सत्ता से दो दो हाथ करते करते मीडिया कैसे सत्ता के साथ खडा हो गया

अमेरिका में रुपर्ट मर्डोक प्रधानमंत्री मोदी से मिले तो मड्रोक ने मोदी को आजादी के बाद से भारत का सबसे शानदार पीएम करार दे दिया। मड्रोक अब अमेरिकी राजनीति को भी प्रभावित कर रहे है। ओबामा पर अश्वेत प्रेसीडेंट न मानने के मड्रोक के बयान पर बवाल मचा ही हुआ है। अमेरिका में अपने न्यूज़ चैनल को चलाने के लिये मड्रोक आस्ट्रेलियाई नागरिकता छोड़ अमेरिकी नागरिक बन चुके है, तो क्या मीडिया टाइकून इस भूमिका में आ चुके हैं कि वह सीधे सरकार और सियासत को प्रभावित कर सके या कहे राजनीतिक तौर पर सक्रिय ना होते हुये भी राजनीतिक खिलाडियों के लिये काम कर सके। अगर ऐसा हो चला है तो यकीन मानिये अब भारत में भी सत्ता-मीडिया का नैक्सेस पेड न्यूज़ से कही आगे निकल चुका है। जहाँ अब सत्ता के लिये खबरों को नये सिरे से बुनने का है या कहे सत्तानुकुल हालात बने रहे इसके लिये दर्शको के सामने ऐसे हालात बनाने का है जिस देखते वक्त दर्शक महसूस करें कि अगर सत्ता के विरोध की खबर है तो खबर दिखाने वाला देश के साथ गद्दारी कर रहा है। यानी पहली बार मीडिया या पत्रकारिता की इस धारणा को ही मीडिया हाउस जड़-मूल से खत्म करने की राह पर निकल पडे हैं कि पत्रकारिता का मतलब यह कतई नहीं है कि चुनी हुई सरकार के कामकाज पर निगरानी रखी जाये। यानी सत्ता को जनता ने पांच साल के लिये चुना है तो पाँच बरस के दौर में सत्ता जो करे जैसा करे वह देश हित में ही होगा। जाहिर है यह बेहद महीन लकीर है है जहाँ मीडिया का सत्ता के साथ गठजोड़ मीडिया को भी राजनीतिक तौर खड़ा कर दें और सत्ता भी मीडिया को अपना कैडर मान कर बर्ताव करें। यह घालमेल व्यवसायिक तौर पर भी लाभदायक साबित हो जाता है। यानी सत्ता के साथ खड़े होने की पत्रकारिता इसका एहसास होने ही नहीं देती है कि सत्ता कोई लाभ मीडिया हाउस को दे रही है या मीडिया सत्ता की राजनीति का प्यादा बनकर पत्रकारिता कर रही है। इसके कई उदाहरणों को पहले समझें। बिहार चुनाव में किसी भी अखबार या न्यूज चैनल की हेडलाइन नीतिश कुमार को पहले अहमियत देती है। उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी का नंबर आयेगा और फिर लालू प्रसाद यादव का। यानी कोई भी खबर जिसमें नीतिश कह रहे होगें या नीतिश को निशाने पर लिया जा रहा होगा वह खबर नंबर एक हो जायेगी। इसी तर्ज पर मोदी जो कह रहे होगें या मोदी निशाने पर होगें उसका नंबर दो होगा। कोई भी कह सकता है कि जब टक्कर इन्हीं दो नेताओं के बीच है, तो खबर भी इन्ही दो नेताओं को लेकर होगी। तो सवाल है कि जब सुशील मोदी कहते है कि सत्ता में आये तो गो-वध पर पांबदी होगी। तो उस खबर को ना तो कोई पत्रकार परखेगा और ना ही अखबार में उसे प्रमुखता के साथ जगह मिलेगी। लेकिन जब नीतिश इसके जबाब में कहगें कि बिहार में तो साठ बरस से गो-वध पर पाबंदी है तो पत्रकार के लिये वह बड़ी खबर होगी। इसी तर्ज पर केन्द्र का कोई भी मंत्री बिहार चुनाव के वक्त आकर कोई भी बडे से बडा नीतिगत फैसले की जानकारी चुनावी रैली या प्रेस कान्फ्रेस में दे दें। उसको अखबार में जगह नहीं मिलेगी। ना ही प्रधानमंत्री मोदी के किसी बडे फैसले की जानकारी देने को अखबार या न्यूज चैनल दिखायेगें। यानी पीएम मोदी के बयान में जब तक नीतिश –लालू को निशाने पर लेने का मुलम्मा ना चढा हो, वह खबर बन ही नहीं सकती। यानी खबरों का आधार नेता या कहे सियासी चेहरो को उस दौर में बना दिया गया जब सबसे ज्यादा जरुरत ग्राउंड रिपोर्टिंग की है और उसके बाद चेहरों की प्राथमिकता सत्ता के साथ गढजोड़ के जरीये कुछ इस तरह से पाठकों में या कहें दर्शकों में बनाते हुये उभर कर आयी, जिससे ग्राउंड रिपोर्टिंग या आम जनता से जुड़े सरकारी फैसलों को परखने की जरुरत ही ना पड़े। उसकी एवज में सरकार के किसी भी फैसले को सकारात्मक तौर पर तमाम आयामों के साथ इस तरह रखा जाये जिससे पत्रकारिता सूचना संसार में खो जाये। मसलन झारखंड विश्व बैंक की फेरहिस्त में नंबर 29 से खिसक कर नंबर तीन पर आ गया। इसकी जानकारी प्रधानमंत्री मोदी बांका की अपनी चुनावी रैली में यह कहते हुये देते है कि नीतिश बिहार को 27 वें नंबर से आगे ना बढा पाये, तो खबरों के लिहाज से नीतिश पर हमले या उनकी नाकामी या झारखंड में बीजेपी की सत्ता आने के बाद उसके उपलब्धि से आगे कोई पत्रकारिता जायेगी ही नहीं। यानी झारखंड में कैसे सिर्फ खनन का लाइसेंस नये तरीके से सत्ता के करीबियो को बांटा गया और खनन प्रक्रिया का लाभ झरखंड की जनता को कम उघोगपतियों को ज्यादा हो रहा है। इसपर कोई रिपोर्टिंग नहीं और वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट झारखंड के लोगो की बदहाली या इन्फ्रास्ट्रक्चर की दिशा में सबकुछ कैसे ठप पडा है या फिर रोजगार के साधन और ज्यादा सिमट गये हैं, इस पर केन्द्रित होता ही नहीं है। तो नयी मुशकिल यह नहीं है कि कोई पत्रकार इन आधारों को टटोलने क्यों नहीं निकलता। मुश्किल यह है कि जो प्रधानमंत्री कह दें या बिहार में जो नीतिश कह दें उसके आगे कोई लकीर इस दौर में पत्रकारिता खिंचती नहीं है या पत्रकारिता के नये तौर तरीके ऐसे बना दिये गये है जिससे सत्ता के दिये बयान या दावो को ही आखरी सच करार दे दिया जाये।

 

अब यह सवाल उठ सकता है कि आखिर ऐसे हालात पेड मीडिया के आगे कैसे है और इस नये हालात के मायने है क्या? असल में मीडिया के सरोकार जनता से हटते हुये कैसे सत्ता से ज्यादा बनते चले गये और सत्ता किस तरह मीडिया पर निर्भर होते हुये मीडिया के तौर तरीकों को ही बदलने में सफल हो गया। समझना यह भी जरुरी है। मौजूदा वक्त में मीडिया हाउस में कारपोरेट की रुची क्या सिर्फ इसलिये है कि मीडिया से मुनाफा बनाया कमाया जा सकता है? या फिर मीडिया को दूसरे धंधो के लिये ढाल बनाया जा सकता है, तो पहला सच तो यही है कि मीडिया कभी अपने आप में बहुत लाभ कमाने का धंधा रहा ही नहीं है। यानी मीडिया के जरीये सत्ता से सौदेबाजी करते हुये दूसरे धंधो से लाभ कमाने के हालात देखे जा सकते है। लेकिन मौजूदा हालात जिस तेजी से बदले है या कहे बदल रहे है उसमें मीडिया की मौजूदगी अपनी आप में सत्ता होना हो चला है और उसकी सबसे बडी वजह है, बाजार का विस्तार। उपभोक्ताओं की बढती तादाद और देश को देखने समझने का नजरिया। तमाम टेक्नॉलाजी या कहें सूचना क्रांति के बाद कहीं ज्यादा तेजी से शहर और गांव में संवाद खत्म हुआ है। भारत जैसे देश में आदिवासियों का एक बडा क्षेत्र और जनसंख्या से कोई संवाद देश की मुख्यधारा का है ही नहीं है। इतना ही नहीं दुनिया में आवाजाही का विस्तार जरुर हुआ लेकिन संवाद बनाना कहीं ज्यादा तेजी से सिकुड़ा है, क्योंकि सुविधाओ को जुगाडना, या जीने की वस्तुओं को पाने के तरीके या फिर जिन्दगी जीने के लिये जो मागदौल बाजारनुकुल है उसमें सबसे बडी भूमिका टेक्नोलॉजी या मीडिया की ही हो चली है। यानी कल तो हर वस्तु के साथ जो संबंध मनुष्य का बना हुआ था वह घटते-घटते मानव संसाधन को हाशिये पर ले आया है। यानी कोई संवाद किसी से बनाये बगैर सिर्फ टेक्नालॉजी के जरीये आपके घर तक पहुँच सकती है। चाहे सब्जी फल हो या टीवी-फ्रिज या फिर किताब खरीदना हो या कम्यूटर। रेलवे और हवाई जहाज के टिकट के लिये भी अब उफभोक्ताओं को किसी व्यक्ति के संपर्क में आने की कोई जरुरत है ही नहीं। सारे काम, सारी सुविधा की वस्तु, या जीने की जरुरत के सामान मोबाइल–कम्यूटर के जरीये अगर आपके घर तक पहुंच सकते है तो उपभोक्ता समाज के लिये मीडिया की जरुरत सामाजिक संकट, मानवीय मूल्यो से रुबरु होना या देश के हालात है क्या या किसी भी धटना विशेष को लेकर जानकारी तलब करना क्यों जरुरी होगा? खासकर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में जहाँ उपभोक्ताओं की तादाद किसी भी यूरोप के देश से ज्यादा हो और दो जून के लिये संघर्ष करते लोगो की तादाद भी इतनी ज़्यादा हो कि यूरोप के कई देश उसमें समा जाये, तो पहला सवाल यही है कि समाज के भी की असमानता और ज्यादा बढे सके। इसके लिए मीडिया काम करेगा या दूरिया पाटने की दिशा में रिपोर्ट दिखायेगा। जाहिर है मीडिया भी पूंजी से विकसित होता माध्यम ही जब बना दिया गया है और असमानता की सबसे बडी वजह पूंजी कमाने के असमान तरीके ही सत्ता की नीतियों के जरीये विस्तार पा रहे हो तो रास्ता जायेगा किधर। लेकिन यह तर्क सतही है। असल सच यह है कि धीरे-धीरे मीडिया को भी उत्पाद में तब्दील किया गया। फिर मीडिया को भी एहसास कराया गया कि उत्पाद के लिये उपभोक्ता चाहिये। फिर उपभोक्ता को मीडिया के जरीये ही यह सियासी समझ दी गई कि विकास की जो रेखा राज्य सत्ता खिंचे वही आखरी सच है। ध्यान दें तो 1991 के बाद आर्थिक सुधार के तीन स्तर देश ने देखे। नरसिंह राव के दौर में सरकारी मीडिया के सामानांतर सरकारी मंच पर निजी मीडिया हाउस को जगह मिली। उसके बाद वाजपेयी के दौर में निजीकरण का विस्तार हुआ। यानी सरकारी कोटा या सब्सीडी भी खत्म हुई । सरकारी उपक्रम तक की उपयोगिता पर सवालिया निशान लगे। मनमोहन सिंह के दौर में बाजार को पूंजी के लिये पूरी तरह खोल दिया गया। यानी पूंजी ही बाजार का मानक बन गई और मोदी के दौर में पहली बार उस भारत को मुख्यधारा में लाने के लिये पूंजी और बाजार की खोज शुरु हुई जिस भारत को सरकारी पैकेज तले बीते ढाई दशक से हाशिये पर रखा गया था। पहली बार खुले तौर पर यह मान लिया गया कि 80 करोड भारतीयों को तभी कुछ दिया जा सकता है जब बाकी तीस करोड़ उपभोक्ताओं के लिये एक सुंदर और विकसित भारत बनाया जा सके। लेकिन इस सोच में यह कोई समझ नहीं पाया कि जब पूंजी ही विकास का रास्ता तय करेगी तो सत्ता कोई भी हो वह पूंजी पर ही निर्भर होगी और वह पूंजी कही से भी आये और सत्ता के पूंजी पर निर्भर होने का मतलब है वह तमाम आधार भी उसी पूंजी के मातहत खुद को ज्यादा सुरक्षित और मजबूत पायेगें जो चुनी हुई सत्ता के हाथ में नहीं बल्कि पूंजी के जरीये बाजार से मुनाफा बनाने के लिये देश की सीमा नहीं बल्कि सीमाहीन बाजार का खुलापन तलाशेगें। ध्यान दें तो मीडिया हाउसों की साख खबरों से इतर टर्न ओवर पर टिकी है। सेल्स या मार्केटिंग टीम न्यूज रुम पर भारी पडने लगी, तो संपादक भी मैनेजर से होते हुये पूंजी बनाने और जुगाड कराने से आगे निकलते हुये सत्ता से वसूली करते हुये खुद में ही सत्ता बनने के दरवाजे पर टिका। प्रोपराइटर का संपादक हो जाना। समाचार पत्र या न्यूज चैनल के लिये पूंजी का जुगाड करने वाले का संपादक हो जाना। यह सब 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले चलता रहा। लेकिन जिस तर्ज पर 2014 के लोकसभा चुनाव ने सत्ता के बहुआयामी व्यापार को खुल कर सामने रख दिया उसमें खबरो की दुनिया से जुडे पत्रकारो और मालिको को सामने पहली बार यह विकल्प उभरा कि वह सरकार की नीतियो को उसके जरीये बनाये जाने वाली व्यवस्था के साथ कैसे हो सकते है और राज्य के हालात खुद ब खुद उसे मदद दे देगा या फिर उसे खत्म कर देगा। यानी साथ खड़े हैं तो ठीक नहीं तो दुश्मन। यह हालात इसलिये पेड न्यूज से आगे आकर खडे हो गये क्योंकि चाहे अनचाहे अब राज्य को अपने मीडिया बजट का बंदर बाँट अपने साथ खड़े मीडिया हाउस में बाँटने के नहीं थे। बल्कि सत्ता की अकूत ताकत ने खबरों को परोसने के सलीके में भी सत्ता की खुशबू बिखरनी शुरु कर दी। सामाजिक तौर पर सत्ता मीडिया के साथ कैसे खड़ी होगी यह मीडिया के सत्ता के लिये काम करने के मिजाज पर आ टिका। दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी उन्हीं पत्रकारो के साथ डिनर करेगें जो उनकी चापलूसी में माहिर होगा और पटना में नीतिश कुमार उन्ही पत्रकारो को आगे बढाने में सहयोग देगें जो उनके गुणगाण करने से हिचकेगा नहीं। इसलिये कोई पत्रकार दिल्ली में मोदी हो गया तो कोई पत्रकार पटना में नीतिश कुमार और जो-जो पत्रकार सत्ता से खुले तौर पर जुडा नजर आया उसे लगा कि वह खुद में सत्ता है। यानी सबसे ताकतवर है। असर में बिहार चुनाव इस मायने में भी महत्वपूर्ण हो चला है कि पहली बार नायको की खोज से चुनाव जा जुडा है। यानी 1989 में लालू यादव मंडल के नायक बने तो 2010 में नीतिश सुशासन के नायक बने और 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी देश के विकास नायक बन कर उभरे। ध्यान दें तो इसके अलावे सिर्फ दिल्ली के चुनाव ने केजरीवाल के तौर पर नायक की छवि गढी। लेकिन केजरीवाल का नायककत्व पारंपरिक राजनीतिक को बदलने के लिये था ना कि नायक बन कर उसमें ढलने के लिये। लेकिन 2015 के आखिर में बिहार चुनाव की जीत हार में तय यही होना है कि विदेशी पूंजी और खुले बाजार व्यवस्था के जरीये भारत को बदलने वाला नायक चाहिये या फिर जातिय गठबंधन के आसरे सामाजिक न्याय की सोच को आगे बढाने वाला नायक चाहिये। जाहिर है बिहार जिस रास्ते पर जायेगा उसका असर देश की राजनीति पर पडेगा, क्योंकि चुनाव के केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की नायक छवि है और दूसरी तरफ चकाचौंध नायकत्व को चुनौती देने वाले नीतिश – लालू है। यानी यही हालात यूपी में भी टकरायेगें। अगर बिहार लालू नीतिश का रास्ता चुनता है तो यकीन मानिये मुलायम-मायावती भी दुश्मनी छोड गद्दी के लिये साथ आ खडे होगें ही। यानी 2 जून 1995 का गेस्ट हाउस कांड एक याद भर रह जायेगा और इससे पहले जो थ्योरी गठबंधन के फार्मूले में फेल होती रही वह फार्मूला चल पडेगा। यानी दो बराबर की पार्टियों में गठबंधन। जाहिर है राजनीतिक बदलाव का असर मीडिया पर भी पडेगा। क्योंकि सत्ता के साथ वैचारिक तौर पर खड़े होकर पूंजी या मुनाफा बनाने से आगे खुद को सत्ता मानने की सोच को मान्यता मिले या सत्ता के सामाजिक सरोकार का ताना-बाना बुनते हुये कारपोरेट या पूंजी की सत्ता को ही चुनौती देनी वाली पत्रकारिता रहे। फैसला इसका भी होना है, लेकिन दोनो हालात छोटे घेरे में मीडिया को वैसे ही बड़ा कर रहे है जैसे अमेरिका में मड्रोक सत्ता को प्रभावित करने की स्थिति में है वैसे ही भारत में सत्ता के लिये मीडिया सबसे असरकारक हथियार बन चुका है। फर्क इतना ही है कि वहा पूंजी तय कर रही है और भारत में सत्ता की ताकत।