लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद के लिये पाँच साल बाद सत्रह अक्तूबर को चुनाव हुये थे । परिषद की कुल तीस सीटों में से केवल छब्बीस सीटें पर चुनाव होते हैं और शेष चार सीटें राज्य सरकार मनोनयन द्वारा भरती है । इन छब्बीस सीटों में से भारतीय जनता पार्टी ने 18 सीटें जीत कर जम्मू संभाग की तरह लद्दाख में भी अपना परचम फहरा दिया है । सोनिया कांग्रेस को केवल पाँच सीटें मिलीं । 2000 से लेकर अब तक सोनिया कांग्रेस का ही परिषद पर क़ब्ज़ा था । नैशनल कान्फ्रेंस ने दो और एक सीट आज़ाद उम्मीदवार ने जीती । कांग्रेस 25 सीटों पर, भाजपा 24 सीटों पर , पी डी पी और नैशनल कान्फ्रेंस आठ आठ सीटों पर चुनाव लड़ रहीं थीं । पी डी पी का भाजपा के साथ सीट बँटवारे को लेकर समझौता नहीं हो सका था , इसलिये दोनों पार्टियाँ अलग अलग चुनाव लड़ रही थीं । लेकिन पी डी पी अपना खाता भी नहीं खोल पाई । 2010 में हुये चुनावों में सोनिया कांग्रेस ने 21 और भाजपा ने चार सीटें जीती थीं । इस बार मामला उलट गया । वैसे इस बार सोनिया कांग्रेस ने नयोमा की पाँचवी सीट , भाजपा के प्रत्याशी को केवल एक वोट से पराजित कर जीती है । लेकिन सोनिया कांग्रेस के लिये निराशा वाली बात यह रही कि उनके मुख्य कार्यकारी पार्षद रिगजिन स्पलबार भी पराजित हो गये । भाजपा के टिकट पर एक मुसलमान प्रत्याशी ने भी जीत दर्ज करवाई है । चुनाव को देखते हुये कुछ असंतुष्टों ने नव लद्दाख फ़्रंट बना कर सत्रह सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे लेकिन कोई सीट जीतने की बात तो दूर, उसे प्राप्त वोटों का प्रतिशत भी नगण्य ही रहा । भयंकर ठंड के बावजूद 65.17 प्रतिशत मतदान हुआ । कुल मिला कर 90 प्रत्याशी मैदान में थे ।
पर्वतीय विकास परिषद को लद्दाख की मिनी विधान सभा भी कहा जाता है । कुछ साल पहले लद्दाख के लोगों ने एक लम्बा आन्दोलन किया था । उनका कहना था कि लद्दाख संभाग को जम्मू कश्मीर राज्य से निकाल कर उसे केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया जाये । जम्मू कश्मीर में लद्दाखी स्वयं को उपेक्षित मानते हैं और उनको लगता है कि कश्मीर घाटी केन्द्रित सरकार उनका शोषण करती है । 1947 में जब रियासत के विलय के बाद नेहरु शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला को अतिरिक्त महत्व दे रहे थे , तब लद्दाख वालों ने पंजाब में शामिल होने की इच्छा जिता दी थी । बाद में इस भावना को तो किसी तरह दबा दिया गया लेकिन लद्दाख जम्मू कश्मीर रियासत में सौतेला व्यवहार का ही शिकार होता रहा । स्थानीय लोगों के बढ़ रहे ग़ुस्से को देखते हुये 1995 में विकास परिषद की स्थापना का मध्य मार्ग निकाला गया । इस क्षेत्र के विकास के लिये निर्धारित बजट राज्य सरकार इस विकास परिषद के हवाले कर देती है । परिषद के चुनाव भी विधान सभा की ही तरह पाँच साल बाद होते हैं । परिषद के मुख्य कार्यकारी पार्षद का दर्जा कैबिनेट मंत्री का होता है । विकल्पहीनता की स्थिति में अभी तक लद्दाखी कांग्रेस को ही वरीयता देते रहे हैं । कश्मीर घाटी केन्द्रित नैशनल या पी डी पी को उन्होंने पास नहीं फड़कने दिया । लेकिन जैसे ही भाजपा ने वगां प्रवेश किया तो हालत बदलने लगी । वैसे तो लद्दाख में भाजपा ने अपनी उपस्थिति १९९५ से ही दर्ज करवानी शुरु कर दी थी । १९९५ में परिषद के लिये हुये चुनावों में भाजपा समर्पित लद्दाख यूनियन टैरीटरी फ़्रंट ने परिषद में बहुमत स्थापित कर लिया था , लेकिन उसके बाद भाजपा इक्का दुक्का सीटें तो जीतती रही पर अपना सम्मानजनक स्थायी आधार स्थापित नहीं कर पा रही थी । 2014 के लोकसभा चुनावों में पहली बार भाजपा ने लद्दाख लोक सभा सीट जीत कर इस क्षेत्र में नया इतिहास लिखा था । लेकिन उसके कुछ मास बाद ही जम्मू कश्मीर की विधान सभा के लिये हुये चुनावों में लेह ज़िला की दोनों सीटों पर आश्चर्यजनक ढंग से सोनिया कांग्रेस ने क़ब्ज़ा जमा लिया था । इससे लगने लगा था कि शायद लद्दाख के लोग फिर कांग्रेस की ओर मुड़ने लगे हैं । लेकिन पर्वतीय परिषद के इन चुनावों में लगता है भाजपा ने कांग्रेस समेत शेष सभी राजनैतिक दलों से अपना हिसाब बराबर कर लिया है । पी डी पी का भाजपा से समझौता नहीं हो सका , इसका ख़ामियाज़ा उसे ही हुआ , भाजपा को नहीं । सबसे बड़ी बात यह है कि लद्दाख के लोगों ने कश्मीर केन्द्रित दोनों पार्टियों मसलन पी डी पी और नैशनल कान्फ्रेंस को नकार दिया है । लगता है धीरे धीरे भाजपा ने लद्दाख में स्वयं को स्थापित कर लिया है । 24 में से 18 सीटें जीत कर तो उसने इस संभाग में भी अपनी जम्मू जैसी स्थिति बना ली है । कुछ लोगों का कहना है कि सोनिया कांग्रेस के हारने का कारण एंटी इनकम्बैसी फ़ैक्टर है । लेकिन यदि ऐसा होता तो विधान सभा चुनावों में कांग्रेस लेह की दोनों सीटें जीत नहीं सकती थी । लद्दाख में भाजपा को इस बार सकारात्मक वोट मिले हैं , नकारात्मक नहीं । लद्दाख के लोगों ने विधान सभा चुनावों में तो सोनिया कांग्रेस के विधायक ही जिता कर भेजें थे । लेकिन पूर्व मंत्री और वर्तमान के कांग्रेस के विधायक नवांग रिगजिन ज़ोरा घाटी में जाकर नैशनल कान्फ्रेंस के साथ हाँ में हाँ मिलाते हुये अलगाववादियों की भाषा में बोलने लगे । इससे लद्दाखियों का मोह भंग हुआ । दरअसल लद्दाख में सोनिया कांग्रेस समेत दूसरी दोनों कश्मीर घाटी केन्द्रित पार्टियों को हरा कर लद्दाख ने स्पष्ट संकेत दिया है कि वह अलगाववाद व आतंकवाद के ख़िलाफ़ है । जम्मू संभाग के बाद लद्दाख,रियासत का दूसरा हिस्सा है जिसमें भाजपा ने मज़बूती से अपने पैर जमाये हैं । दरअसल लद्दाख संभाग के दोनों जिलों लेह और कारगिल में भाजपा के लिये अनुकूल वातावरण है । कारगिल के बल्ती सांस्कृतिक लिहाज़ से लद्दाखियों के कहीं ज़्यादा समीप ठहरते हैं । कश्मीर के दिन प्रतिदिन कट्टर होते जा रहे इस्लामी वातावरण से वे भी भयभीत हैं । उनको लगता है कि कश्मीर उनका शोषण कर रहा है । नरेन्द्र मोदी ने जबसे प्रदेश की राजनीति को मज़हबी दलदल से निकाल कर विकास के साथ जोड़ने का प्रयास प्रारम्भ किया है तबसे करगिल का बल्ती समाज भाजपा से जुड़ने का इच्छुक नज़र आ रहा है । वैसे भी कारगिल के बल्ती शिया समाज का हिस्सा है जिन्हें सारे अरब संसार में मुसलमानों के आतंक का शिकार होना पड़ रहा है ।
अब भारतीय जनता पार्टी ने जम्मू संभाग और लद्दाख संभाग में अपनी प्रभावी और निर्णायक उपस्थिति दर्ज करवा दी है । जहाँ तक कश्मीर संभाग का सम्बंध है , वहाँ भी गुज्जरों , दर्दों , पठानों , जनजातियों और जहाँ तक की कश्मीरी भाषा बोलने वाले मुसलमानों में भी नरेन्द्र मोदी के विकास के एजेंडा को लेकर बहस चल रही है । यही कारण था कि सज्जाद लोन की पीपुल्स कान्फ्रेंस पार्टी आतंकवादियों के दबाव के बावजूद भारतीय जनता पार्टी के साथ सांझेदारी करने का साहस दिखा सकी । मोदी जिस प्रकार कश्मीर घाटी में भी वहाँ की राजनीति को मज़हब की चहारदीवारी से निकाल कर , पंथ निरपेक्षता के धरातल पर स्थापित करना चाहते हैं और विकास के मार्ग पर अग्रसर देखना चाहते हैं , उससे निश्चय ही प्रदेश की राजनीति में एक नई शुरुआत हो सकती है । लद्दाख ने उसी की राह दिखाई है ।