देश में सरदार पटेल की सबसे ऊँची मूर्ति स्थापित करने का निर्णय गुजरात सरकार ने पहले ही कर लिया था । इसके लिये देश के कोने कोने से लोहा भी एकत्रित किया जा चुका है । अब इस प्रकल्प का क्रियान्वयन हो रहा है । सरदार पटेल की १८२ मीटर की इस प्रस्तावित मूर्ति को एकता की प्रतिमा नाम दिया गया है । नर्मदा में एक टापू पर निर्मित की जाने वाली यह प्रतिमा अमेरिका में स्थित मुक्ति-प्रतिमा से आकार में दो गुना होगी । वैसे भी यह प्रतिमा विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा होगी । वैसे तो पिछले साल ३१ अक्तूबर को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब अपना यह संकल्प देश की लोगों के साथ साँझा किया था तो एक ख़ास तबके में खलबली मंच गई थी और मीडिया के एक हिस्से में बहस शुरु करवा दी गई थी । सरदार पटेल की जब भी कोई बात करता है तो तुरन्त कुछ लोगों को लगने लगता है कि शायद यह पंडित जवाहर लाल नेहरु को नीचा दिखाने के लिये किया जा रहा है । उसके बाद दूसरा हल्ला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर मचने लगता है । भाव कुछ इस प्रकार का होता है मानों सरदार पटेल की बात करने के पीछे संघ की योजना है और यह योजना भी नेहरु को नीचा दिखाने के लिये है । सरदार पटेल की प्रतिमा को लेकर भी इस प्रकार की बहस चल रही है । उसके तुरन्त बाद नेहरु के तथाकथित भक्तों की ओर से चिल्ल पों शुरु हो जाती है कि सरदार पटेल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ख़िलाफ़ थे और उन्हीं के मंत्रालय ने तो संघ पर प्रतिबन्ध लगाया था ।
एक बात समझ से परे है । नेहरु के वैचारिक प्रतिष्ठान के प्रति समर्पित लोग , उन के वैचारिक आधार को इतना पिलपिला क्यों मानते हैं कि आज पटेल की मृत्यु के पाँच दशक बाद भी , उसकी छाया से ही वह आधार हिलने लगता है ? क्या नेहरु की कुल उपलब्धियों की नींव व उस पर बना भवन इतना कच्चा है कि पटेल की छाया मात्र से उसके तिरोहित होने का ख़तरा पैदा हो जाता है ? एक बात और ,यदि यह खेमा सचमुच यह मानता है कि सरदार पटेल संघ के सख़्त विरोधी थे तो उनके इस तर्क की क़ीमत कितनी रह जाती है कि पटेल को उभारने का काम संघ कर रहा है ? संघ अपने विरोधी को क्यों उभारेगा ? पटेल और नेहरु में मतभेद बहुत ज़्यादा थे , इसमें कोई शक ही नहीं है । भारत के प्रधानमंत्री का निर्णय कांग्रेस ने सरदार पटेल के पक्ष में ही किया था लेकिन महात्मा गान्धी ने नेहरु के पक्ष में अपनी राय दी । यह भी निर्विवाद है कि नेहरु का महात्मा गान्धी के चिन्तन में रत्ती भर भी विश्वास नहीं था । नेहरु ने इसको कभी छिपाया भी नहीं था । गान्धी के हिन्द स्वराज को नेहरु ने एक पत्र लिख कर स्पष्ट रुप से अप्रासांगिक बता दिया था । यह पत्र भी नेहरु ने गान्धी को ही लिखा था । नेहरु, पटेल और गान्धी की संगति में इतना सहज नहीं रह पाते थे जितना लार्ड माऊंटबेटन और लेडी मांऊंटबेटन की संगति में । उसका कारण उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि तो थी ही , ब्रिटेन की छाया में विकसित हुआ उनका सांस्कृतिक दृष्टिकोण भी था । यह दृष्टि ही पटेल से उनके मतभेदों का कारण थी । यह मतभेद ब्रिटिश आभिजात्य दृष्टि और भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि का था । दरअसल जिस दिन गान्धी की हत्या हुई उस दिन भी पटेल अपना त्यागपत्र देने के लिये ही गान्धी के पास गये थे ।
वास्तव में नेहरु और पटेल की भारत को लेकर दृष्टि अलग थी । नेहरु भारत को उसी दृष्टि से देखते थे जिस दृष्टि से अंग्रेज़ भारत को देखते थे । नेहरु कुलीन वर्ग के व्यक्ति थे । वे ब्रिटिश कुलीन वर्ग के साथ सहज रह पाते थे । अंग्रेज़ भी सांस्कृतिक दृष्टि से भारत को समझने की कोशिश कर रहे थे और नेहरु भी उसी प्रकार भारत को खोजने की कोशिश कर रहे थे । उनकी डिस्कवरी आफ इंडिया उनकी इसी खोज का परिणाम थी । इसके विपरीत गान्धी और पटेल ज़मीन से जुड़े आदमी थे । उनको भारत की खोज करने की जरुरत नहीं थी । भारत उनकी आत्मा में बसा था । अंग्रेज़ों के दो सौ साल के शासन के कारण सांस्कृतिक स्तर पर दो भारत उभर आये थे । एक भारत वह था जो यहाँ का आम आदमी समझ पाता था । दूसरा भारत वह था जिसे अंग्रेज़ों ने बनाया और समझा था । इसके प्रतिनिधि नेहरु और माऊंटबेटन थे । इसमें कोई शक ही नहीं कि अंग्रेज़ों की इच्छा रही होगी कि उनके जाने के बाद भी भारत की बागडोर उसी के हाथों रहे जो भारत को लेकर गढ़ी गई ब्रिटिश अवधारणाओं का मुरीद हो । दूसरे भारत के प्रतिनिधि गान्धी और पटेल थे । यह गुत्थी अभी तक सुलझ नहीं पाई की नेहरु को प्रधानमंत्री बनाने के लिये गान्धी क्यों आमादा थे ? शायद वे नेहरु दृष्टि और पटेल दृष्टि के समन्वय का नया प्रयोग कर रहे हों । हो सकता है गान्धी को यह भी डर हो कि पटेल तो उनकी बात मान जायेंगे लेकिन यदि नेहरु को प्रधानमंत्री न बनाया तो वे कहीं अपनी अलग पार्टी न बना लें , जैसे उनके पिता ने एक बार गान्धी से मतभेदों के चलते कांग्रेस छोड़ कर स्वराज पार्टी बना ली थी ।
कारण चाहे जो भी रहा हो , लेकिन सरदार पटेल जल्दी ही समझ गये थे कि नेहरु जिस रास्ते पर चल रहे हैं वह जल्दी ही भारत को संकट में ही नहीं डालेगा बल्कि भारत की पहचान के लिये भी ख़तरा पैदा कर देगा । इसीलिये पटेल की पहल पर कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो जाना चाहिये ताकि देश की सभी राष्ट्रवादी ताक़तें मिल कर एक सशक्त भारत का निर्माण कर सकें । यदि पटेल संघ विरोधी होते तो यह प्रस्ताव पारित न होता ।
अंग्रेज़ों को शायद यह भी अहसास होने लगा था कि नेहरु का महात्मा गान्धी से भी देश के आर्थिक विकास को लेकर निकट भविष्य में गहरा विवाद हो सकता है । हिन्द स्वराज को लेकर गान्धी और नेहरु के मतभेद प्रकट होने ही लगे थे । पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपया देना चाहिये , इसको लेकर महात्मा गान्धी ने जो मरण व्रत रखा था , उसके लिये गान्धी को उकसाने में लार्ड माऊंटबेटन का भी हाथ था । सारा ताना बाना इतनी ख़ूबसूरती से बुना गया कि पटेल आदि को भिनक न लग सके । माऊंटबेटन अपनी सामान्य बुद्धि से इतना तो जानते ही होंगे कि विभाजन के बाद दिल्ली के उत्तेजित वातावरण में गान्धी को इस प्रकार के काम के लिये उत्साहित करना घातक सिद्ध हो सकता है ? क्या माऊंटबेटन भारत से जाने के पहले नेहरु का रास्ता निरापद करके जाना चाहते थे ?
एक बात और ध्यान में रखनी चाहिये कि महात्मा गान्धी की हत्या का बहाना बना कर नेहरु ने केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ही निपटाने की कोशिश नहीं की बल्कि हत्या की आड़ में सरदार पटेल को भी किनारे करने की कोशिश की गई । उन दिनों की अख़बारों को यदि देखा जाये तो यह फुसफुसाहट भी चालू कर दी गई थी कि हत्या के लिये पटेल भी किसी न किसी रुप में ज़िम्मेदार हैं । पटेल इन आरोपों से काफ़ी व्यथित भी थे । एक तीर से दो शिकार करने की यह पुरानी पद्धति थी । नेहरु के वैचारिक प्रतिष्ठान के स्वयंभू पहरेदार बार बार चिल्लाते हैं कि पटेल ने ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगाया था । वे यह नहीं बताते कि यदि पटेल उस समय संघ पर प्रतिबन्ध लगाने का विरोध करते तो शायद नेहरु के समर्थक गान्धी हत्या के लिये सीधे सीधे पटेल को ही उत्तरदायी ठहराने लगते । जाँच के बाद जब पाया गया कि संघ का गान्धी हत्या से कोई सम्बंध नहीं है तो पटेल ने प्रतिबन्ध उठा भी लिया ।
क्या यह संयोग ही नहीं है कि एक साल पहले गुजरात सरकार ने पटेल की प्रतिमा लगाने की घोषणा की , नेहरु समर्थकों में बेचैनी बढ़ने लगी , बहस शुरु हुई और मामला बढ़ते बढ़ते इतना बढ़ा कि देश में सत्ता परिवर्तन ही हो गया । इस सत्ता परिवर्तन पर सबसे सटीक टिप्पणी भी ब्रिटेन के अग्रणी समाचार पत्र दी गार्जियन ने ही की कि अब जाकर सचमुच अंग्रेज़ भारत से विदा हुये हैं । ” इतना तो सब मानते ही हैं कि अब तक मोटे तौर पर देश की सत्ता वैचारिक दृष्टि से नेहरुवादियों के हाथ में ही रही है । चाहिये तो यह था कि इस टिप्पणी पर खुली बहस होती और चैनलों में यह सुर्खी बनती । लेकिन उससे सब बच रहे हैं । सरदार पटेल की छाया से भी डरे सहमे लोग घूम फिर कर इसी को लेकर मिमियाना शुरु कर देते हैं , पटेल भी संघ विरोधी थे । यदि पटेल संघ विरोधी ही होती तो वे कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के पास बातचीत करने के लिये संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर को न भेजकर किसी कांग्रेसी को भेजते ।