अमेरिका पर हुए 9/11 के आतंकी हमले के बाद हालांकि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश द्वितीय ने पूरे विश्व से आतंकवाद का स$फाया करने का संकल्प लेते हुए वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की थी। अमेरिका व उसके सहयोगी देशों की आतंकवाद विरोधी कार्रवाई में हालांकि लाखों बेगुनाह लोग मारे गए और अमेरिका व उसके साथ आतंक विरोधी आप्रेशन में सक्रिय विभिन्न देशों की सेना के हज़ारों जवान भी मारे गए। परंतु इसका परिणाम निश्चित रूप से वह नहीं निकला जिसकी अमेरिका ने उ मीद की थी। बजाए इसके न केवल वैश्विक आतंकवादी घटनाओं में बेतहाशा इज़ा$फा हुआ बल्कि तालिबान,बोको हराम,अल शबाब और अल$कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों को कहीं पीछे छोड़ते हुए नए मुखौटे के साथ एक और आतंकी संगठन ने अपना सिर बुलंद किया जिसे आज दुनिया आतंक के सबसे बड़े पर्याय के रूप में देख रही है। इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया अर्थात् आईएसआईएस नामक इस संगठन के वजूद में आने का इतिहास हालांकि सीरिया के शासक बशर-अल-असद को विद्रोह द्वारा सत्ता से हटाए जाने की कोशिशों और इरा$क में सद्दाम हुसैन के अपदस्थ होने के बाद सद्दाम हुसैन की सेना के बेरोज़गार हो चुके हज़ारों सुन्नी सैनिकों से जुड़ा हुआ है। परंतु जिस प्रकार आईएसआईएस ने अपने गठन के शुरुआती दौर से लेकर अब तक आतंकवाद फैलाने के अपने निशाने निर्धारित किए हैं तथा उनके पहनावे,उनके विचार तथा उनकी भविष्य की योजनाओं व आकांक्षाओं से प्रतीत होता है कि वे एक कट्टरपंथी एवं साम्राज्यवादी तथाकथित इस्लामी विचारधारा के पैरोकार हैं। और अपनी इस साम्राज्यवादी सोच को पूरी दुनिया पर थोपने के लिए यह उसी प्रकार के आतंक का सहारा ले रहे हैं जैसेकि करबला के मैदान में यज़ीद से लेकर छठी शताब्दी के कई आक्रमणकारी शासकों द्वारा सत्ता के विस्तार के उद्देश्य से दहशत फैला कर लिया गया था।
इस्लाम धर्म जिसके प्रवर्तक इस्लाम के आखिरी पैगंबर हज़रत मोह मद थे उन्होंने व उनके परिवार के सदस्यों ने इस्लाम का जो स्वरूप संसार के समक्ष पेश करने की कोशिश की तथा अल्लाह के जिस हुक्म को उन्होंने आम लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया उसमें हिंसा,न$फरत,अन्याय,अत्याचार, बदसुलूकी आदि की कोई गुंजाईश नहीं थी। बजाए इसके यह धर्म अपने प्रारंभिक काल में केवल इसलिए तेज़ी के साथ पूरी दुनिया में फैला क्योंकि इसमें समानता,भाईचारा, सौहाद्र्र,अहिंसा, प्रेम तथा एक-दूसरे के प्रति मान-स मान की भावनाओं का समावेश था। करबला में जिस समय आईएसआईएस के ही पूर्वजों ने यज़ीद के रूप में इस्लाम पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहा था उस समय हज़रत मोह मद के परिवार के सदस्य होने के नाते उनके नाती अर्थात् हज़रत अली के पुत्र हज़रत इमाम हुसैन ने इस्लाम धर्म पर स्वामित्व हासिल करने की यज़ीद की कोशिशों पर पानी फेरते हुए ज़ुल्म और अत्याचार के विरुद्ध जेहाद किया था। उसी वक्त़ यह स्पष्ट हो गया था कि इस्लाम दरअसल वह नहीं जिसे यज़ीद जैसा अत्याचारी व दुष्चरित्र व्यक्ति प्रचारित करना चाह रहा है बल्कि इस्लाम वह है जो हज़रत इमाम हुसैन द्वारा असत्य के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए अपनी व अपने परिवार के लोगों की $कुर्बानी दे कर करबला के मैदान में जिसे बचाया जा रहा है। इस्लाम धर्म से ही निकली हुई सूफी व फकीरी की परंपरा भी इस्लाम की यज़ीदी िफक्र का पुरज़ोर विरोध करती है और यह परंपरा भी अपने पीर–मुर्शिद के माध्यम से अल्ल्लाह तक पहुंचने का मार्ग बताती है। इस परंपरा में भी ज़ुल्म,जब्र,अहिंसा तथा आक्रामकता की कोई गुंजाईश नहीं है। सू$फी परंपरा के मुसलामन प्राय: सुन्नी मुसलमान के रूप में जाने जाते हैं। यह सोच भी साम्राज्यवादी सोच से बिल्कुल दूर रहती है।
आतंकवादी संगठन आईएसआईएस द्वारा समान रूप से शियाओं व सुन्नियों की आस्था का केंद्र समझे जाने वाले हज़ारों धर्मस्थलों को अब तक तहस-नहस किया जा चुका है। इनके द्वारा तमाम ऐसी वारदातें अंजाम दी जा रही हैं जो इंसानी करतूतें कहे जाने योग्य भी नहीं हैं। परंतु पूरी दुनिया इनकी वहशियाना कारगुज़ारियों को इस्लामी आतंकवाद के नाम से पुकार रही है। $खासतौर पर विश्व की वह ता$कतें जो इस्लाम को बदनाम करना चाहती हैं वे आईएसआईएस को नियंत्रित करने के बजाए किसी न किसी रूप में उसके समर्थन में भी खड़ी दिखाई दे रही हैं। यदि रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की बात मानें तो दुनिया के 40 देश और उनके सरबराह आईएसआईएस के साथ या तो हमदर्दी रखते हैं या उस आतंकवादी संगठन को अपना सहयोग व समर्थन दे रहे हैं। यदि हम इस परिपेक्ष्य में सऊदी अरब द्वारा उठाए जाने वाले कदमों पर नज़र डालें तो सऊदी अरब की जितनी दिलचस्पी यमन को विद्राहियों से मुक्त कराने में है उतनी दिलचस्पी आईएसआईएस जैसे $खूं$ वार आतंकी संगठन से सीरिया को मुक्त कराने में नहीं है। बजाए इसके वह अमेरिका की भाषा बोलते हुए सीरिया में रूस द्वारा की जा रही आईएसआईएस विरोधी सैन्य कार्रवाई के िखलाफ ही है। इन हालात में पूरी दुनिया के मुसलमानों का भी यह कर्तव्य है कि वे आईएसआईएस के ज़ुल्म व अत्याचार तथा उसके साम्राज्यवादी मकसद को बेनकाब करने के लिए तथा इस संगठन के चलते इस्लाम धर्म पर लगने वाले काले धब्बे को मिटाने के लिए न केवल खुलकर सामने आएं बल्कि इस विचारधारा के विरुद्ध एकजुट होने का भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करें।
शिया-सुन्नी एकता का प्रयास इस दिशा में उठाया जाने वाला एक सबसे महत्वपूर्ण $कदम साबित हो सकता है। अभी कुछ ही दशक पूर्व तक भारत से लेकर पाकिस्तान और ईरान व इरा$क जैसे देशों में भी शिया व सुन्नी समुदायों के मध्य शादी-विवाह हुआ करते थे। परंतु जैसे-जैसे इस्लाम धर्म में कट्टरपंथी ता$कतों का वर्चस्व बढ़ता गया इन दोनों समुदायों के मध्य नफरत की खाई और गहरी होती गई। जो वहाबी ता$कतें जिनका केंद्र सऊदी अरब समझा जाता है, शिया समुदाय द्वारा अंजाम दी जाने वाली धार्मिक कारगुज़ारियों को बिदअत या गैर इस्लामी बताया करती थीं वही शक्तियां पैगंबरों,पीरों व फकीरों की दरगाहों पर जाने,उनकी कब्र पर फातेहा पढऩे और उनकी याद में नात व कसीदे आदि पढऩे का विरोध करने लगीं। वहाबी विचारधारा के लोगों को अपने स्वयंभू इस्लाम के अतिरिक्त संसार के दूसरे सभी मुसलमान काफिर नज़र आने लगे। वहाबी विचारधारा से जुड़ा आईएसआईएस दुनिया का कोई पहला आतंकी संगठन नहीं है। बल्कि तालिबान और अलकायदा से लेकर लश्कर-ए-झांगवी और सिपाह-ए-साहबा व हक्कानी नेटवर्क जैसे कई संगठनों का पोषण वहाबी विचारधारा द्वारा तथा सऊदी अरब के वहाबी शासकों द्वारा किया जाता रहा है। आज भी न केवल आईएसआईएस बल्कि पाकिस्तान स्थित जमाअत-उद-दावा प्रमुख हािफज़ सईद भी सऊदी अरब के शासकों के रहमो-करम पर ही अपनी समस्त गतिविधियां संचालित कर रहा है। और यहां यह कहना भी $गलत नहीं होगा कि आज पाकिस्तान की जो दुर्दशा देखी जा रही है और जिस प्रकार पाकिस्तान में चुन-चुन कर गैर वहाबी मुसलमानों को चाहे वह शिया हों,सुन्नी,बरेलबी, अहमदी अथवा किसी अन्य इस्लामी िफरके से संबंध रखने वाले मुसलमान, उन सभी को वहाबी आतंकवाद का शिकार होना पड़ रहा है इसका जि़ मेदार भी वहाबी विचारधारा द्वारा पोषित राष्ट्रपति जि़या-उल-हक के शासन का दौर रहा है।
इन हालात में वैश्विक स्तर पर शिया-सुन्नी एकता की बहुत स$ त ज़रूरत महसूस की जा रही है। ईरान,कुवैत, बहरीन,पाकिस्तान, इरा$क तथा भारत जैसे और भी कई देशों से ऐसे समाचार प्राप्त होने शुरु हो चुके हैं जिनसे यह पता चल रहा है कि शिया-सुन्नी एकता का प्रयास धर्मगुरुओं की पूरी सक्रियता के साथ बड़े पैमाने पर शुरु हो चुका है। इन देशों की बड़ी से बड़ी मस्जिदों में शिया व सुन्नी समुदाय के लोगों द्वारा सामूहिक रूप से नमाज़ अदा किए जाने की मुहिम छेड़ी जा चुकी है। इन समुदायों के जो उलेमा पूरी शिद्दत के साथ यह महसूस कर रहे हैं कि इस्लाम पर लगने वाले आतंकवाद के कलंक को न केवल मिटना ज़रूरी है बल्कि दुनिया को यह बताना भी ज़रूरी है कि इस्लाम का वास्तविक स्वरूप करबला की कुर्बानी और इस्लाम धर्म की पीरी-फकीरी जैसी परंपराओं में निहित है न कि यज़ीद या आईएसआईएस जैसी क्रूर व हिंसक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों या संगठनों में। ऐसे उलेमा इन दिनों दिन-रात एक कर शिया-सुन्नी एकता के पक्ष में बड़ी मुहिम छेड़े हुए हैं। इस मुहिम को और अधिक तेज़ किए जाने की ज़रूरत है। क्योंकि इस्लाम जगत के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय स्तर की साजि़शें पूरी सक्रियता से काम कर रही हैं। परंतु शिया-सुन्नी एकता न केवल आतंकवाद के चेहरे से नकाब को हटा सकती है बल्कि इसके पीछे चल रही साजि़शों का भी पर्दाफाश कर सकती है।