सफाई कर्मचारी आंदोलन के प्रणेता बेजवाड़ा विल्सन को मेगासेसे पुरस्कार मिला है। यह पुरस्कार भारत के कई लोगों को मिल चुका है लेकिन विल्सन को जिस काम के लिए मिला है, उसमें भगवान बुद्ध की करुणा छिपी हुई है। अपने देश में मनुष्यों से वह काम लिया जाता है, जो काम जानवर भी करना पसंद न करे याने हाथ से मैला बटोरना और उसे सिर पर ढोकर ले जाना। अभी देश में यह घृणित कार्य छह लाख लोग करते हैं।
विल्सन को यह श्रेय है कि उन्होंने उनमें से तीन लाख लोगों को इस नारकीय दशा से मुक्त करवाया है। वे अपने सफाई कर्मचारी आंदोलन के जरिए देश में घूम-घूमकर इस मुद्दे पर जन-जागरण करते हैं। उनका कहना है कि देश में वैसे गंदे शौचालय लगभग आठ लाख हैं। इनकी हाथ से सफाई करने वालों में दलित औरतों और कन्याओं की संख्या 98 प्रतिशत है। यह महिला-अपमान का सबसे निर्मम उदाहरण है।
हमारा संविधान इसके विरुद्ध है लेकिन दलितों को तो हम मनुष्यों की श्रेणी में रखते ही नहीं हैं। हम उनका अपमान तो करते ही हैं, उनके परिश्रम की भी कोई कीमत नहीं करते। यदि शौचालय को साफ करने वालों में जो सबसे ऊंचा हो, उसकी तनखा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के बराबर हो तो क्या फिर सफाई का काम घटिया माना जाएगा? इसके लिए बड़े-बड़े ब्राह्मणों, राजपूतों और बनियों के लड़के दौड़ पड़ेंगे। पादरियों, पंडितों और मौलवियों के बच्चे पीछे क्यों रहेंगे? सफाई का काम अगर गंदा है तो हम सबकी मां से ज्यादा गंदा कौन होगा? लेकिन माता की तो हम पूजा करते हैं। मातृदेवो भव! पिता से भी पहले माता को याद करते हैं। इन शौचालयों को साफ करने वाले दलितों के लिए हमारे हृदय में अपनी माता से भी अधिक सम्मान और कृतज्ञता होनी चाहिए।
यह सम्मान प्रकट किया, बिहार में औरंगाबाद के एक जिला न्यायाधीश ने! उर्मिला नामक एक विधवा की नौकरी एक स्कूल में से इसलिए छीन ली गई थी कि वह दलित है। भला, एक दलित औरत, सवर्ण बच्चों का खाना कैसे पका सकती है? अछूत के हाथ का खाना ऊंची जात के बच्चे कैसे खाएंगे? युवा अफसर कंवल तनुज को यह जैसे ही पता चला, वे उस स्कूल में पहुंचे और उन्होंने प्राचार्य को मुअत्तिल कर दिया और उर्मिला देवी को फिर से काम पर बुला लिया। उर्मिला ने खाना पकाया। कंवल तनुज ने वहीं बच्चों के साथ बैठकर उसके हाथ का बना खाना खाया। वाह तनुज! तुम्हारे-जैसे अफसर हमें हर जिले में चाहिए।