देश में सपनों की कमी नहीं और 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर हर राजनेता सपने बेचने को तैयार है। यहां तक की प्रधानमंत्री की रेस में शामिल कद्दावर राजनेता भी सपनों को बेचने निकले हैं और अपने सपनों को मरने देना नहीं चाहते। नरेन्द्र मोदी का सपना है बंगाल में केसरिया लहराये। मोदी को लगने लगा है कि 2014 में 272 के आंकड़े को छूना है तो फिर बंगाल में इतिहास रचना होगा। 42 सीटों वाले बंगाल में सिर्फ बीजेपी के पास एक सीट है। 2009 में जसंवत सिह गोरखालैंड वाली जमीन से जीते थे। विधानसभा में तो बीजेपी का खाता भी नहीं खुला। तो सवाल पश्चिम बंगाल में सेंध लगाने का नहीं बल्कि कोलकाता में 5 फरवरी को जो भीड मोदी को सुनने आयी, उसे वोट में बदल कर लाल बंगाल को केसरिये में बदलने का ख्वाब मोदी ने पाला है। इसालिये बेखौफ मोदी यह कहने से नहीं चूके कि दिल्ली की सत्ता पर बैठकर भी बंगाल को बदला जा सकता है। यूं बंगाल में कभी केसरिया जमीन बनी ही नहीं तो बीजेपी खड़ी होती कहां।
2011 के विधानसभा चुनाव सभी 294 सीटो पर चुनाव लड़कर भी केसरिया का सच शून्य ही रहा। 2006 में तीन दर्जन सीटो पर बीजेपी ने अपने उम्मीदवारों को खड़ा करने का सपना पाला और वह भी शून्य में सिमट गया। लेकिन अब मोदी है और मोदी ने लालकिले का सपना देखा है। तो फिर बंगाल को अधूरा कैसे छोड़ सकते हैं। वैसे सपना तो मुलायम, नीतिश कुमार, जयललिता और नवीन पटनायक की चौकड़ी ने भी देखा है। किसी ने तीसरे मोर्चे का सपना देखा है तो किसी ने तीसरे मोर्चे के जरिये पीएम बनने का सपना। और इसकी पहली आहट 5 फरवरी को ही संसद में तब दिखायी दी जब 11 राजनीतिक दलों ने हाथ मिलाकर कहा कि चुनाव के लिये जनता को लुभाने वाली मनमोहन सरकार की नीतियों को अब संसद से सड़क पर जाने नहीं देंगे। और यही गांठ 2014 के चुनाव में तीसरे मोर्चे की दस्तक है। तो तीसरे मोर्चे के सपनों पर ध्यान दें तो वामपंथी गठबंदन की अगुवाई करते प्रकाश करात के पास चार दल हैं लेकिन लोकसभा की महज 24 सीट हैं। इसी तरह मुलायम के पास 22, नीतीश कुमार के पास 19, नवीन पटनायक के पास 14, जयललिता के पास 9, बाबूलाल मंराडी के पास 2, देवेगौडा के पास 1 और मंहत के पास भी एक ही सांसद है। यानी इनकी जमीन कितनी पोपली है इसका अंदाजा इसी से लग सकता है हर चेहरे का वजूद उसके अपने राज्य में सिमटा हुआ है और जयलिलता और नवीन पटनायक को छोड दें तो कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो अपने राज्य में ही नंबर एक पर हो। लेकिन सपने हैं तो उड़ान भरी जा रही है। और फिलहाल इनके पास 543 में से महज 92 सीटे हैं।
सपनो की इस सियासत में ममता बनर्जी भी शामिल हो जायें, इसकी कवायद शुरु हो गयी है। यह सपना इसलिये क्योंकि वाम के साथ ममता कैसे खड़ी होंगी, यह भी किसी सपने से कम नहीं। इसके सामानांतर अनूठा सवाल तो यह है कि बंगाल की 42 में से 31 सीट ऐसी है, जहां मोदी के विकास के मंत्र पर गुजरात की प्रयोगशाला भारी पड़ेगी। और देश में इसी चेहरे को विस्तार मिल जाये तो 543 में से 218 सीटो पर गुजरात की प्रयोगशाला मोदी के विकास के मंत्र पर भारी पड़ेगी। लेकिन मोदी 2014 की नब्ज को 272 की तर्ज पर पकडना चाह रहे हैं तो भाषणों में मोदी की मुनादी भी बदलाव की हवा को तेज करने वाली ही होती जा रही है। सपनों की इस सियासत में कांग्रेस भी पीछे रहना नहीं चाहती है तो सपनो की सियासत को और तेज उड़ान खांटी कांग्रेसी जनार्दन दिवेदी ने दे दी है। मनमोहन सरकार ने जिस तरह सरकारी शासन पानी को कैश ट्रांसफर तक के हालात में वोट बैंक के लिये ला खड़ा किया। और विकास की लकीरों के जरीये समाज में असमानता चरम पर पहुंचा दी, उसमें पहली बार कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने आरक्षण का सवाल गरीबी के साथ जोड़कर अपने हाथ को आम आदमी के साथ खड़ा करने का सपना फिर पाला है। तो जो होना चाहिये उसे सपना बनाया जा रहा है या फिर सपनो के घोडे पर सवार होकर सियासी उड़ान भरने की मंशा अब कांग्रेस ने भी पाल ली है। लेकिन संयोग ऐसा है कि नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के सपनो का सच उनकी अपनी बनायी सियासी जमीन पर ही टिकी है। एक ने गुजरात को प्रयोगशाला बनाया तो दूसरे ने देश को। अंतर सिर्फ इतना है कि राहुल गांधी को देश में अपनी बनायी प्रयोगशाला की जमीन पर खडे होकर ही सपने बेचने हैं। लेकिन मोदी को गुजरात से निकलकर हर राज्य में अलह अलग सपने बेचने हैं। बंगाल की जमीन पर नरेन्द्र मोदी के निशाने पर वामपंथी आ जाते है और वामपंथियों के मुद्दे को चुरा कर कांग्रेसी जातीय आधार पर टिके वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है। खुले तौर पर आर्थिक आधार पर आरक्षण का सवाल जनार्दन उठाते हैं और उसके बाद सोनिया गांधी बयान के जरीये साफ करती है कि आरक्षण पर काग्रेस का नजरिया बदला नहीं है, जातीय आधार तो बरकरार रहे लेकिन 2009 के चुनावी मैनिफैस्टो में तो आर्थिक तौर पर कमजोर तबको को आरक्षण देने की बात कांग्रेस ने कही ही थी।
सवाल सिर्फ इतना है कि कांग्रेस को यह सब कहने की जरुरत क्यों पड़ रही है। जबकि बीते 9 बरस 9 महीनो में मनमोहन सरकार ने सिर्फ सपने ही बेचे है। और सपनों को बेचते बेचते आज जब कांग्रेस ढलान पर है तो वह अपने सपनों से देश के सपनों को जोड़ने का सपना देख रही है। लेकिन जातीय आधार पर टिके आरक्षण का सपना भी चूर चूर तो नहीं हो रहा। क्योंकि यूपी में मुलायम और मायावती, बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार ऐसे बडे खिलाड़ी हैं जो आरक्षण के जरिये जातीय विकास के सपने बेचते रहे लेकिन राज्य का विकास सपनो की उडान से ही गुफ्तगू करता रहा। और आरक्षण पाकर भी जातीय समीकरण की राजनीति ने हाशिये पर पड़े तबकों की जिन्दगी ही उडन-छू कर दी। इसलिये एक बार फिर आरक्षण का मंत्र भी बदल कर खुद का टेस्ट कांग्रेस कर रही है। गुजरात को लेकर कांग्रेस की सतही सियासत तो और ही गुल खिला रही है। क्योंकि मोदी देश में घूम घूमकर राहुल गांधी की सियासत को आइना दिखा रहे हैं तो अब राहुल गांधी मोदी की जमीन पर जा कर चुनौती देने का मन बना रहे हैं। 8 फरवरी को गुजरात के बरदोली में राहुल गांधी विकास खोज यात्रा की अगुवाई करेंगे। माना यही जा रहा है कि गुजरात के सीएम देश भर में घूम घूम कर जिस गुजरात मॉडल का बखान कर रहे हैं, उसी मॉडल की हवा निकालने के लिये राहुल गांघी आदिवासी बहुल इलाके बरदोली जा रहे हैं। लेकिन सपनों की सियासत का ताना बाना बुनने वाले कांग्रेसियों के लिये राहुल की गुजरात उढान का राजनीतिक सच कुछ और है।
दरअसल कांग्रेस की राजनीतिक जीत गुजरात में आदिवासी बहुल इलाकों में ही ज्यादा रही है। लेकिन बीते विधानसभा चुनाव में मोदी ने कांग्रेस के वर्चस्व वाले आदिवासी इलाके में भी सेंध लगा दी। 2009 में आदिवासी बहुल 5 सीटो में से कांग्रेस ने 3 सीट जीती थी। 2012 के विधानसभा चुनाव में इन 3 लोकसभा सीट के तहत आने वाली 22 में से 13 सीट मोदी ने जीत ली। असल में मोदी ने आदिवासियो के लिये तीन लोकलुभावन काम कर दिये। पहला हर आदिवासी को घर, दूसरा ,खेती की जमीन पर मालिकाना हक,और तीसरा कल्याण योजना के जरीये आर्थिक मदद। तो असल में राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि अगर 2014 के लोकसभा सीट में काग्रेस आदिवासी बहुल इलाको में भी जीत नहीं पायेगी तो यह कांग्रेस की हार से कही ज्यादा बड़ी मोदी की जीत होगी। क्योंकि सत्ता कभी भी पलटी हो लेकिन कांग्रेस ने कभी आदिवासी बहुल इलाको में सीटे गंवायी नहीं। तो राहुल की राजनीति का नायाब सच एक तीर से दो निशाना साधना है। एक तरफ सीटों को बचाना और दूसरी तरफ सीटों को बचाने के लिये विकास खोजो यात्रा के जरीये मोदी को घेरना। ऐसे में एक सपना दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नायक ने भी देखा है । इस सपने में हर दागी खारिज है और तीसरे मोर्चे की बात हो या मोदी या राहुल की सपना यही देखा गया है कि कोई भी संसद की चारदीवारी को छू भी नहीं पाये। जी, यह सपना देखा है अरविन्द केजरीवाल ने। दिल्ली की सत्ता आम आदमी की सत्ता है और देश की संसद भी आम आदमी की ससंद हो सकती है लेकिन क्या वाकई यह देश इस सपने को उड़ान भरने देगा। या फिर 2014 की हर कवायद सपने में बदलेगी और चुनाव बाद लोकतंत्र का नारा लगाते हुये एक नये तरीके का गठबंधन देश की जनता को ही चिढ़ाकर सत्ता पर काबिज हो जायेगा। और नारा लगेगा। लोकतंत्र जीत गया। या फिर सबसे खतरनाक है सपनो का सौदा करना।