सुरेश चिपलूणकर पांच राज्यों में हुए विधानसभा नतीजों का हिन्दुत्ववादी विश्लेषण कर रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी को हिन्दुत्ववादी माननेवाले सुरेश चिपलूणकर मानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी का सेकुलर नजरिया जनता को रास नहीं आता है यही कारण है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा का खाता भी मुश्किल से खुल पाया है. वामपंथ को देश का दुश्मन मानकर उसके सफाये की तमन्ना रखनेवाले सुरेश चिपलूणकर अपने इस गणितीय विश्लेषण से साबित कर रहे हैं कि भाजपा को सेकुलर होने की भौड़ी कोशिश छोड़ देनी चाहिए.
पश्चिम बंगाल: ममता बनर्जी की आँधी में वामपक्ष उड़ गया, धुल गया, साफ़ हो गया… यह देश के साथ-साथ हिन्दुत्व के लिये क्षीण सी खुशखबरी कही जा सकती है। “क्षीण सी” इसलिये कहा, क्योंकि ममता बैनर्जी भी पूरी तरह से माओवादियों एवं इस्लामिक ताकतों (बांग्लादेशी शरणार्थियों) के समर्थन से ही मुख्यमंत्री बनी हैं… अतः पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं की दुर्दशा वैसी ही जारी रहेगी, जैसी अब तक होती आई है। (नतीजा : वामपंथ 5 साल के लिये बाहर = +1)
असम: इस राज्य में कांग्रेस से अधिक निराश किया है भाजपा ने… दस साल के गोगोई शासन, मूल असमियों पर बांग्लादेशी गुण्डों द्वारा अत्याचार, कांग्रेसियों द्वारा खुलेआम बदरुद्दीन अजमल का समर्थन करने और अपना मुस्लिम वोट बैंक पक्का बनाये रखने का फ़ायदा कांग्रेस को मिला…। भाजपा यहाँ भी फ़िसड्डी साबित हुई। असम में धीरे-धीरे अल्पसंख्यक बनने की ओर अग्रसर हिन्दुओं के लिये अब उम्मीद कम ही बची है। (नतीजा : राजमाता के दरबार में दिग्गी राजा के कद में बढ़ोतरी और असम में हिन्दुओं की लतखोरी में बढ़ोतरी = (-) 1)
तमिलनाडु: भाजपा तो कभी यहाँ थी ही नहीं, अब भी कोई प्रगति नहीं की। जयललिता की जीत से करुणानिधि कुनबा बाहर हुआ है, लेकिन अब जयललिता और शशिकला मिलकर तमिलनाडु को लूटेंगे…। चर्च की सत्ता वैसे ही बरकरार रहेगी, क्योंकि “सेकुलरिज़्म” के मामले में जयललिता का रिकॉर्ड भी उतना ही बदतर है, जितना करुणानिधि का। (नतीजा : कांग्रेस यहाँ एकदम गर्त में चली गई है… (+1)]
केरल: नतीजे लगभग टाई ही रहे और जो भी सरकार बनेगी अस्थिर होने की सम्भावना है। कांग्रेस की सरकार बनी तो मुस्लिम लीग और PFI का आतंक मजबूत होगा। भाजपा को 2-3 सीटों की उम्मीद थी, लेकिन वह धूल में मिल गई…।
सकारात्मक पक्ष देखें तो – (अ) बंगाल से वामपंथी साफ़ हुए, जबकि केरल में भी झटका खाये हैं… (ब) तमिलनाडु से कांग्रेस पूरी तरह खत्म हो गई है…
समूचे परिदृश्य को समग्र रूप में देखें तो – (अ) दक्षिण और बंगाल में “हिन्दुत्व” की विचारधारा में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है, (ब) भाजपा का प्रदर्शन बेहद निराश करने वाला रहा है…, (स) इन राज्यों में हि्न्दुओं की दुर्दशा में और वृद्धि होगी…। कुल मिलाकर निराशाजनक चित्र उभरा है। भाजपा निराश करती है, और कोई विकल्प है नहीं, जात-पाँत में बँटे हुए लतखोर हिन्दुओं ने शायद “नियति” को स्वीकार कर लिया है…।
एक नमूना पेश है, गौर कीजियेगा –
1) केरल की 140 सीटों में से 36 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं। (मुस्लिम लीग-20, सीपीएम-8, कांग्रेस-7 और RSP-1)
2) केरल में 20% ईसाई हैं, 25% मुस्लिम हैं और 30% कमीनिस्ट (यानी अ-हिन्दू सेकुलर)… यह 75% लोग मिलकर भाजपा को इतनी आसानी से जगह बनाने नहीं देंगे।
3) केरल कांग्रेस (जैकब गुट) नाम की “ईसाई सेकुलर” पार्टी ने 10 सीटें जीतीं, “सुपर-सेकुलर मुस्लिम लीग” ने 20 सीटें जीतीं, “हिन्दू सेकुलरों” ने वामपंथियों और कांग्रेस को विभाजित होकर वोट दिये… नतीजा – दोनों ही प्रमुख दलों को बहुमत नहीं मिला। अब अगले पाँच साल तक केरल कांग्रेस (ईसाई) और मुस्लिम लीग दोनों मिलकर अपना “एजेण्डा” चलाएंगे और कांग्रेस को जमकर चूसेंगे (कांग्रेस को इसमें कोई आपत्ति भी नहीं है)। मंत्रिमण्डल बनने में अभी समय है, लेकिन मुस्लिम लीग और जैकब कांग्रेस ने शिक्षा, राजस्व, उद्योग और गृह मंत्रालय पर अपना दावा ठोंक दिया है… (आगे-आगे देखिये होता है क्या…)
4) मुस्लिम बहुल इलाकों से मुस्लिम जीता, ईसाई बहुल इलाकों से ईसाई उम्मीदवार जीता… हिन्दू बहुल इलाके से, या तो वामपंथी जीता या बाकी दोनों में से एक… (मूर्ख हिन्दुओं के लिये तथा धोबी का कुत्ता उर्फ़ “सेकुलर भाजपा” के लिये भी एक सबक)…
सकारात्मक पक्ष :- पिछले 5 साल में संघ कार्यकर्ताओं की ज़मीनी मेहनत का नतीजा यह रहा है कि केरल में पहली बार भाजपा का वोट प्रतिशत 6% तक पहुँचा, 19 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपाईयों को 10,000 से 15,000 वोट मिले, और तीन विधानसभा सीटों पर भाजपा दूसरे नम्बर पर रही। लेकिन यहाँ भी एक पेंच है – ईसाई और मुस्लिम वोटरों ने योजनाबद्ध तरीके से वोटिंग करके यह सुनिश्चित किया कि भाजपा का उम्मीदवार न जीते… कांग्रेस या वामपंथी में से जो मजबूत दिखा उसे जिताया… (मूर्ख हिन्दुओं के लिये एक और सबक) (यदि सीखना चाहें तो…)
असम में भाजपा की सीटें 10 से घटकर 4 हो गईं, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में कोई उपस्थिति दर्ज नहीं हुई…। हालांकि मेरी कोई औकात नहीं है फ़िर भी, भाजपा की इस वर्तमान दुर्दशा के बाद चन्द सुझाव इस प्रकार हैं –
1) भाजपा को सबसे पहला सबक ममता बनर्जी से सीखना चाहिये, विगत 20 साल में उस अकेली औरत ने वामपंथियों के खिलाफ़ लगातार सड़कों पर संघर्ष किया है, पुलिस से लड़ी, प्रशासन के नाकों चने चबवाए, हड़तालें की, बन्द आयोजित किये, हिंसाप्रेमी वामपंथियों को जरुरत पड़ने पर “उन्हीं की भाषा” में जवाब भी दिया। भाजपा “संकोच” छोड़े और कांग्रेसियों से “अन्दरूनी मधुर सम्बन्ध” खत्म करके संघर्ष का रास्ता अपनाये। हिन्दुओं, हिन्दू धर्म, मन्दिरों के अधिग्रहण, गौ-रक्षा, नकली सेकुलरिज़्म जैसे मुद्दों पर जब तक सीधी और आरपार की लड़ाई नहीं लड़ेंगे, तब तक भाजपा के ग्राफ़ में गिरावट आती ही जायेगी… वरना जल्दी ही एक समय आयेगा कि कोई “तीसरी पार्टी” इस “क्षुब्ध वोट बैंक” पर कब्जा कर लेगी। मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता चाहे जैसी भी हों, लेकिन भाजपा नेताओं को इन तीनों का कम से कम एक गुण तो अवश्य अपनाना ही चाहिये… वह है “लगातार संघर्ष और हार न मानने की प्रवृत्ति”।
2) ज़मीनी और संघर्षवान नेताओं को पार्टी में प्रमुख पद देना होगा, चाहे इसके लिये उनका कितना भी तुष्टिकरण करना पड़े… कल्याण सिंह, उमा भारती, वरुण गांधी जैसे मैदानी नेताओं के बिना उत्तरप्रदेश के चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने की बात भूल ही जाएं…
3) तमिलनाडु और केरल में मिशनरी धर्मान्तरण और बंगाल व असम में जेहादी मनोवृत्ति और बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर गुवाहाटी-कोलकाता से लेकर दिल्ली तक “तीव्र जमीनी संघर्ष” होना चाहिये…
4) जो उम्मीदवार अभी चुनाव हार गये हैं, वे अगले पाँच साल लगातार अपने विधानसभा क्षेत्र में बने रहें, सड़कों पर, खबरों में दिखाई दें, जनता से जीवंत सम्पर्क रखें। जो उम्मीदवार बहुत ही कम अन्तर से हारे हैं, वे एक बार फ़िर से अपने पूरे विधानसभा क्षेत्र का “पैदल” दौरा करें और “हिन्दुओं” को समझाएं कि अब अगले पाँच साल में उनके साथ क्या होने वाला है।
5) सबसे महत्वपूर्ण सुझाव यह है कि भाजपा को “सेकुलर” दिखने की “भौण्डी कोशिश” छोड़ देना चाहिये। मीडिया के दुष्प्रचार की रत्ती भर भी परवाह किये बिना पूरी तरह से “हिन्दू हित” के लिये समर्पण दर्शाना चाहिये, क्योंकि भड़ैती मीडिया के सामने चाहे भाजपा “शीर्षासन” भी कर ले, तब भी वे उसे “हिन्दू पार्टी” कहकर बदनाम करते ही रहेंगे। यह तो भाजपा को तय करना है कि “बद अच्छा, बदनाम बुरा” वाली कहावत सही है या नहीं। इसी प्रकार यही “शीर्षासन” मुस्लिमों एवं ईसाईयों के सामने नग्न होकर भी किया जाए, तब भी वे भाजपा को “थोक में” वोट देने वाले नहीं हैं, तब क्यों अपनी ऊर्जा उधर बरबाद करना? इसकी बजाय, इस ऊर्जा का उपयोग “सेकुलर हिन्दुओं” को समझाइश देने में किया जाये।
दिक्कत यह है कि सत्ता में आने के बाद जो “कीटाणु” अमूमन घुस जाते हैं वह भाजपा में कुछ ज्यादा ही बड़े पैमाने पर घुस गये हैं। राम जन्मभूमि आंदोलन के वक्त की भाजपा का जमीनी और सड़क का संघर्ष, उसके कार्यकर्ताओं की तड़प और आज देश की भीषण परिस्थितियों में भाजपाईयों का “अखबारी और ड्राइंगरूमी संघर्ष” देखकर लगता ही नहीं, कि क्या यह वही पार्टी है? क्या यह वही पार्टी और उसी पार्टी के नेता हैं जिन्हें 1989 में जब मीडिया “हिन्दूवादी नेता” कहता था, तो नेताओं और कार्यकर्ताओं सभी का सीना चौड़ा होता था, जबकि आज 20 साल बाद वही मीडिया भाजपा के किसी नेता को “हिन्दूवादी” कहता है, तो वह नेता इधर-उधर मुँह छिपाने लगता है, उल्टे-सीधे तर्क देकर खुद को “सेकुलर” साबित करने की कोशिश करने लगता है…। यह “संकोचग्रस्त गिरावट” ही भाजपा के “धोबी का कुत्ता” बनने का असली कारण है। समझना और अमल में लाना चाहते हों तो अभी भी समय है, वरना 2012 में महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश में, जहाँ अभी पार्टी “गर्त” में है, वहीं टिकी रहेगी… जरा भी ऊपर नहीं उठेगी।