कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल राज्य मंत्री से न सिर्फ कैबिनेट मंत्री हो गये बल्कि उन्हें प्रमोशन देकर भी उसी मंत्रालय में प्रधानमंत्री ने रखा। यानी पहला संकेत तो यही है कि मनमोहन सिंह कोयला खनन को लेकर श्रीप्रकाश जायसवाल से खासे खुश हैं। लेकिन इस संकेत के पीछे कुछ ऐसे सवाल हैं, जो देश में कोयला खनन को लेकर सरकार की नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं और अब लग भी यही रहा है कि इन्हीं नीतियों को अमल में लाने के लिये श्रीप्रकाश जायसवाल को कैबिनेट स्तर पर लाया गया है। नयी परिस्थितियों में कोयला खनन की इजाजत देश में पर्यावरण की नीतियों को हाशिये पर रख कर की जायेगी। टाइगर रिजर्व के क्षेत्र में भी कोयला खनन होगा और झारखंड से लेकर बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियो की जमीन पर कोयला खनन की इजाजत देकर आदिवासियो की कई प्रजातियो के आस्तित्व पर संकट मंडराने लगेगा। इतना ही नहीं महाराष्ट्र के वर्धा में जिस बापू कुटिया के लेकर देश संवेदनशील रहता है, उस वर्धा में साठ वर्ग की जमीन के नीचे खदान खोद दी जायेगी। असल में विकास की जिन नीतियो को सरकार लगातार हरी झंडी दे रही है, उसमें पावर प्लांट से लेकर स्टील उद्योग के लिये कोयले की जरुरत है। लेकिन कोयला जब तक राष्ट्रीय घरोहर बना रहेगा और सिर्फ सरकारी कोल इंडिया के कब्जे में रहेगा तब तक मनमोहन सिंह के विकास की थ्योरी अमल में लाना मुश्किल होगा।
इसलिये 37 साल बाद दुबारा कोयला खादान को निजी हाथो में सौपने की तैयारी में सरकार जुटी है। और कोयले से करोड़ों का वारा-न्यारा कर मुनाफा बनाने में चालीस से ज्यादा कंपनिया सिर्फ इसीलिये बन गयी, जिससे उन्हें कोयला खदान का लाइसेंस मिल जाये। बीते पांच बरस में कोयला खदानो के लाइसेंस का बंदर बांट जिस तर्ज पर जिन कंपनियो को हुआ है, अगर उसकी फेहरिस्त देखें और लाइसेंस लेने-देने के तौर तरीके देखें तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला पीछे छूट जायेगा। क्योंकि न्यूनतम पांच करोड़ के खेल में जब किसी भी कंपनी को एक ब्रेकेट खदान मिलता रहा है तो बीते पांच साल में देश भर में डेढ़ हजार से ज्यादा कोयला खदान के ब्रेकेट का लाइसेंस दिया गया है। इन सभी को जोड़ने पर कितने लाख करोड़ के राजस्व का चूना लगा होगा, इसकी कल्पना भर ही की जा सकती है। लेकिन यह पूरा खेल कैसे खेला जा रहा है और अब इसमें तेजी आयेगी इसे समझने के लिये इसके पन्ने भी शुरु से पलटने होंगे। कोयला तो काला सोना है, इसे दुनिया के पर्यावरणविद् चाहे यह कहकर न माने कि विकास के आधुनिक दौर में कोयला वाकई काला है और यह पर्यावरण के लिये फिट नहीं बैठता । लेकिन भारत में कोयला खदानो के जरीये न बड़ा खेल खेला जा रहा है, उसमें यह कहने से कोई नहीं कतराता कि यह वाकई काला सोना है। और इसकी कमाई में कोई अड़चन न आये या हाथ काले न हो यह कैबिनेट की उस मोहर से भी सामने आ गया, जिसमें कोयला खदानो को लेकर अब सिर्फ पर्यावरण मंत्रालय की दादागिरी से अधिकार छीनकर मंत्रियों के समूह को यह फैसला लेने का अधिरकार दे दिया गया कि वह जिसे चाहे उसे कोयला खदान देने और खादान से कोयला निकालने की इजाजत दे सकता है। असल में अभी तक कोयला मंत्रालय खादानो को बांटता था और लाइसेंस लेने के बाद कंपनियो को पर्यावरण मंत्रालय से एनओसी लेना पड़ता था। लेकिन अब जिसे भी कोयले खदान का लाइसेंस मिलेगा उसे किसी मंत्रालय के पास जाने की जरुरत नहीं रहेगी। क्योंकि मंत्रियो के समूह में पर्यावरण मंत्रालय का एक नुमाइंदा भी रहेगा । लेकिन यह हर कोई जानता है कि मंत्रियो के फैसले नियम-कायदों से इतर बहुमत पर होते हैं । यानी पर्यावरण मंत्रालय ने अगर यह चाहा कि वर्धा में गांधी कुटिया के इर्द-गिर्द कोयला खादान ना हो या फिर किसी टाइगर रिजर्व में कोयला खादान ना हो तो भी उसे हरी झंडी मिल सकती है क्योंकि मंत्रियों के समूह में वित्त ,वाणिज्य और कृषि मंत्री की इस पर सहमति हो कि कोयला खादानो के जरीये ही उघोग के क्षेत्र में विकास हो सकता है। यानी मनमोहन सिंह की विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था की रफ्तार में पर्यावरण सरीखे मुद्दे रुकावट ना डाले इसकी बिसात बिछा दी गयी है। लेकिन खुली अर्थव्यवस्था के खेल में अगर यह कोयला खादानो का पहला सच है तो इसकी पीछे की हकीकत कही ज्यादा त्रासदीपूर्ण है। क्योंकि कोयला खादानो को लेकर देश में खेल क्या चल रहा है और यही खेल कैसे रफ्तार पकड़ेगा, इसे समझने के लिये कोयला खदान को लेकर मनमोहन सिंह की उन नीतियों के पन्ने उलटने होंगे जो 1995 में उन्होने बतौर वित्त मंत्री रहते हुये बनायी थी। लेकिन उससे पहले याद कीजिये 1979 में बनी फिल्म कालापत्थर को। जिसमें कोयला खदानो से मुनाफा बनाने के लिये निजी मालिक मजदूरो की जिन्दगी दांव पर लगाता है। असल में यह फिल्म भी झारखंड की उस चासनाला कोयला खादान के हादसे पर बनी थी, जिसमें कोयला निकालते सैकड़ों मजदूरों की मौत खादान में पानी भरने से हुई थी। और जांच रिपोर्ट में यह पाया गया था कि कोयला निकालने का काम खादान में जारी रखने पर पानी भर सकता है, इसकी जानकारी भी पहले से खादान मालिक को थी।
असल में निजी कोयला खादानो में मजदूरो के शोषण को देखकर ही 1973 में इंदिरा गांधी ने कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया। लेकिन 1995 में बत्तौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने कोल इंडिया के सामने यह लकीर खींच दी कि सरकार कोल इंडिया को अब मदद नहीं देगी बल्कि वह अपनी कमाई से ही कोल इंडिया चलाये तो 1995 से कोल इंडिया भी ठेकेदारी पर कोयला खादान में काम कराने लगा और मजदूरों के शोषण या ठेकेदारी के मातहत काम करने वाले मजदूरो के हालात कितने बदतर है, यह आज भी झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश में देखा जा सकता है। यानी आर्थिक सुधार की बयार में यह मान लिया गया कि कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण से सरकार को कोई लाभ मनमोहन की इक्नामिक थ्योरी तले देश को हो नहीं सकता। यानी देश के खदान मजदूरों को लेकर जो भी खाका सरकार ने खींचा, वह खुली अर्थव्यवस्था में फेल मान लिया गया। क्योंकि ठेकेदारी प्रथा ज्यादा मुनाफा देने की स्थिति में है।
लेकिन संकट सिर्फ इतना भर नहीं है कि नयी परिस्थितियों में कोयला खदान के जरीये कैसे मुनाफे का रास्ता लाइसेंस पाने के साथ ही खुलता है और लाइसेंस लेना ही सबसे बडा धंधा हो जायेगा। न सिर्फ यह सामने आ रहा है बल्कि कोयले की इस लूट में राज्य सरकारें भी शामिल है और किसी भी कारपोरेट के लाइसेंस पर कोई आंच नही आये इसकी व्यवस्था भी मनमोहन सिंह सरकार ने कर दी है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीते छह साल में 342 खदानो के लाइसेंस बांटे गये, जिसमें 101 लाइसेंसधारको ने कोयला का उपयोग पावर प्लांट लगाने के लिये लिया। लेकिन इन छह सालो में इन्ही कोयला कादानो के जरीये कोई पावर प्लांट नया नही आ पाया। और इन खदानो से जितना कोयला निकाला जाना था, अगर उसे जोड़ दिया जाये तो देश में कही भी बिजली की कमी होनी नहीं चाहिये। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
यानी एक सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या कोयला खादान के लाइसेंस उन कंपनियो को दे दिये गये, जिन्होंने लाइसेंस इसलिए लिए कि वक्त आने पर खदान बेचकर वह ज्यादा कमा लें। तो यकीनन लाइसेंस जिन्हें दिया गया उनकी सूची देखने पर साफ होता है कि खादान का लाइसेंस लेने वालों में म्यूजिक कंपनी से लेकर अंडरवियर-जांघिया बेचने वाली कंपनिया भी हैं और अखबार निकालने से लेकर मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनी भी । इतना ही नही दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हें न तो पावर सेक्टर का कोई अनुभव है और न ही कभी खादान से कोयला निकालवाने का कोई अनुभव। कुछ लाइसेंस धारकों ने तो कोयले के दम पर पावर प्लांट का भी लाईसेंस ले लिया और अब वह उन्हें भी बेच रहे हैं। मसलन सिंगरैनी के करीब एस्सार ग्रूप तीन पावर प्लांट को खरीदने के लिये सौदेबाजी कर रही है, जिनके पास खादान और पावरप्लाट का लाइसेंस है, लेकिन वह पावर सेक्टर को व्यापार के जरीये मुनाफा बनाने का खेल समझती है।
वहीं बंगाल, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, गोवा से लेकर उड़ीसा तक कुल 9 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कामर्शियल यूज के लिये कोयला खदानों का लाइसेंस लिया है। और हर राज्य खदानों को या फिर कोयले को उन कंपनियों या कारपोरेट घरानों को बेच रहा है, जिन्हें कोयले की जरुरत है। इस पूरी फेहरिस्त में श्री बैघनाथ आयुर्वेद भवन लिं, जय बालाजी इडस्ट्री लिमेटेड, अक्षय इन्वेस्टमेंट लिं, महावीर फेरो, प्रकाश इडस्ट्री समेत 42 कंपनियां ऐसी हैं, जिन्होंने कोयला खादान का लाइसेंस लिया है लेकिन उन्होंने कभी खदानो की तरफ झांका भी नहीं। और इनके पास कोई अनुभव न तो खादानो को चलाने का है और न ही खदानो के नाम पर पावर प्लांट लगाने का। यानी लाइसेंस लेकर अनुभवी कंपनी को लाईसेंस बेचने का यह धंधा भी आर्थिक सुधार का हिस्सा है। ऐसे में मंत्रियो के समूह के जरीये फैसला लेने पर सरकार ने हरी झंडी क्यों दिखायी, यह समझना भी कम त्रासदीदायक नहीं है।
जयराम रमेश ने 2010 में सिर्फ एक ही कंपनी सखीगोपाल इंटीग्रेटेड पावर कंपनी लि. को लाइसेंस दिया। लेकिन इससे पहले औसतन हर साल 35 से 50 लाईसेंस 2005-09 के दौरान बांटे गये। असल में पर्यावरण मंत्रालय की आपत्तियों को भी समझना होगा उसने अडानी ग्रुप का लाइसेंस इसलिये रद्द किया क्योकि वह ताडोबा के टाइगर रिजर्व के घेरे में आ रहा था। लेकिन क्या अब ऐसे हालात में पर्यावरण मंत्रालय कोई निर्णय ले पायेगा। असल में यह सोचना भी नामुमकिन है। क्योंकि इस वक्त कोयला मंत्रालय के पास 148 जगहों के खदान बेचने के लिये पड़े हैं । और इसमें मध्यप्रदेश के पेंच कन्हान का वह इलाका भी है, जहा टाइगर रिजर्व है। पेंच कन्हान के मंडला ,रावणवारा,सियाल घोघोरी और ब्रह्मपुरी का करीब 42 वर्ग किलोमीटर में कोयला खादान निर्धारित किया गया है। इस पर कौन रोक लगायेगा यह दूर की गोटी है। लेकिन कोयला खादानो को जरीये मुनाफा बनाने का खेल वर्धा को कैसे बर्बाद करेगा इसकी भी पूरी तैयारी सरकार ने कर रखी है। महाराष्ट्र में अब कही कोयला खादान बेचने की जगह बची है तो वह वर्धा है। इससे पहले वर्धा में बापू कुटिया के दस किलोमीटर के भीतर पॉवर प्लांट लगाने की हरी झंडी राज्य सरकार ने दी। तो अब बापू कुटिया और विनोबा भावे केन्द्र की जमीन के नीचे की कोयला खादान का लाइसेंस बेचने की तैयारी हो चुकी है। वर्धा के 14 क्षेत्रो में कोयला खादान खोजी गयी है।
किलौनी, मनौरा,बांरज, चिनौरा,माजरा, बेलगांवकेसर डोगरगांव,भांडक पूर्वी,दक्षिण वरोरा,जारी जमानी, लोहारा,मार्की मंगली से लेकर आनंदवन तक का कुल छह हजार वर्ग किलोमिटर से ज्यादा का क्षेत्र कोयला खादान के घेरे में आ जायेगा। यानी वर्धा की यह सभी खदानों में जिस दिन काम शुरु हो गया, उस दिन से वर्धा की पहचान नये झरिया के तौर पर हो जायेगी। झरिया यानी झारखंड में धनबाद के करीब का वह इलाका जहा सिर्फ कोयला ही जमीन के नीचे धधकता रहता है। और यह शहर कभी भी ध्वस्त हो सकता है इसकी आशंका भी लगातार है। खासबात यह है कि कोयला मंत्रालय ने वर्धा की उन खादानो को लेकर पूरा खाका भी दस्तावेजों में खींच लिया है। मसलन वर्धा की जमीन के नीचे कुल 4781 मीट्रिक टन कोयला निकाला जा सकता है। जिसमें 1931 मिट्रिक टन कोयला सिर्फ आंनदवन के इलाके में है। असल में मनमोहन सिंह लगातार चाहते है कि कोयला खादान पूरी तरह निजी हाथों में आ जाये, इसके लिये विधायक भी सरकार के एंजेडे में पडा है जो बजट सत्र के दौरान भी संसद में रखा जा सकता है। क्योंकि कोयले के निजीकरण से पावर सेक्टर और निर्माण क्षेत्र में लगने वाला सीमेंट और लौहा उघोग भी जुड़ा है। और सरकार भी इस सच को समझ रही है कि ज्यादा मुनाफे का रास्ता अगर उन उघोगों के लिये नहीं खोला गया तो विकास की जो लकीर मनमोहनोमिक्स देश पर लादना चाहती है, उसे रफ्तार नहीं मिल पायेगा। लेकिन इसमें भी सियासत का खेल खुल कर खेला जा रहा है। आदिवासियो के नाम पर उडीसा में खादान की इजाजत सरकार नहीं देती है लेकिन कोयला खादानो की नयी सूची में झरखंड के संथालपरगना इलाके में 23 ब्लॉक कोयला खादान के चुने गये हैं। जिसमें तीन खादान तो उस क्षेत्र में हैं, जहां आदिवासियो की लुप्त होती प्रजाति पहाड़ियां रहती हैं। राजमहल क्षेत्र के पचवाड़ा और करनपुरा के पाकरी व चीरु में नब्बे फीसदी आदिवासी है। लेकिन सरकार अब यहा भी कोयला खादान की इजाजत देने को तैयार है। वहीं बंगाल में कास्ता क्षेत्र में बोरेजोरो और गंगारामाचक दो ऐसे इलाके हैं, जहां 75 फीसदी से ज्यादा आदिवासी हैं। वहां पर भी कोयला खदान का लाइसेंस अगले चंद दिनों में किसी न किसी कंपनी को दे दिया जायेगा।
खास बात यह है कि कोयला खदानों के सामानांतर पावर प्रजोक्ट के लाइसेंस भी बांटने की एक पूरी प्रक्रिया इसी तर्ज पर किसी भी कंपनी को दी जा रही है। जो लाइसेंस पाने के बाद खुले बाजार में उसी तरीके से लाइसेंस की सौदेबाजी करते है जैसे 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंसधारको ने किया। यानी कोयला खादान के लाइसेंस देने की एवज में मंत्री-नौकरशाहो के वारे-न्यारे जो अभी तक होते आये अब उसमें एक नयी तेजी आयेगी क्योकि पर्यावरण मंत्रालय पर तो ग्रुप आफ मिनिस्टर की नकेल तय है। फिर 2जी स्पेक्ट्रम की तरह किसी घोटाले का कोई आरोप कोयला मंत्रालय पर ना लगे, इसके लिये 148 कोयला खदानों के लिये अब बोली लगाने वाला सिस्टम लागू किया जा रहा है । यानी विकास के लिये सूचना का ऐसा खुला खेल जिसमें हर कोई शरीक हो और यह भी ना लगे कि कोयला काला सोना है, जिसकी पीठ पर बैठकर करोड़ों के धंधे की सवारी की जा रही है। और हर उस प्रभावी को जिसके पास पूंजी और सत्ता से जुडने की साख है कोयला खनन का लाइसेंस ले सकता है।