संघ परिवार में जाग रहा है सावरकर का हिन्दुत्व

सरसंघचालक का काम हिन्दू संगठन को मजबूत करना है लेकिन वह धर्म की लड़ाई में जा फंसे। प्रधानमंत्री मोदी समृद्ध भारत के लिये काम करना है लेकिन वह चुनावी जीत के लिये प्रांत-दर-प्रांत भटक रहे हैं। और अमित शाह को राजनीतिक तौर पर हेडगेवार के हिन्दुत्व को रखना है लेकिन वह सावरकर की लाइन पकड़े हुये हैं। तो बड़ा सवाल है कि इन्हे समझायेगा कौन और गलती कर कौन रहा है यह बतायेगा कौन । यह तीनों सवाल इसलिये क्योंकि सरसंघचालक को ही प्रधानमंत्री मोदी को समझाना था कि उन्हे भारत के लिये जनादेश मिला है। यानी मोदी को तो गोलवरकर की लीक एकचालक अनुवर्तिता की लाइन पर ही चलना है। राज्यों का काम तो संगठन के लोग करेंगे। लेकिन मोदी निकल पड़े इंदिरा गांधी बनने तो रास्ता डगमडाने लगा। और सरसंघचालक दशहरा की हर रैली में ही जब मोदी को देश-दुनिया का नायक ठहराने लगे तो उसके आगे कहे कौन। तो अगला सवाल सरसंघचालक मोहन भागवत का है जिनका काम हिन्दू समाज को संगठित करना ही रहा है लेकिन मौजूदा वक्त में वह खुद जगत गुरु की भूमिका में आ गये और राजनीतिक तौर पर भी त्रिकालवादी सत्य यह कहकर बोलने लगे कि जब आंबेडकर ने भी आरक्षण की उम्र 10 बरस के लिये रखी तो उसे दोहराने में गलत क्या। वही इस लकीर को धर्म के आसरे भी खिंचा गया। यानी जिस संघ की पहचान हेडगेवार के दौर से ही समाज के हर क्षेत्र में भागीदारी के साथ हिन्दू समाज को बनाने की सोच विकसित हुई। और यह कहकर हुई कि हिन्दुत्व धर्म नहीं बल्कि जिन्दगी जीने का तरीका है।

 

तो वहीं संघ हिन्दुत्व के भीतर धर्म के उस दायरे में जा फंसा, जहां सावरकरवाद की शुरुआत होती है। सावरकर ने 1923 में अपनी पुस्तक हिन्दुत्व में साफ लिखा कि मुसलमान, ईसाई, यहूदी यानी दूसरे धर्म के लोग हिन्दू नहीं हो सकते। लेकिन 1925 में हेडगेवार ने हिन्दुत्व की इस परिभाषा को खारिज किया और हिन्दुत्व को धर्म से नहीं जोड़कर वे आफ लाइफ यानी जीने के तरीके से जोड़ा। लेकिन इसी दौर में संघ और बीजेपी के भीतर से हिन्दुत्व को लेकर जो सवाल उठे या उठ रहे हैं, वह संघ की सोच के उलट और सावरकरवाद के कितने नजदीक है, यह कई आधारों से समझा जा सकता है। मसलन योगी आदित्यनाथ, साक्षी महराज या फिर साध्वी प्राची का बोलना सिर्फ हिन्दुत्व को धर्म के आईने में समेटना भर नहीं है बल्कि सावरकर यानी हिन्दू महासभा की ही धर्म की लकीर को मौजूदा संघ परिवार और बीजेपी से जोड़ देना है। इस बारीकी को संघ परिवार के दिग्गज स्वयंसेवक भी जब नहीं समझ पा रहे है तो बीजेपी या स्वयंसेवक सियासतदान कैसे समझेंगे यह भी सवाल है। क्योंकि भैयाजी जोशी भी शिरडी के साई बाबा भगवान है या नहीं यह कहने के लिये कूद पड़ते हैं। और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से जब उनके करीबी ही यह सवाल करते है कि साक्षी महराज या योगी आदित्यनाथ जिस तरह के बयान देते है तो उनपर रोक लगनी चाहिये तो बीजेपी अध्यक्ष यह कहने से तो नहीं कतराते कि उन्हें यह बयान नहीं देने चाहिये । लेकिन फिर इस टिप्पणी से भी नहीं बच पाते कि उन्होने गलत क्या कहा है। तो क्या बीजेपी अध्यक्ष भी सावरकरवादी है। यह सारे सवाल इसलिये क्योकि झटके में संघ सरकार और बीजेपी के भीतर ही कमान संभाले स्वयंसेवक संगठन संभालने के बदले विद्दान बनने की होड़ में है। यानी उस धारा को पकड़ना चाह रहे हैं, जहां विद्वानों की तर्ज पर ही मत विभाजन हो । असर इसका भी है कि जनादेश से चुनी गई देश की सत्ता को लेकर ही विद्वानों में मत विभाजन के हालात बनने लगे हैं। जाहिर है ऐसे में बिहार चुनाव में हार का सिरा पकड़े कौन और पूंछ छोडे कौन इसलिये मंथन दिलचस्प है। क्योंकि उठते सवाल-जवाब हर अनकही कहानी को कह रहे हैं।

 

मसलन चुनाव बीजेपी ने लडा लेकिन हार के लिये संघ जिम्मेदार है। पांच सितारा होटल से लेकर उडानखटोले में ही बीजेपी का चुनाव प्रचार सिमटा। लेकिन संघ के एजेंडे ने ही बंटाधार कर दिया । टिकट बांटने से लेकर सबकुछ लुटाते हुये सत्ता की व्यूह रचना बीजेपी ने की। लेकिन हिन्दुत्व का नाम लेकर संघ के चहेतों ने जीत की बिसात उलट दी । कुछ ऐसी ही सोच संघ के साथ बैठकों के दौर में बीजेपी के वही कद्दावर रख रहे है और संघ को समझा रहे हैं कि बिहार की जमीन राजनीतिक तौर पर बहुत ही उर्वर है उसमें हाथ बीजेपी के इसलिये जले क्योकि संघ की सक्रियता को ही मुद्दा बना दिया गया । बिसात ऐसी बिछायी जा रही है जहा बिहार के सांसद हुक्मदेवनारायण यादव सरसंघचालक पर आरक्षण बयान को लेकर निशाना साधे और कभी ठेगडी के साथ स्वदेशी जागरण मंच संबालने वाले मुरलीधर राव बडबोल सांसदों को पार्टी से ही निकालने की बात कह दें। यानी पहली लकीर यही खिंच रही है कि जो दिल्ली से बिहार की बिसात सियासी ताकत, पैसे की ताकत , जोडतोड और सोशल इंजीनियरिंग का मंडल चेहरा लेकर जीत के लिये निकले उन्ही की हार हो गई तो ठिकरा संघ के मत्थे मढ़कर अपनी सत्ता बरकरार रखी जाये। और संघ की मुश्किल है कि आखिर बीजेपी है तो उन्ही का राजनीतिक संगठन। उसमें सत्तानशीं तो स्वयंसेवक ही है। तो सत्ता पलटकर नये स्वयंसेवकों को कमान दे दी जाये या फिर सत्ता संभाले स्वयंसेवकों का ही शुद्दीकरण किया जाये। और सत्तानशीं स्वयसेवकों को लगने लगा है कि शुरद्दीकरण का मतलब खुदे को झुकाना नहीं बल्कि खुद के अनुकूल हालात को बनाना है। यानी बिहार की बीजेपी यूनिट बदल दी जाये जो आडवाणी युग से चली आ रही थी। उन बडबोले सांसदों और समझदार नेताओं को खामोश कर दिया जाये जो सच का बखान खुले तौर पर करने लगे है। और संघ परिवार को भी समझाया जाये कि स्वयंसेवक की राजनीति का पाठ संघ से नहीं सत्ता से निकलता है। तो कल तक स्वदेशी की बात करने वाले मुरलीधर राव अब सांसद शत्रुघ्न और आर के सिंह को निकालने का खुला जिक्र करने लगे हैं। कल तक संघ के देसीकरण का जिक्र करने वाले राम माधव अब सत्ता की तिकडमो के अनुकूल खुद को बनाने में जुटे हैं।

 

यानी एक तरफ बीजेपी के भीतर सत्ता बचाने की महीन राजनीति है जो स्वयंसेवकों को ही ढाल बनाकर समझदारों पर वार कर रही है तो दूसरी तरफ सत्ता के खिलाफ खुलेआम विरोध के स्वर जो पार्टी बचाने के लिये राजनीति का ककहरा कहना चाह रहे हैं जिसे संघ के मुखिया समझ नहीं पा रहे हैं। क्योंकि उनके लिये बिहार की हार विचारधारा की हार है और बीजेपी के सत्तानशीं बिहार को सिर्फ एक राज्य की हार के तौर पर ही देखना-दिखाना चाहते है। तो सवाल है होगा क्या । और कुछ नहीं होगा तो वजहे क्या बतायी जायेंगी। त्रासदी यह नहीं है कि शत्रुघ्न को कुत्ता ठहरा दिया गया। या फिर आर के सिंह, अरुण शौरी या चंदन मित्रा को आने वाले वक्त में क्या कहा जायेगा या इनका क्या किया जायेगा। सवाल है कि जो सवाल बीजेपी अध्यक्ष को लेकर उठाया गया है उसे संघ परिवार के भीतर देखा कैसे जा रहा है और परखा कैसे जा रहा है। यानी अमित शाह को दोबारा अधयक्ष अगर ना बनाया जाये। यानी दिसंबर के बाद उनका बोरिया बिस्तर अधयक्ष पद से बंध जाये तो सवाल उठ रहे है कि अमितशाह को हटाया गया तो उन्हे रखा कहां जाये। यह सवाल संघ परिवार ही नहीं बीजेपी और मोदी सरकार के भीतर भी यक्ष प्रशण से कम नहीं है । क्योकि अमित शाह सरकार और बीजेपी में नंबर दो है । जैसे नरेन्द्र मोदी सरकार और बीजेपी में भी नंबर एक है । और नंबर एक दो के बीच का तालमेल इतना गहरा है कि कि इसका तीसरा कोण किसी नेता से नहीं बल्कि गुजरात से जुडता है । यानी केन्द्र सरकार, बीजेपी और गुजरात का त्रिकोण संघ परिवार तक के लिये सत्ता का कटघरा बन चुका है । संघ के भीतर यह सवाल है कि सरकार और पार्टी दोनों गुजरातियों के हाथ में नहीं होनी चाहिये । किसी ब्राहमण को नया अधयक्ष बनना चाहिये। उत्तर भारत के सामाजिक-राजनीतिक सरोकार वाले शख्स को अध्यक्ष बनना चाहिये। तो पहले सवाल का जबाब ही किसी को नहीं मिल पा रहा है। क्योंकि अमित शाह को गुजरात सीएम बनाकर भेजा नहीं जा सकता । क्योंकि वहां पटेल आंदोलन चल रहा है और आनंदी बेन पटेल को हटाने का मतलब है आंदोलन की आग में घी डालना। अमित शाह को सरकार में लेकर पार्टी किसी तीसरे के भरोसे नरेन्द्र मोदी छोड़ना नहीं चाहेंगे। और नरेन्द्र मोदी को नाराज सरसंघचालक करना नहीं चाहेंगे। तो फिर वही सवाल कि होगा क्या। पांचजन्य के संपादक हितेश शंकर की आलोचना की जा सकती है। भगवाधारी सांसदों और नेताओ के बयानो की आलोचना हो सकती है । संघ, सरकार और बीजेपी में तालमेल नहीं है यह सवाल उठाया जा सकता है । लेकिन अगर यह मान लिया जाये कि आखिरकार संघ ही रास्ता दिखाता है तो मानना पडेगा पहली बार संघ ही भटका है।