इस बात की चर्चा करनी होगी और चिन्तन भी करना होगा कि कानून की व्याख्या के नाम पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित किये जाने वाले निर्णयों का न्यायिक औचित्य भी सिद्ध होना चाहिये, अन्यथा पिछले कुछ निर्णयों को देखें तो न्यायिक निर्णय भी प्रशासनिक निर्णयों की तरह नाइंसाफी और मनमानी को बढावा देने वाले ही प्रतीत हो रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किसी व्यक्ति को अपराध करते हुए पकड़वाने के लिये उसका गुप्त रूप से किया गया स्टिंग ऑपरेशन अवैधानिक और अनैतिक है। अत: स्टिंग ऑपरेशन करने को वैधानिक नहीं ठहराया जा सकता। केवल यही नहीं आश्चर्यजनक रूप से सुप्रीम कोर्ट स्टिंग ऑपरेशन करने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने और उनके खिलाफ मुकदमा चलाने को वैधानिक करार दे चुका है! जिसका सीधा और साफ सन्देश यही है कि आने वाले समय में सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को रिश्वत लेते, गैर कानूनी काम करते और भेदभाव करते हुए गुप्त रूप से कैमरे में कैद करने अर्थात् स्टिंग ऑपरेशन करने वालों के विरुद्ध तो निश्चित रूप से कार्यवाही होगी, लेकिन जिन लोगों को स्टिंग ऑपरेशन में पकड़ा जायेगा, उनको मासूम-निर्दोष मानते हुए और ये मानकर कि उनको गुप्त रूप से तथा अनैतिक तरीके से फंसाया गया, उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जायेगी। आखिर इस प्रकार के निर्णय से सुप्रीम कोर्ट सन्देश क्या दे रहा है? विशेषकर तब जबकि इस देश की नौकरशाही का अभी तक का यह इतिहास रहा है कि यदि किसी न्यायिक निर्णय से नौकरशाही के किसी कृत्य या कुकृत्य को संरक्षण मिलता प्रतीत भी हो रहा हो, तो नौकरशाही द्वारा ऐसा निर्णय पूरी निष्ठा के साथ लागू किया जाता है, जबकि इसके विपरीत सूरत में अर्थात् जनहित को संरक्षण प्रदान करने वाला और नौकरशाही के कुकृत्यों को उजागर करने वाला कोई सटीक और सुस्पष्ट न्यायिक निर्णय भी यह कहकर लागू नहीं किया जाता है कि वह निर्णय तो एक प्रकरण विशेष के लिये है।
ऐसे हालातों में सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय क्या-क्या गुल खिलायेगा, ये तो आने वाले समय में ज्ञात हो ही जायेगा, लेकिन यह निर्णय भ्रष्टाचार और अत्याचार के विरुद्ध समाज के हित में कार्य करने वाले लोगों, संगठनों और मीडिया के लिये भयावह तस्वीर अवश्य दिखला रहा है। यही नहीं यह निर्णय मीडिया को परोक्ष रूप से नियन्त्रित करता हुआ भी दिख रहा है। ऐसे में अब हमें निरपेक्ष भाव से इस बात की चर्चा करनी होगी और चिन्तन भी करना होगा कि कानून की व्याख्या के नाम पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित किये जाने वाले निर्णयों का न्यायिक औचित्य भी सिद्ध होना चाहिये, अन्यथा पिछले कुछ निर्णयों को देखें तो न्यायिक निर्णय भी प्रशासनिक निर्णयों की तरह नाइंसाफी और मनमानी को बढावा देने वाले ही प्रतीत हो रहे हैं।
पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट के बड़े ही अजीब निर्णय सामने आ रहे हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है-सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों द्वारा हड़ताल करने को असंवैधानिक करार देने वाला निर्णय। लेकिन हास्यास्पद स्थिति ये है कि अपने इस निर्णय को स्वयं सुप्रीम कोर्ट ही लागू नहीं करने देता है।
पहला मामला-हड़ताल करना असंवैधानिक, लेकिन आरक्षित वर्ग के हितों के विरुद्ध की जाये तो वैधानिक : उच्च चिकित्सा के शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के अभ्यर्थियों को केन्द्र सरकार द्वारा आरक्षण प्रदान किये जाने के निर्णय का अनारक्षित वर्ग के रेजीडेण्ट डॉक्टरों द्वारा विरोध किया जाता है। निर्णय को रुकवाने के लिये हड़ताल का सहारा लिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को आधार मानकर केन्द्र सरकार रेजीडेण्ट डॉक्टरों की हड़ताल अवधि को अनुपस्थित मानकर उनका वेतन काट लेती है, जिसे रेजीडेण्ट डॉक्टरों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है तो बदले हालातों में सुप्रीम कोर्ट की राय भी बदल जाती है और अब सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आता है कि केन्द्र सरकार इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती है कि वह हड़ताल करने वाले रेजीडेण्ट डॉक्टरों का वेतन नहीं दे रही?
दूसरा मामला-आरक्षित वर्ग के संरक्षण को बाधित करने के लिये की गई हड़ताल पर कोर्ट मौन : भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में पहले दिन से साफ शब्दों में लिखा हुआ है कि नियुक्तियों और पदों पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों को आरक्षण प्रदान किया जायेगा। लेकिन इस सुस्पष्ट प्रावधान की अपने हिसाब से व्याख्या करते हुए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों को पदौन्नति में आरक्षण प्रदान करने को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवैधानिक ठहरा दिया जाता है। पदौन्नति में आरक्षण को असंवैधानिक करार देने वाले सुप्रीम कोर्ट के सामाजिक न्याय विरोधी निर्णय को ठीक करने के लिये केन्द्र सरकार ने संविधान में संशोधन करने का विधेयक संसद में प्रस्तुत ही किया था कि इसके पारित होने से पूर्व ही उत्तर प्रदेश के राज्य कर्मचारियों द्वारा इसके खिलाफ हड़ताल कर दी गयी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा हड़ताल करने को संविधान विरोधी ठहराये जाने के उपरान्त भी सम्पूर्ण न्यायपालिका द्वारा इस बारे में किसी प्रकार का संज्ञान तक नहीं लिया गया।
तीसरा मामला-कानून में द्वितीय विवाह करने पर पाबंदी, लेकिन ऐसा करने वाली की अवैध पत्नी को अनुकम्पा नियुक्ति देना वैध : सरकारी कर्मचारी द्वारा विवाहित होते हुए दूसरी औरत से विधि-विरुद्ध विवाह कर लेने को परोक्ष रूप से संरक्षण प्रदान करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्णय दिया गया कि दूसरा विवाह कर लेने वाले लोक सेवक की मृत्यु के बाद उसकी दोनों विधवा बीवियों की सहमति से मृतक के सेवानिवृत्ति के लाभ एवं अनुकम्पा नियुक्ति के हक दोनों के बीच बांट दिये जावें। जबकि भारतीय संसद ने आज तक ऐसा कोई कानून नहीं बनाया हुआ है।
चौथा मामला-विवाहित पुरुष द्वारा अपनी अवैध दूसरी पत्नी को गुजारा भत्ता दिया जाये, बेशक विधिवत वैवाहित पत्नी और बच्चों का बजट गड़बड़ा जाये : एक वैवाहिक मामले में सुप्रीम कोर्ट कहता है कि धोखे से विवाह करने वाले पुरुष द्वारा दूसरी पत्नी को गुजारा भत्ता दिया जावे, बेशक पहली विवाहिता पत्नी और उससे जन्मे बच्चों के पालन पोषण पर इसका दुष्प्रभाव ही क्यों ना पड़े। इस प्रकार कानून की नजर में एक अवैध और शून्य विवाह के आधार पर किसी पुरुष की बनने वाली दूसरी बीवी की तो सुप्रीम कोर्ट चिन्ता करता है, लेकिन कानून तौर पर विवाह रचाने वाली पहली पत्नी व उसके बच्चों के आर्थिक अधिकारों के हनन की कोई परवाह नहीं करता है। जबकि भारत की संसद की और से अभी तक ऐसा कोई कानून नहीं बनाया गया है।
पांचवा मामला-पत्नी को थप्पड़ और लात मारो तो चलेगा, लेकिन यदि बात करना बन्द किया तो तलाक : एक हाई कोर्ट कहता है कि बहू को सास और पति द्वारा थप्पड़ और लातें मारना अत्याचार और क्रूरता नहीं हैं। ऐसा तो सभी परिवारों में होता ही रहता है। अत: यह सामान्य बात है। इसलिये इसे क्रूरता मानकर तलाक की अर्जी स्वीकार नहीं की जा सकती है। जबकि एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट कहता है कि पति-पत्नी द्वारा आपस में बातचीत नहीं करना भी क्रूरता है और इस आधार पर तलाक मंजूर करना उचित है।
छठा मामला-भ्रष्ट नौकरशाहों का स्टिंग ऑपरेशन करोगे तो जेल में डाल दिये जाओगे : स्टिंग ऑपरेशन को अवैधानिक ठहराने का नवीनतम निर्णय है। जिससे भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले देशभक्त लोगों को दबाने में सरकारी कर्मचारियों और अफसरों को असंख्य मौके मिलेंगे। सबसे दु:खद बात तो ये है कि जब भी कोई सरकारी कर्मचारी-अधिकारी ऐसे किसी मामले को स्टिंग ऑपरेशन करने वाले के विरुद्ध या अन्य किसी के विरुद्ध कोर्ट में ले जाता है तो ऐसे मामले की पैरवी सरकारी खर्चे पर सरकारी पैनल के वकील द्वारा की जाती है, जबकि स्टिंग ऑपरेशन करने वाले को स्वयं मुकदमा लड़ना होता है, बावजदू इसके कि उसका इसमें कोई व्यक्तिगत हित नहीं होता है।
सुप्रीम कोर्ट आखिर चाहता क्या है? इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट के ऊपरोक्त और अनेकानेक अन्य निर्णय ये सोचने को विवश कर रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट आखिर चाहता क्या है?