन को जानना भी है ! जो अहिंसा से युक्त हो, जो जीवन की रक्षा करे, धारण करे, अधोगति में जाने से रोके, प्रकृति का संतुलन बनाये रखे, व न्याय करे वही धर्म है ! एक जिज्ञासु ने मुझसे प्रश्न किया था कि सनातन धर्म यानी हिन्दू संस्कृति मनुस्मृति पर टिकी हुई है जो कि घोर ब्राह्मणवादी व्यस्था है और मनु ने जातीप्रथा, शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान, और नारियों का तिरस्कार इस व्यस्था में है !
जबकि मेरा कथन यह है की मनुस्मृति जो सृष्टि में नीति और धर्म ( कानून) का निर्धारण करने वाला सबसे पहला ग्रंथ माना गया है उस को घोर जाति प्रथा को बढ़ावा देने वाला भी बताया जा रहा है | आज स्थिति यह है कि मनुस्मृति वैदिक संस्कृति की सबसे अधिक विवादित पुस्तकों में है | पूरा का पूरा दलित आन्दोलन “मनुवाद” के विरोध पर ही खड़ा हुआ है | मनु जाति प्रथा के समर्थकों के नायक हैं तो दलित नेताओं ने उन्हें खलनायक के सांचे में ढाल रखा है | पिछड़े तबकों के प्रति प्यार का दिखावा कर स्वार्थ की रोटियां सेकने के लिए ही कुछ तथाकथित जातिवादियों लोगों द्वारा मनुस्मृति जलाई जाती रही है | अपनी विकृत भावनाओं को पूरा करने के लिए नीची जातियों पर अत्याचार करने वाले, एक सींग वाले विद्वान राक्षस के रूप में भी मनु को चित्रित किया गया है | हिन्दुत्व और वेदों को गालियां देने वाले कथित सुधारवादियों के लिए तो मनुस्मृति एक पसंदीदा साधन बन गया है| विधर्मी वायरस पीढ़ियों से हिन्दुओं के धर्मांतरण में इससे फ़ायदा उठाते आए हैं जो आज भी जारी है | ध्यान देने वाली बात यह है कि मनु की निंदा करने वाले इन लोगों ने मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा तक नहीं है ! हमारे शुद्र भाइयो को मनु-स्मृति के गलत श्लोक बता के भड़काया जाता है जबकि मनु-स्मृति मे ऐसा कोई श्लोक नहीं है जो किसे जाती या वर्ण के विरुद्ध हो…..
मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मणो क्षत्रियोँ वैश्य व शुद्रोँ के लिए निःसंदेह अलग अलग दंड का प्रावधान है । कैसे ? तो सुनिए । अगर एक ही प्रकार का कोई अपराध चारो वर्ण के व्यक्ति यानि ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य व शुद्र करते हैँ तो मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मण सबसे ज्यादा दंड का अधिकारी है क्योकी ब्राह्मण जो ज्ञानी होता है तथा सब कुछ जानते हुए भी अपराध करता है इसलिए उसको सबसे अधिक कठोर दंड । उसके बाद क्षत्रिय को फिर वैश्य को तथा सबसे कम दंड शुद्र को मिलनी चाहिए क्योकि वो बिल्कुल अबोध होता है । ये है असली मनुस्मृति । एक ब्राह्मण यदि ज्ञानी होते हुए भी अपराध करता है तो उसे शुद्र की तुलना में 4 गुना अधिक दंड मिलता है, तो यह है मनुस्मृति का न्याय ! मनुस्मृति उस काल की है जब जन्मना जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था | अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती | महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म – स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है (देखें – ऋग्वेद-१०.१०.११-१२, यजुर्वेद-३१.१०-११, अथर्ववेद-१९.६.५-६) यह वर्ण व्यवस्था है | जैसे वर अर्थात् कन्या द्वारा चुना गया पति, जिससे पता चलता है कि वैदिक व्यवस्था कन्या को अपना पति चुनने का पूर्ण अधिकार देती है |
मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है |यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौनसी क्षत्रियों से, कौनसी वैश्यों और शूद्रों से | इस का मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है | ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊँची जाति का कहलाते आए हैं | ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि सभ्यता के आरंभ से ही यह लोग ऊँची जाति के थे | जब वह यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है, वह कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे ? और स्वयं जो अपने को ऊँची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे ? मनुस्मृति ३.१०९: में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए | अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्मना ब्राह्मण या ऊँची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए!
मनुस्मृति २. १३६: धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं | इन में कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है | वर्णों में परिवर्तन : मनुस्मृति १०.६५: ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है | इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं | मनुस्मृति ९.३३५: शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है | मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ट कर्म नहीं करता, तो शूद्र (अशिक्षित) बन जाता है | उदाहरण- २.१०३: जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए | २.१७२: जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है | ४.२४५ : ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ट – अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच- नीचतर व्यक्तिओं का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ट बनता जाता है |
इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है | अतः स्पष्ट है कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है | इसका, किसी भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है | २.१६८: जो ब्राह्मण,क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है | और उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है | अतः मनुस्मृति के अनुसार तो आज भारत में कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी सारे लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता इत्यादि में लिप्त हैं – वे सभी शूद्र हैं | २ .१२६: भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है |
शूद्र भी पढ़ा सकते हैं : शूद्र भले ही अशिक्षित हों तब भी उनसे कौशल और उनका विशेष ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए | २.२३८: अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए| २.२४१ : आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे | ब्राह्मणत्व का आधार कर्म : मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती | मनुस्मृति के अनुसार माता- पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए | कई ब्राह्मण माता – पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है| ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों | २.१५७ : जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है | २.२८: पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है |
शिक्षा ही वास्तविक जन्म : मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है | जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है | ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है | शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं | यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है, इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है| २.१४८ : वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है | यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है |ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है| यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है| सुशिक्षा के बिना मनुष्य ‘ मनुष्य’ नहीं बनता| इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने की बात तो छोडो जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा तब तक उसे मनुष्य भी नहीं माना जाएगा | २.१४६ : जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं | पिताद्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है|
२.१४७ : माता- पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है| वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है| अत: अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है | अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा | १०.४: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं | विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है | इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ट मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है | इस का मतलब है कि अगर कोई अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया तो वह दुष्ट नहीं हो जाता | उस के कृत्य यदि भले हैं तो वह अच्छा इन्सान कहा जाएगा | और अगर वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो वह भी द्विज गिना जाएगा | अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं | ‘नीच’ कुल में जन्में व्यक्ति का तिरस्कार नहीं : किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं | ४.१४१: अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर और / या अधिकार से वंचित न करें |
क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं| प्राचीन इतिहास में वर्ण परिवर्तन के उदाहरण : ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं | यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था | जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है, तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है जिस का सामना आज भी कर रहें हैं| वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण – (i) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है | (ii) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) (iii) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए | (iv) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४) अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(v) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३) (vi) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२) (vii) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२) (viii) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए | (ix) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने | (x) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५) (xi) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं | (xii) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने | (xiii) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना | (xiv) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ | (xv) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे | (xvi) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया | (xvii) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया | (xviii) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) |
(xix) मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं | वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं | इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश | (xx) महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर| (xxi) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं | इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं | लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए | शूद्रों के प्रति आदर : मनु परम मानवीय थे| वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते | जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो, उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं | उन्होंने शूद्रों के प्रति कभी अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, बल्कि मनुस्मृति में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं |
मनु की दृष्टी में ज्ञान और शिक्षा के अभाव में शूद्र समाज का सबसे अबोध घटक है, जो परिस्थितिवश भटक सकता है | अत: वे समाज को उसके प्रति अधिक सहृदयता और सहानुभूति रखने को कहते हैं | कुछ और उदात्त उदाहरण देखें – ३.११२: शूद्र या वैश्य के अतिथि रूप में आ जाने पर, परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराए | ३.११६: अपने सेवकों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें | २.१३७: धन, बंधू, कुल, आयु, कर्म, श्रेष्ट विद्या से संपन्न व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए | मनुस्मृति वेदों पर आधारित : वेदों को छोड़कर अन्य कोई ग्रंथ मिलावटों से बचा नहीं है | वेद प्रक्षेपों से कैसे अछूते रहे, जानने के लिए ‘ वेदों में परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता ? ‘ पढ़ें | वेद ईश्वरीय ज्ञान है और सभी विद्याएँ उसी से निकली हैं | उन्हीं को आधार मानकर ऋषियों ने अन्य ग्रंथ बनाए| वेदों का स्थान और प्रमाणिकता सबसे ऊपर है और उनके रक्षण से ही आगे भी जगत में नए सृजन संभव हैं | अत: अन्य सभी ग्रंथ स्मृति, ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, गीता, उपनिषद, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, दर्शन इत्यादि को परखने की कसौटी वेद ही हैं | और जहां तक वे वेदानुकूल हैं वहीं तक मान्य हैं |
मनु भी वेदों को ही धर्म का मूल मानते हैं (२.८-२.११) २.८: विद्वान मनुष्य को अपने ज्ञान चक्षुओं से सब कुछ वेदों के अनुसार परखते हुए, कर्तव्य का पालन करना चाहिए | इस से साफ़ है कि मनु के विचार, उनकी मूल रचना वेदानुकूल ही है और मनुस्मृति में वेद विरुद्ध मिलने वाली मान्यताएं प्रक्षिप्त मानी जानी चाहियें | शूद्रों को भी वेद पढने और वैदिक संस्कार करने का अधिकार : वेद में ईश्वर कहता है कि मेरा ज्ञान सबके लिए समान है चाहे पुरुष हो या नारी, ब्राह्मण हो या शूद्र सबको वेद पढने और यज्ञ करने का अधिकार है | देखें – यजुर्वेद २६.१, ऋग्वेद १०.५३.४, निरुक्त ३.८ इत्यादि ! और मनुस्मृति भी यही कहती है | मनु ने शूद्रों को उपनयन अथवा यज्ञोपवित से वंचित नहीं रखा है | इसके विपरीत उपनयन अथवा यज्ञोपवित से इंकार करने वाला ही शूद्र कहलाता है | वेदों के ही अनुसार मनु शासकों के लिए विधान करते हैं कि वे शूद्रों का वेतन और भत्ता किसी भी परिस्थिति में न काटें ( ७.१२-१२६, ८.२१६)| संक्षेप में – मनु को जन्मना जाति – व्यवस्था का जनक मानना निराधार है | इसके विपरीत मनु मनुष्य की पहचान में जन्म या कुल की सख्त उपेक्षा करते हैं | मनु की वर्ण व्यवस्था पूरी तरह गुणवत्ता पर टिकी हुई है
प्रत्येक मनुष्य में चारों वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र | मनु ने ऐसा प्रयत्न किया है कि प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान जो सबसे सशक्त वर्ण है – जैसे किसी में ब्राह्मणत्व ज्यादा है, किसी में क्षत्रियत्व, इत्यादि का विकास हो और यह विकास पूरे समाज के विकास में सहायक हो | अब हम मनु पर थोपे गए अन्य आरोप जैसे शूद्रों के लिए कठोर दंड विधान तथा स्त्री विरोधी होने की सच्चाई को जानेंगे | लेकिन मनु पाखंडी और आचरणहीनों के लिए क्या कहते हैं :- यह भी देख लेते हैं – ४.३०: पाखंडी, गलत आचरण वाले, छली – कपटी, धूर्त, दुराग्रही, झूठ बोलने वाले लोगों का सत्कार वाणी मात्र से भी न करना चाहिए | जन्मना जाति व्यवस्था को मान्य करने की प्रथा एक सभ्य समाज के लिए कलंक है और अत्यंत छल-कपट वाली, विकृत और झूठी व्यवस्था है | वेद और मनु को मानने वालों को इस घिनौनी प्रथा का सशक्त प्रतिकार करना चाहिए | शब्दों में भी उसके प्रति अच्छा भाव रखना मनु के अनुसार घृणित कृत्य है | लोगों द्वारा मनुस्मृति से ऐसे सैंकड़ों श्लोक दिए जा सकते हैं, जिन्हें जन्मना जातिवाद और लिंग-भेद के समर्थन में पेश किया जाता है | वर्तमान मनुस्मृति लगभग आधी नकली है| सिर्फ़ मनुस्मृति में ही मिलावट नहीं है |
वेदों को छोड़ कर जो अपनी अद्भुत स्वर और पाठ रक्षण पद्धतियों के कारण आज भी अपने मूल स्वरुप में है, लगभग अन्य सभी सम्प्रदायों के ग्रंथों में स्वाभाविकता से परिवर्तन, मिलावट या हटावट की जा सकती है | जिनमें रामायण, महाभारत, पुराण इत्यादि भी शामिल हैं | भविष्य पुराण में तो मिलावट का सिलसिला छपाई के आने तक चलता रहा | आज रामायण के तीन संस्करण मिलते हैं – १. दाक्षिणात्य २. पश्चिमोत्तरीय ३. गौडीय और यह तीनों ही भिन्न हैं | गीता प्रेस, गोरखपुर ने भी रामायण के कई सर्ग प्रक्षिप्त नाम से चिन्हित किए हैं | कई विद्वान बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के अधिकांश भाग को प्रक्षिप्त मानते हैं |
महाभारत भी अत्यधिक मिलावटी ग्रंथ हो चुका है | गरुड़ पुराण ( ब्रह्मकांड १.५४ ) में कहा गया है कि कलियुग के इस समय में धूर्त स्वयं को ब्राह्मण बताकर महाभारत में से कुछ श्लोकों को निकाल रहे हैं और नए श्लोक बना कर डाल रहे हैं | महाभारत का शांतिपर्व (२६५.९,४) स्वयं कह रहा है कि वैदिक ग्रंथ स्पष्ट रूप से शराब, मछली, मांस का निषेध करते हैं | इन सब को धूर्तों ने प्रचलित कर दिया है, जिन्होंने कपट से ऐसे श्लोक बनाकर शास्त्रों में मिला दिए हैं | इसलिए इस में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मनुस्मृति जो सामाजिक व्यवस्थाओं पर सबसे प्राचीन ग्रंथ है उसमें भी अनेक परिवर्तन किए गए हों | यह सम्भावना अधिक इसलिए है कि मनुस्मृति सर्व साधारण के दैनिक जीवन को, पूरे समाज को और राष्ट्र की राजनीति को प्रभावित करने वाला ग्रंथ रहा है
यदि देखा जाए तो सदियों तक वह एक प्रकार से मनुष्य जाति का संविधान ही रहा है | इसलिए धूर्तों और मक्कारों के लिए मनु स्मृति में मिश्रण करने के बहुत सारे प्रलोभन थे | मनुस्मृति का पुनरावलोकन करने पर चार प्रकार के मिश्रण दिखायी देते हैं – विस्तार करने के लिए, स्वप्रयोजन की सिद्धी के लिए, अतिश्योक्ति या बढ़ा- चढ़ा कर बताने के लिए, दूषित करने के लिए| अधिकतर मिश्रण सीधे- सीधे दिख ही रहें हैं | डा. सुरेन्द्र कुमार ने मनु स्मृति का विस्तृत और गहन अध्ययन किया है | जिसमें प्रत्येक श्लोक का भिन्न- भिन्न रीतियों से परीक्षण और पृथक्करण किया है ताकि प्रक्षिप्त श्लोकों को अलग से जांचा जा सके | उन्होंने मनुस्मृति के २६८५ में से १४७१ श्लोक मिश्रित पाए हैं | मिश्रण का वर्गीकरण वे इस प्रकार करते हैं – – विषय से बाहर की कोई बात हो | – संदर्भ से विपरीत हो या विभिन्न हो | – पहले जो कहा गया, उसके विरुद्ध हो या पूर्वापार सम्बन्ध न हो | – पुनरावर्तन हो | – भाषा की विभिन्न शैली और प्रयोग हो | – वेद विरुद्ध हो |
डा. अम्बेडकर भी प्राचीन ग्रंथों में मिलावट स्वीकार करते हैं | वे रामायण, महाभारत, गीता, पुराण और वेदों तक में भी मिश्रणों को मानते हैं | मनुस्मृति के परस्पर विरोधी, असंगत श्लोकों को उन्होंने कई स्थानों पर दिखाया भी है | वे जानते थे कि मनुस्मृति में कहां -कहां मिश्रण हैं | लेकिन वे जानबूझ कर इन श्लोकों को मिश्रण कहने से बचते रहे क्योंकि उन्हें अपना मतलब सिद्ध करना था | उनके इस पक्षपाती व्यवहार ने उन्हें दलितों का नायक जरूर बना दिया | इस तरह मनुविरोध को बढ़ावा देकर उन्होंने अपना और कई लोगों का राजनीतिक हित साधा | उनकी इस मतान्धता ने समाज में विद्वेष का ज़हर ही घोला है और एक सच्चे नायक मनु को सदा के लिए खलनायक बना दिया | इसी तरह कुछ पाखंडी लोग जो अपने आप को संत या साधू बताते हैं, वे भी दंभ में रहकर हुए समाज और राष्ट्र को दिग्भ्रमित करते हैं | कुछ अन्य पाखंडियों ने भी सिर्फ़ राजनीतिक प्रसिद्धि पाने के लिये भी मनुस्मृति का दहन किया |
निष्कर्ष :
मनुस्मृति में बहुत अधिक मात्रा में मिलावट हुई है | परंतु इस मिलावट को आसानी से पहचानकर अलग किया जा सकता है | प्रक्षेपण रहित मूल मनुस्मृति अत्युत्तम कृति है, जिसकी गुण -कर्म- स्वभाव आधारित व्यवस्था मनुष्य और समाज को बहुत ऊँचा उठाने वाली है | मूल मनुस्मृति वेदों की मान्यताओं पर आधारित है | आज मनुस्मृति का विरोध उनके द्वारा किया जा रहा है जिन्होंने मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा नहीं और केवल वोट बैंक की राजनीति के चलते विरोध कर रहे हैं | सही मनुवाद जन्मना जाति प्रथा को पूरी तरह नकारता है और इसका पक्ष लेने वाले के लिए कठोर दण्ड का विधान करता है | जो लोग बाकी लोगों से सभी मायनों में समान हैं, उनके लिए, सही मनुवाद ” दलित ” शब्द के प्रयोग के ख़िलाफ़ है |
आइए, हम सब जन्म जातिवाद को समूल नष्ट कर, वास्तविक मनुवाद की गुणों पर आधारित कर्मणा वर्ण व्यवस्था को लाकर मानवता और राष्ट्र का रक्षण करें| महर्षि मनु जाति, जन्म, लिंग, क्षेत्र, मत- सम्प्रदाय, इत्यादि सबसे मुक्त सत्य धर्म का पालन करने के लिए कहते हैं – ८.१७: इस संसार में एक धर्म ही साथ चलता है और सब पदार्थ और साथी शरीर के नाश के साथ ही नाश को प्राप्त होते हैं, सब का साथ छूट जाता है – परंतु धर्म का साथ कभी नहीं छूटता ! मनुस्मृति को जानने से पहले मनु को भी जानना आवश्यक है, सनातन धर्म के अनुशार मनु संसार के प्रथम पुरुष थे। प्रथम मनु का नाम स्वयंभुव मनु था, जिनके संग प्रथम स्त्री थी शतरूपा। ये स्वयं-भू (अर्थात होना) ब्रह्मा द्वारा प्रकट होने के कारण ही स्वयंभू कहलाये।
इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण मानव या मनुष्य कहलाए। स्वायंभुव मनु को आदि भी कहा जाता है। आदि का अर्थ होता है प्रारंभ। सभी भाषाओं के मनुष्य-वाची शब्द मैन, मनुज, मानव, आदम, आदमी आदि सभी मनु शब्द से प्रभावित है। यह समस्त मानव जाति के प्रथम संदेशवाहक हैं। इन्हें प्रथम मानने के कई कारण हैं। सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई। मानव का हिन्दी में अर्थ है वह जिसमें मन, जड़ और प्राण से कहीं अधिक सक्रिय है। मनुष्य में मन की शक्ति है, विचार करने की शक्ति है, इसीलिए उसे मनुष्य कहते हैं। और ये सभी मनु की संतानें हैं इसीलिए मनुष्य को मानव भी कहा जाता है। ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। एक कल्प में 14 मनु हो जाते हैं। एक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं,और चार युगों को मिलाकर एक महायुग होता है और ऐसे 71 महायुगों को मिलाकर एक मन्वंतर बनता है वर्तमान में वैवस्वत मनु (7वें मनु) हैं !
सनातन धर्म में स्वायंभुव मनु के ही कुल में आगे चलकर स्वायंभुव सहित कुल मिलाकर क्रमश: 14 मनु हुए । महाभारत में 8 मनुओं का उल्लेख मिलता है व श्वेतवराह कल्प में 14 मनुओं का उल्लेख है। इन चौदह मनुओं को ही जैन धर्म में कुलकर कहा गया है । वर्तमान काल तक वराह कल्प के स्वायम्भु मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत-मनु चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वन्तर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अन्तर्दशा चल रही है। सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी सम्वत प्रारम्भ होने से 5630 वर्ष पूर्व हुआ था। इस तरह मनु एक प्रकार से पद होता था और इसी तरह यह क्रम चलता रहता है । अतः हमें मनुस्मृति पर हो हल्ला नही मचाना चाहिए । कुछ तथाकथित जातिवादी समूहों या अतिबौद्धिकवादी तत्वों ने मनुस्मृति का जो अनुचित अनुवाद किया है वह निंदनीय है । वर्णवयस्था को जातिवयस्था में जिन लोगों ने बदलने का कुंठित प्रयाश किया है वह भी निंदनीय है और वार्णिक समाज को अनायास जातीय समाज में बदल दिया गया है उसका भी खंडन करना चाहिए । एक समय था जब संस्कृत हमारी मूल भाषा थी जो कि सभी वर्णों कि भाषा थी उस पर मात्र कुछ लोगों का ही अधिकार रह गया था । सनातन धर्म में तो शास्तार्थ का भी नियम है और काल एवं समयनुशार परिवर्तन भी होते रहे अतः इस कलियुग में भी हिन्दू संस्कृति को जीवन जीने का आधार मानकर ही सही संसार में शान्ति स्थापित की जा सकती है ।