देव आनंद (देवानंद) खबरों में रहें हों या न रहे हों लेकिन वे हमेशा बहुत महत्वपूर्ण बने रहे। वैसे वे महत्वहीन तो कभी नहीं थे, लेकिन मौत ने उनको एक बार फिर बहुत महत्वपूर्ण बना दिया है। 4 दिसंबर 2011 को लंदन में उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया। वे जिंदगी भर, जिंदगी के सामने, जिंदगी से भी बड़े सवाल खड़े करते रहे। और जीते जीते तो कर ही रहे थे, जाते जाते भी जिंदगी को यह सवाल दे गए कि कि आखिर 88 साल की ऊम्र तक जीवन के आखरी पड़ाव पर भी कोई इंसान इतना सक्रिय कैसे रह सकता है?
सवाल सचमुच बहुत बड़ा है। मगर जिंदगी उससे भी बड़ी है। जो लोग भरपूर जवानी के जोश में भी जिंदगी की सच्चाइयों के सामने लड़खड़ाकर चूर हो जाते हैं, उनको देव आनंद के इतनी ऊम्र में भी सक्रिय रहने और काम करते रहकर जिंदगी को जीतने की उनकी ललक के कारण जानने की कोशिश करनी चाहिए। और जो लोग दो-चार फिल्में बनाने के बाद लुप्त हो गए, उनको मौत के दिनों के आसपास भी देवानंद के 38वीं फिल्म बनाने की तैयारी की वजहें तलाशनी चाहिए। और, जो लोग अच्छे अभिनेता, खूबसूरत चेहरे और संपर्कों – संबंधों का व्यापक विस्तार वाले लोग होने के बावजूद कुछेक फिल्मों में काम करने के बाद आउट हो गए, उनको देवानंद के 110 से भी ज्यादा फिल्मों में लीड रोल करने के कारण जरूर जान लेने चाहिए। देव आनंद तो चले गए, मगर उनका नाम रहेगा। नाम इसलिए, क्योंकि उनकी जिंदगी में आशाओं के टूटने, हिम्मत हारने और कुछ आराम कर लेने के साथ साथ पीछे मुड़कर देखने के लिए कोई जगह नहीं थी। देव आनंद कहते थे – ‘जिंदगी जब हर सुबह एक दिन आगे बढ़ जाती है। वह थकती नहीं। हारती नहीं। रुकती नहीं। पीछे मुड़कर देखती नहीं। हर रोज वह हमारे साथ नए नए प्रयोग करती रहती है। रोज विकसित होती रहती है। तो फिर हम उसको उसी के अंदाज में क्यों नहीं जिएं।’
देव आनंद की जिंदगी की पटकथा, किसी रहस्य, रोमांच और परीकथा से कम नहीं लगती। वे सारे विषयों पर बात करते थे, खुलकर बोलते थे और बेबाक बात करते थे, लेकिन सुरैया का नाम आते ही उनकी जुबान तो चुप हो जाती थी और आंखे बोलने लगती थीं। 80 साल की ऊम्र में लोगों की आंखें बहुत थक जाती हैं। लेकिन अपन ने उन आंखों में भी भरपूर जवानी के जोश को जोरदार उफान मारते देखा है। यह तब की बात है, जब उनको दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिला था। साल था 2003, और जगह थी मुंबई में बांद्रा स्थित पाली हिल का उनका आनंद स्टूडियो। दूसरी मंजिल के बड़े से हॉल के एक कोने में लेंप की रोशनी में वे कुछ पढ़ रहे थे। अपन जैसे ही उन के पास पहुंचे, वे अचानक उछलकर खड़े हो गए और लपक कर पास आते ही गले लगाकर बोले – ‘तुम तो बिल्कुल सही वक्त पर आ गए…।’ अपन बोले – ‘देव साहब, आपने वक्त की कीमत दुनिया को सिखाई है, आपको इंतजार करवाकर हम क्या पा लेंगे।’ वे चुप थे… एकदम चुप। फिर अपने साथ के बाकी तीन लोगों का परिचय पूछकर जिंदगी की बातें करने लग गए। लेकिन सिर्फ जिंदगी की बात ही क्यूं… फिल्मों की बात क्यूं नहीं ? इस सवाल पर उनका कहना था – फिल्में तो जिंदगी का एक हिस्सा है। मगर फिर भी फिल्मों में पूरी जिंदगी दिखती है। इसीलिए फिल्में हमें अकसर जिंदगी से भी ज्यादा हसीन लगती हैं। सारे लोग कहते हैं कि फिल्में बदल गई है, फिल्मों में बहुत कुछ नया आ गया है। मगर देव आनंद फिल्मों में आज के दौर के बदलाव को बदलाव नहीं मानते थे। उनका कहना था – ‘कुछ नहीं बदला। वही प्यार है। वही संगीत है। वही किस्से हैं, कहानियां हैं। वही एक दूसरे के प्रति भावनाओं से भरी बातें हैं। क्या बदला है ? सिर्फ लोग ही तो बदले हैं, नए लोग आए हैं, नई तकनीक आई है। मगर फिल्में कहां बदली है। साठ साल में तो कुछ भी नहीं बदला।’
दरअसल, देव आनंद कला और ग्लैमर के संसार में वक्त को जीतनेवाली उस पूरी पीढ़ी के प्रतिनिधि थे, जिसके लिए जिंदगी इसलिए ज्यादा जरूरी है क्योंकि इससे बड़ा नाटक और कोई है ही नहीं। यही वजह रही कि वे जब तक जिए, लोग उनकी जिंदगी में जीने की नाटकीयता की तलाश हर पल करते रहे। मगर कोई भी, किसी भी मोड़ पर देव साहब के जीवन की नितांत निजता में जी हुई नौटंकी को पकड़ नहीं पाया। क्योंकि वह थी ही नहीं। वे कहते थे, बहुत सारे लोग उनके पास आते हैं, और उनके जीवन में कलाकार और स्टार होने के बीच के फर्क पर बात करते हैं। मगर वे इसमें कोई फर्क नहीं मानते थे। उनके लिए स्टार होना भी इंसान होना ही होता है। यह कोई और कहता तो शायद समझ में नहीं आता। मगर देव आनंद की जिंदगी के जरिए यह सब देखना, समझना और कहना और भी आसान हो जाता है, क्योंकि फिल्म जगत के वे पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिनकी निजी जिंदगी का रहन सहन भी किसी बहुत बड़े सुपर स्टार से कम नहीं था, और असल जिंदगी में भी वे सिर्फ और सिर्फ एक सहज कलाकार ही थे। फिर चाहे वह उनका बात करने का लहजा हो, चलने का अंदाज हो या फिर आम आदमी से कई हजार गुना ज्यादा ऊंची उनकी लाइफ स्टाइल। हर किसी को साफ लगता था कि निजी जिंदगी में वे पूरी तरह फिल्मी थे, और फिल्मों में वे पूरी तरह असल आदमी। सच कहा जाए तो, फिल्म और जिंदगी के बीच खड़ा आदमी उनको कहा जा सकता है। क्योंकि वे सिनेमा के होते हुए भी आम आदमी के आदमी थे। 26 सितंबर 1923 को पाकिस्तान में तब के गुरदासपुर और अब के नारोवाल जिले में वकील पिशोरीमल आनंद के घर हुआ और 20 साल की ऊम्र में 1943 में वे मुंबई आ गए। तीन साल बाद 1946 में उनकी पहली फिल्म आई – ‘हम एक हैं’ और 1950 में ‘प्रेम पुजारी’ से उन्होंने निर्देशन शुरू किया। कुल 110 से भी ज्यादा फिल्में उनके खाते में दर्ज हैं।
जिंदगी के बारे में उनका नजरिया बहुत साफ था। वे कहते थे – ‘मन को जो अच्छा लगे, कर लो। क्योंकि कोई भी काम करने जाओ तो लोग पहले रोकते हैं। टोकते हैं। लेकिन जब आप अपनी पसंद का वो काम कर लेते हैं, तो दुनिया भी उसको पसंद करने लगती है। फिर जो दुनिया पहले आपको रोक रही थी, वही आपको उस काम की तारीफ भी करने लगती है। शायद यही वजह रही कि देव आनंद ने वही काम किया, जिसकी उनके दिल ने गवाही दी। फिर वह चाहे धारा के विरुद्ध फिल्में बनाना हो, इंदिरा गांधी की इमरजैंसी का विरोध करना हो, या फिर निजी जिंदगी में भरपूर प्रेम करना। वे हमेशा घनघोर रात के अंघेरे में भी समंदर की लपलपाती लहरों के विरूद्ध चले और उन पर जीत दर्ज करके दुनिया को अपनी जिंदगी का जज्बा दिखाया। इसीलिए कहा जा सकता है कि देव आनंद अकारण नहीं जिए। वे जानते थे, और कहते भी थे कि बहुत सारे लोग पैदा होते हैं, जीते हैं और बहुत सारा काम करके मर जाते हैं। मगर जिंदगी के आखरी मुकाम पर उनके पास गिनने के लिए कुछ नहीं होता। देव आनंद आखरी सांस तक उन कारणों को साथ जीते रहे, जिनका समाज, सिनेमा और इंसान से वास्तविक रिश्ता है। जो लोग जिंदगी को पुरस्कारों में तब्दील करने की ललक नहीं पालते। और सम्मानों में समाहित होने से दूर रहते हैं, जिंदगी भी उनके सामने जरा झुक कर ही चला करती है। देव आनंद इसी तासीर के आदमी थे। उनकी जिंदगी को देखकर साफ कहा जा सकता है कि देव आनंद हमेशा जिंदगी के सामने सर उठाकर जिए और जब तक जिए, जिंदगी उनके सामने जरा झुककर ही चली। बात सही है ना… !