जमाने में बहस जारी है क़ि फलाँ टीवी चैनल उसका समर्थक है, फलाँ इसका | सवाल समर्थन के अधर से शुरू होकर चाटुकारिता के पेट तक पहुँचने में जुटा हुआ है | आख़िर राजा राममोहन राय के आदर्शों से शुरू हुई चिंतन की पराकाष्ठा पर आज मीडिया के कई मानवीय मूल्य दाँव पर लग चुके हैं, जनता के विश्वास की बलिवेदी पर यदि मीडिया इसे अपनी वैश्विक प्रगति मान रहा है तो इसे इस समय की सबसे बड़ीं भूल मानना पड़ेगी, आख़िर किन मानवीय मूल्यों की हत्या करना चाह रहे हैं आज के तथाकथित न्यूज चैनल मालिक, या उनके पत्रकार……
विगत कई महीनों से देश में गैर ज़रूरी मुद्दों को बड़ावा देने में जनता दोषी के तौर पर मीडिया को मानती है, आख़िर जनता की ग़लती नहीं, पर कुनबे के कुछ लोगों की सब्जबाग दिखाने की आदत को पूरी मीडिया जमात के मान का हिस्सा बनाना न्यायपरक नहीं लगता |चन्द ठेकेदार मीडिया के स्वाभिमान को सरकार या विपक्ष के चरणकमल में अर्पण कर आक्रांतित जनाक्रोश को ठंडा करने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं, वो ग़लत हैं
संपादकीय संस्था की हत्या के मूल्य पर यदि इस विकास की इबारत लिखी जाती है तो सरासर नाइंसाफी ही होगी, क्योंक़ि हमें भी अपने स्वरूप की चिंता करना आवश्यक है |
१२ बोर की बंदूक में फिट होने वाले मीडिया के कुछ पीड़ित आजकल रिवाल्वर में फिट होने की कवायद में जुटे हैं, उसी कारण मीडिया के स्वरूप में मूल्यानुगत हास दिखने लगा हैं |
राष्ट्र निर्माण में प्रारंभ से लेकर आजतक मीडिया ने अपनी भूमिकाओं से जनभावनाओं के साथ राष्ट्र को नई दिशा और दर्शन दिया हैं किंतु स्वरूप परिवर्तन के साथ साथ मानवीय मूल्यों की तिलांजलि देती नज़र आ रही है |
प्राचीनकाल में जो साहित्यकार राजा और शासन की चारणता स्वीकार नहीं करते थे, या कहें क़ि साहित्यकारों की जमात में रुष्ट लोग जिन्हें सरकार की चन्द स्वर्णमुद्राएँ जनहित की बलि देकर प्राप्त करने से तकलीफ़ होती थी वो पत्रकार बने, किंतु आज अख़बार रोटरी पर छप तो रहा है, २४ घंटे चलने वाले टीवी चैनल ज़रूर हैं किंतु वास्तविक मूल्य गौण..
संवेदना शून्य आज की मीडिया के उन खबरनवीसों और उनके मालिकों को भी कम-से-कम देश के विश्वास के साथ नहीं खेलना चाहिए, बल्कि राष्ट्र को साथ में लेकर सड़क से संसद तक जनता के अघोषित प्रतिनिधि के तौर पर जनमत और सरकार के बीच संवाद सेतु बनना होगा और जनता की आवाज़ के रूप में सामने आना होगा वही आवाज़, जिसने आज़ादी की लड़ाई में महती भूमिका अदा की और राष्ट्रचेतना के स्वर को मुखर कर भारत के भाल के मान को बड़ाया हैं और जनमत को दिशा दी हैं|
वर्ना ढाक के तीन पात…. न कल हम रहेंगे न हमारे स्वयं के मूल्य…. हमारा अस्तित्व ही ख़तरे में आ जाएगा क्योंक़ि अब जमाना सोशल मीडिया के माध्यम से परंपरागत मीडिया को मात देने की कोशिशों में लगा है |