विशेषाधिकार क्यों और किसके लिए?

संत तुलसीदास ने कलयुग के बारे में जैसा बताया आज अक्षरशः वैसा ही घटित हो रहा है। मसलन गाल बजाने वालों की पूछ-परख होगी, सद पुरूष, सदचरित्र, संत पुरूषों की न केवल पूछ-परख घटेगी बल्कि इन पर भ्रष्ट चारित्रिक आरोप भी लगेंगे, हंस दाना चुगेगा, कौआ मोती खायेगा, असत्य सत्य पर हरपल प्रहार करेगा आदि-आदि। आज समाज में चारों और कुछ इसी तरह की घटनाएं दिन-प्रतिदिन घट रही है।

 

एक कहानी है, एक संत नदी के किनारे बैठे थे, उन्होंने देखा कि एक बिच्छू पत्थर पर चढ़ने के प्रयास में बार-बार नदी में गिर रहा था, संत प्रकृतिनुसार उन्होंने अपने हाथ से उसे निकाल पत्थर पर रखा, तभी उसने संत को डंक मार दिया, बिच्छू पुनः पानी में गिर गया, संत उसे पानी से बार-बार निकालते रहे और बिच्छू डंक मारता रहा, तभी पास में खड़ा एक व्यक्ति जो यह सब कुछ देख रहा था, उसने संत से कहा- प्रभु, जब यह आपको बार-बार डंक मार रहा है तो आप इसे बचा ही क्यों रहे हो, पानी में मरने दे, संत ने कहा बिन्छू की प्रकृति डंक मारना ही है और मेरी प्रकृति बचाना, जब ये प्राणी होकर अपना कर्म-धर्म नहीं छोड़ रहा तो मैं मानव हो कैसे अपना कर्म-धर्म छोड़ दू। यह कहानी आज भी सभी क्षेत्र में प्रासंगिक हैं। देश समाज में आज भी कुछ अच्छों से ही दुनिया चल रही है। पद तो गरिमापूर्ण होता ही है लेकिन उस पर बैठने वाला व्यक्ति उस पद की गरिमा को बढा भी सकता है, गिरा भी सकता और कलंकित भी कर सकता है। आज देश सेवा, समाज सेवा, लोक सेवा को ले जो ऊँच-नीच का खेल शुरू हुआ है, उससे कोई भी अछूता नहीं हैं। हमारे माननीयों को भी आचरण और कर्त्तव्यों को ले उच्च मानदण्ड स्थापित करना चाहिए।

 

बाबा भीमराव अम्बेडकर ने जो संविधान बनाया उसकी गरिमा, अखण्डता, अक्षुणता पर हमला जनता और माननीयों द्वारा लगातार हो रहा है, जो किसी भी कीमत पर बर्दाश्त योग्य नहीं है। हाल ही में अन्ना आंदोलन से आहत सरकार व माननीयों से हुआ वाक् युद्ध, चूहा-बिल्ली के खेल को किसी भी तरह से सराहा नहीं जा सकता। माना जनता छोटी है, नासमझ हैं, पर माननीय तो बड़े भी है और समझदार भी। वैसे भी कहा गया है क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात। बड़ों को तो हर हाल में अपना धर्म निभाना ही होगा। सोचो जब समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ दे  तो इस पृथ्वी लोक में त्राहि-त्राहि मच जायेगी। यहाँ मैं बात कहना चाह रही हंू कि सिविल सोसायटी विरूद्ध सरकार, मंत्रियों की, यहाँ मैं स्पष्ट कर दू कि मैं यहां किसी का पक्ष नहीं ले रही हूं। भारतीय संस्कृति में बड़ों को बडप्पन दिखाने के साथ-साथ क्षमा की भावना से ओत-प्रोत होना चाहिए। यही उसका वास्तविक आभूषण भी हैं। एक अच्छा राजा या मंत्री वो होता है जो केवल नियमानुसार, विधि सम्मत एवं धर्म सम्मत कार्य करता है। दण्ड के घेरे में फिर चाहे खुद या सगा ही क्यों न आए, निर्भिक हो दण्ड की कार्यवाही करता है, क्या वाकई सिविल सोसायटी द्वारा कहे गए शब्दों से विशेषाधिकार का मामला बनता है या जिद्? तो क्या जे.डी.यू. अध्यक्ष शरद यादव जो दिल्ली के एक सेमीनार में सभी प्रबुद्धजनों, नागरिकों के सामने देश के सर्वोच्च संवेैधानिक पद राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के विरूद्ध सफेद हाथी और बूढ़ी गाय जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया, विशेषतः जब दोनों ही महिलाएं हैं, क्या तब विशेषाधिकार का मामला नहीं बनता? संसद के अंदर शौर-शराबा, एक दूसरे के लिए अशोभनीय भाषा का प्रयोग, तब क्या? संसद में सभापति पर कागज मारना तब क्या? संसद को नहीं चलने देते तब क्या? माननीय संसद में क्षेत्र की समस्या नहीं उठाते तब क्या? संसद में सोते रहते है तब क्या? संसद से गायब रहते हैं तब क्या? मंत्री पद के साथ अन्य धन्धों में लिप्त रहते है तब क्या? अन्य संगठनों में लाभ के पद तब क्या? पैसा लेकर प्रश्न पूछना, नोटों की गड्डीयों का लहराना तब क्या? क्या सोमनाथ चटर्जी के श्राप को सांसद भूल गए? इन सभी क्या पर गंभीर चिंतन का वक्त आ गया हैं?

 

संसद का अपमान करने वाला चाहे आम हो या खास या विशेष संविधान एवं कानून की दृष्टि में सभी एक है। निःसंदेह सभी पर कठोर कार्यवाही होना चाहिए। जब हमारे माननीय अशोभनीय आचरण संविधान के पवित्र मंदिर संसद में करते हैं तो जनता उन्हीं को देख उसे ही आदर्श समझ अपनाती है जो समय-समय पर विभिन्न मंचों के माध्यम से जनता का गुस्सा भी फूटता है। यह भी यक्ष प्रश्न है कि लोकसभा नियम 231 मर्यादित आचरण का पालन कितने माननीय करते हैं? राष्ट्रपति एवं राज्यपाल का मामला अति संवेदनशील हैं जिसमें सभी माननीय सर्वोच्च न्यायालय की ओर स्वतः संज्ञान के लिए आशा भरी नजरों से देख रहे है। जब माननीय ही अभद्र भाषा का उपयोग करेंगे तो किस मुंह से विशेषाधिकार की बात कर सकते हैं। कुछ बातें बड़ी स्वभाविक होती है जैसे अच्छे को अच्छा ही कहा जायेगा, बुरे को बुरा, कानून की खामियों के चलते जब आपराधिक प्रवृत्ति के लोग सांसद बनते है या जेल जाते है क्या तब संसद अपमान नहीं होता? कलंकित नहीं होती? निःसंदेह इस परिस्थिति में जनता की प्रतिक्रिया कठोर शब्दों में ही होगी। यदि माननीय वाकई में चाहते हैं कि ऐसा न हो तो उन्हें ऐसे व्यक्तियों को चुनाव के लिये बिना नफे नुकसान के अयोग्य ठहराने संबंधी विधेयक को क्यों नहीं लाते? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 का उपयोग कर संविधान में संशोधन क्यों नहीं करते? ताकि संसद की पवित्रता और छवि बरकरार रहे।

 

अब वक्त आ गया है कि जब विशेषाधिकार पर चर्चा हो? नियम बने? माननीयों को केवल संसदीय विशेषाधिकार प्राप्त हैं। संविधान में विशेषाधिकार दोनों सदनांे, उनकी समितियों और सदस्यों को इस बात के लिये दिये गये है ताकि सदन में स्वतंत्र रूप से प्रत्येक सदस्य अपनी बात रख सकें, कार्य कर सके। उनके द्वारा कही गई किसी बात या दिये गये मत के संबंध में उनके विरूद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। कोई भी काम जो सदन के उसकी समितियों के या उसके सदस्यों के काम में किसी प्रकार की बाधा डाले वह संसदीय विशेषाधिकार का हनन करता है या होता है। दूसरा केाई सदस्य न केवल उस समय गिरफ्तार नहीं किया जा सकता जबकि उस सदन का जिसका वह सदस्य हो, अधिवेशन चल रहा हो या संसदीय समिति की बैठक चल रही। तीसरा संसद के अधिवेशन के प्रारंभ से 40 दिन पहले और उसकी समाप्ति के 40 दिन बाद या जबकि वह सदन को आ रहा हो या सदन से बाहर जा रहा हो तब भी उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। चौथा संसद परिसर या भीतर अध्यक्ष/सभापति की अनुमति के बिना दीवानी या आपराधिक कोई कानूनी ‘‘समन’’ नहीं दिये जा सकते, अध्यक्ष/सभापति की अनुमति के बिना संसद भवन के अंदर किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। चूंकि संसद परिसर में केवल संसद के सदन के अध्यक्ष/सभापति के ही आदेशों का पालन होता है अन्य किसी सरकारी अधिकारी या स्थानीय प्रशासन के आदेशों का पालन नहीं होता। पांचवा संसद का प्रत्येक सदन अपने विशेषाधिकार का स्वयं ही रक्षक होता है और विशेषाधिकार भंग करने या सदन की अवमानना करने वाले को भर्त्सना करके या ताड़ना करके या निर्धारित अवधि के लिए कारावास द्वारा दंडित कर सकता हैं, सदन की सेवा से निलंबित कर सकता है, अति गंभीर मामले में सदन से बाहर निकाल भी सकता है। छठवां दर्शकों द्वारा गैलरी में नारे लगाकर या इश्तहार फेंकना अवमानना का दोषी मान अपराधियों को सदन के उस दिन स्थगित होने तक कारावास या दण्ड दिया जा सकता है। सदन का दंडिक क्षेत्र अपने सदनों तक और उनके सामने किये गये अपराधों तक ही सीमित न होकर सदन की सभी अवमाननाओं पर लागू होता है फिर अवमानना चाहे सदस्यों द्वारा की गई हो या ऐसे व्यक्ति द्वारा जो सदन का सदस्य नहीं हैं।

 

अवमानना करने वाले दोषियों द्वारा स्पष्ट रूप से और बिना किसी शर्त के दिल से व्यक्त किया गया खेद सदन द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है। ऐसे में साधारणतः सदन अपनी गरिमा को देखते हुए ऐसे मामलों में आगे कार्यवाही न करने का फैसला करता है। यहां यह स्पष्ट हो कि विशेषाधिकार माननीयों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत् केवल संसद के अंदर ही प्राप्त हैं। संसद के बाहर कानून की नजर में वह केवल आम नागरिक ही हैं।