हिन्दुत्व की बिसात पर पहली चाल है भागवत का मराठी मानुस

भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। यही वह पहला वाक्य है, जिसे मोहन राव भागवत ने संघ की कमान संभालते ही कहा था। जाहिर है बीजेपी के राष्ट्रीय नेता तब इसे पचा नहीं पा रहे थे कि 21वीं सदी में इस तर्ज पर अगर आरएसएस सोचने लगी तो उनकी राजनीति का तो बंटाधार ही हो जायेगा। लेकिन भागवत यहीं नहीं रुके। खुद नागपुर के होते हुये पहली बार बीजेपी के अध्यक्ष पद पर नागपुर के ही नीतिन गडकरी को बैठाकर उन्होंने बीजेपी के सामने जमे कोहरे को कुछ और साफ किया। फिर मराठी मानुस की राजनीति में अपने हाथ डालकर आरएसएस ने भविष्य के उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पहली आहुति दी, जिसे बीते एक दशक में बीजेपी ने सत्ता की राजनीति तले धो डाला था।

 

बीते एक दशक में बीजेपी के हर राजनीतिक बयान ने संघ को उसके पीछे चलने के लिये मजबूर किया। और एनडीए को बनाये रखने की बीजेपी की राजनीति मजबूरी के सामने दंडवत होकर संघ ने अपने आस्ततिव पर भी सवालिया निशान लगवाया। संघ के भीतर इसका असर यह भी हुआ कि स्वयंसेवक संघ के मुखिया से सवाल पूछने लगे कि वह बीजेपी के प्रचारतंत्र के तौर पर काम कर रहे हैं या फिर हिन्दुत्व का भोंपू बजाकर अपने ही राजनीतिक संगठन बीजेपी से नूरा-कुश्ती कर रहे हैं। संघ पर इसका असर यह भी पड़ा कि आरएसएस के साथ खड़ा होने के लिये नयी पीढ़ी के कदम रुक गये और पुरानी पीढी ने अपने आपको कदमताल में सिमटा लिया। मराठी मानुस की राजनीतिक आग में भागवत का कूदना कोई अचानक नहीं है। वह भी यह जानते समझते हुये कि संघ की पहली पहचान महाराष्ट्र ही है और शिवसेना भी महाराष्ट्र के बाहर राजनीति करने की हैसियत नहीं रखती। लेकिन शिवसेना हो या आरएसएस दोनो देश पर उस भगवे को लहराता हुआ देखना चाहते है, जिससे हिन्दुत्व राष्ट्र की परिकल्पना हकिकत में बदल जाये।

 

भागवत इस हकीकत को बखूबी जानते हैं कि शिवसेना की ट्रेनिंग आरएसएस के हिन्दुत्व की नहीं सावरकर के उग्र हिन्दुत्व की है। और इसीलिये बाबरी मस्जिद ढहाने के आरोप से जब आरएसएस बचना चाह रही थी और नागपुर में देवरस खामोश थे, उस वक्त बालासाहेब ठाकरे ने खुले तौर पर इसकी जिम्मेदारी ली थी। और झटके में शिवसेना को नागपुर समेत उस विदर्भ में एक नयी राजनीतिक जमीन मिल गयी थी जो कभी मराठी मानुस की रही ही नही। भागवत अतीत की उन परिस्थितियों को भी जानते समझते हैं, जब संघ के मुखिया हेडगेवार सामाजिक शुद्दिकरण के जरीये हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना दिल में सहेजे थे और वीर सावरकर खुले तौर पर कहते थे कि इस ब्राह्मण्ड में हिन्दु राष्ट्र तो होना ही चाहिये और यह शुद्दिकरण नहीं शुद्द राजनीति है।

 

उस दौर में मोहनराव भागवत के पिता मधुकर राव भागवत गुजरात में प्रचारक थे और जोर शोर से हेडगेवार की हिन्दुत्व थ्योरी को अमल में लाने के लिये लोगों को संघ से जोड रहे थे । लेकिन सावरकर की पहल लोगों को हिन्दु महासभा से जोड़ रही थी। भागवत के सामने तमाम परिस्थितियां शीशे की तरह साफ हैं। इसलिये भागवत का मंथन बीजेपी को लेकर नहीं है। वह समझ रहे हैं कि संघ की सांस्कृतिक पहल भी राजनीति के मैदान में उग्र पहल होगी और खुद ब खुद बीजेपी को उनके पीछे चलने के लिये मजबूर करेगी। जिससे गडकरी की राजनीतिक मुश्किलें आसान होंगी। भागवत के सामने चुनौती शिवसेना की नहीं है। भागवत राजनीति को सूंड से पकड़ना चाह रहे हैं। इसलिये राजनीतिक तौर पर चाहे संघ की पहल महाराष्ट्र में ठाकरे को चुनौती देती दिखे या फिर बिहार में नीतिश कुमार की अतिपिछड़ों की राजनीति को वह बिहार की जमीन पर खड़े होकर ही आईना दिखाये। या बीजेपी के ही दिल्ली केन्द्रित राष्ट्रीय नेताओं को दरवाजा दिखायें, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वह कोई राजनीतिक चाल चल रहे हैं।

 

असल में भागवत चाल चलने से पहले हिन्दुत्व की राजनीतिक बिसात बिछाना चाहते हैं। और संघ के भीतर उठ रहे सवालो का जवाब वह उन राजनीतिक परिस्थितियों पर निशाना साध कर देना चाहते हैं जो वोट बेंक में सिमटती जी रही है। संघ के मुद्दे बीजेपी के दौर में हवा-हवाई हुये इसे भी बागवत नहीं भूले हैं। राम मंदिर सपना बन गया। स्वदेशी ने एफडीआई के आगे घुटने टेक दिये। गो-रक्षा का सवाल आर्थिक विकास में पुरातनपंथी हो गया। धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर बेमानी भरा शब्द हो गया । बांग्लादेशी घुसपैठ ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इन मुद्दो को सीधे अगर भागवत उठाते हैं तो संघ पर फिर आरोप लगेगा कि वह हिन्दुत्व की पुरानी थ्योरी को राजनीति पर लादना चाह रहा है। इसलिये भागवत ने पहली बार सावरकर का फार्मूला अपनाया है । जिसमें राजनीतिक मुद्दों को राष्ट्रवाद से जोडते हुये सामाजिक शुद्दिकरण की बहस को संघ के भीतर पैदा करना और बीजेपी को राजनीतिक तौर पर उसी लीक पर चलने के लिये मजबूर करना। भागवत इस सच को समझ रहे है कि संघ अपनी जमीन नहीं छोड़ सकता इसलिये सावरकर ने अपने दौर में कोकणस्थ ब्राह्मणो को तरजीह दी थी तो भागवत ने भी संघ की जो नयी टीम बनायी उसमें मराठियों को ही सबसे ज्यादा तरजीह भी दी और हर निर्णायक पद पर मराठी स्वयंसेवक को ही बैठाया। इसलिये मराठी मानुस पर संघ का राष्ट्रवाद शिवसेना को नहीं घेरता बल्कि हिन्दुत्व के उस धागे में ही मुद्दे को पिरोतो है, जिसके तहत आज भी संघ में शामिल होने के लिये किसी भी व्यक्ति को यह प्रतिज्ञा लेनी पडती है कि ” अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज की अभिवृद्दि कर भारतवर्ष की सर्वागीण उन्नति करने के लिये मैं राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ का घटक बना हूं। ” और बतौर स्वयंसेवक आरएसएस के संविधान में लिखे उद्देश्य और मन्तव्य को जीवन पर यह कहते हुये उतारना पड़ता है कि , ” हिन्दू समाज को संगठित कर एकात्म बनाना और हिन्दू समाज को उसके धर्म और संस्कृति के आधार पर शक्तिशाली तथा चैतन्यपूर्ण करना है, जिससे भारतवर्ष का सर्वागीण उन्नति हो सके। ” और मराठी मानुस पर भागवत के संकेत यही है कि दिशा वही पकड़नी है जिसका जिक्र सरसंघचालक बनने के बाद उन्होंने कहा था “यह देश हिन्दुओं का है। हिन्दुस्तान छोड़कर दुनिया में हिन्दुओं की अपनी कहीं जाने वाली भूमि नहीं है। वह इस घर का मालिक है। लेकिन उसकी असंगठित अवस्था और उसकी दुर्बलता के कारण वह अपने ही घर में पिट रहा है। इसलिये हिन्दुओं को संगठित होना होगा। क्योंकि भारत हिन्दू राष्ट्र है।”