यूपी सरकार के मंत्री विधायक बुधवार को पांच देशों के लिये रवाना हो गये और बुधवार की देर रात कर्नाटक सरकार के मंत्री विधायक तीन देशों की यात्रा कर वापस लौटे। इसी दिन केजरीवाल ने मीडिया से बात बात में कहा कि बदलाव के लिये जरुरी है कि सरकार और मंत्री अपनी बहुसंख्य जनता के जीवन जीने के तरीकों से इतर ना सोचें। यानी सादगी जरुरी है। लेकिन यूपी और कर्नाटक के मंत्री विधायकों ने अपनी यात्रा को संसदीय लोकतांत्रिक परिस्थितियों की दुहाई देकर इस सच से पल्ला झाड़ लिया कि यूपी में दंगों का दर्द बरकरार है और कर्नाटक में किसान सूखे की मार से परेशान हैं। तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का सच है क्या और क्यों लोकतंत्र का जाप करने वाली पारंपरिक राजनीति बदलने का वक्त आ गया है। इस सवाल को समझने के लिये जरा मंत्री नेताओं के आम लोगो से दूर होते सरोकार को परखें। इंग्लैंड, नीदरलैंड, टर्की, ग्रीस और यूएई की यात्रा पर गये यूपी सरकार के मंत्रियों पर कुल खर्चा डेढ़ करोड़ रुपए का है तो आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड और फिजी घूमकर लौट रहे कर्नाटक के विधायक मंत्रियो पर कुल खर्चा एक करोड़ 35 लाख रुपये का है । कमोवेश देश के हर राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में विदेशी यात्रा को ना सिर्फ महत्वपूर्ण माना गया है बल्कि सरकारी खजाने से करोड़ों लुटाने का भी अधिकार राज्य सरकार से लेकर केन्द्र सरकार और हर मंत्रालय को दिया गया है। देश के सभी 28 राज्यों के सीएम हो या मंत्री या फिर विधायकों की टोली की विदेशी यात्रा पर हर बरस खर्चा तकरीबन 775 करोड़ रुपये का है।
वहीं केन्द्र सरकार के तमाम मंत्रालय और सांसदों की टोली पर हर बरस करीब 625 करोड रुपये खर्च होता है। यानी 1400 करोड रुपये देश के राजनेताओं की विदेशी यात्रा पर खपता है। इसको अगर सिलसिलेवार तरीके से बांटे तो राज्यों के मंत्री – विधायक का स्टडी टूर खर्च–175 करोड़ का है। केन्द्र के मंत्रियो के स्टडी टूर का खर्च 200 करोड़ रुपये का है। राष्ट्रीय नेताओ की विदेशी यात्रा पर सालाना खर्च 425 करोड़ रुपये और राज्यों के नेताओं पर विदेशी यात्रा खर्च 600 करोड रुपये आता है। इसमें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का यात्रा खर्च शामिल नहीं है। वैसे, मनमोहन सिंह ने 2004 में सत्ता संभालने के बाद 70 विदेश यात्रायें अक्टूबर 2013 तक कीं। जिस पर 650 करोड़ रुपये खर्च हुये। जाहिर है एक सवाल यहां उठ सकता है कि विदेश यात्रा करने में परेशानी क्या है और अपने ही देश में रहकर कोई क्या सुधार कर सकता है। दरअसल, आम आदमी पार्टी की बारीक राजनीति को समझें या कहें लोगों का रुझान क्यों केजरीवाल की तरफ झुका, उसका एक बडा सच देश की पूंजी पर देश का नाम लेकर अपनी रईसी को जताना-दिखाना ही हो चुका है । कांग्रेस और बीजेपी ही नहीं सपा, बसपा सरीखे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के नेता भी अपने प्रोफाइल में यह लिखना शान समझते हैं कि उन्होंने कितने देशों की यात्रा बतौर विधायक, सांसद या मंत्री के तौर पर की है।
हालांकि कोई उस मुद्दे का जिक्र नहीं करता कि किस मुद्दे के आसरे उसने जनता के पैसे पर सरकारी यात्रा की। क्योंकि बीते 20 बरस नेताओं और मंत्रियों ने देश के हर उस मुद्दे को लेकर विदेश की यात्रा की, जिससे देश में सुधार किया जा सके। इस पर करीब देश का करीब 20 लाख करोड़ खर्च हो गया और तमाम मुद्दों का बंटाधार भी इसी दौर में हुआ। सिर्फ शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी,सौर उर्जा और सिंचाई व्यवस्था दुरुस्त करने को लेकर सबसे ज्यादा यात्राएं विदेश की हुई और संयोग देखिये इन्हीं मुद्दों को लेकर आम आदमी पार्टी सत्ता में आयी। यही मुद्दे हर राजनीतिक एलान के केन्द्र में रहे। लेकिन न मुद्दों पर विदेशी यात्रा में देश का करीब 4 लाख करोड रुपया खर्च हो गया ।
दरअसल, देश में चुनी हुई सरकारो के खिलाफ आम आदमी की राजनीति में दखल देने की असल दस्तक यही से शुरु होती है। और ध्यान दें तो केजरीवाल ने जनता की भागेदारी से राजनीति करने के तौर तरीको से उसी गुस्से को राजनीतिक तौर पर जगह दी है जो अभी तक हाशिये पर थी। मुज्जफरनगर दंगों के दर्द को निपटाये बगैर सरकार के मंत्री विदेश नहीं जा सकते यह आवाज यूपी में नहीं उठेगी। लेकिन दिल्ली में किसी आम आदमी को कोई परेशानी है तो उसकी जिम्मेदारी लेने के लिये दिल्ली के सीएम केजरीवाल तैयार हैं। तो सवाल तीन हैं। पहला, क्या सत्ताधारियो की रईसों पर लगाम खुद सत्ताधारियों को ही लगानी होगी। दूसरा, राजनीति के तौर तरीके आम आदमी से जुडेंगे तो सत्ता रईसी नहीं करेगी। तीसरा, क्या लोकतांत्रिक तौर तरीके सत्ता को बदलने पर मजबूर कर देंगे। यानी दिल्ली चुनाव परिणाम आने के बाद जिस तरह राहुल गांधी ने खुली पंचायत शुरु की और परिणामों के तुरंत बाद कहा कि वह साल भर पुरानी पार्टी से भी सिखेंगे। इसका मतलब निकाला क्या जाये? क्या वाकई आने वाले दौर में सत्ताधारी जनता के दर्द से जुडेंगे। या जनता के दर्द को दूर करने के तरीके जानने के लिये स्टडी टूर का बहाना निकाल कर विदेश की सैर पर निकल जायेंगे। असल में परंपारिक राजनीति का सियासी मिजाज बदल इसीलिये रहा है क्योंकि सत्ताधारी ने कोई सरोकार आम आदमी से रखा नहीं है। इसीलिये हर तरफ इग्लैंड, नीदरलैंड, टर्की, ग्रीस और और यूएई की चकाचौंध हैं। मस्ती से भरपूर समाज है। गरीबी मुफलिसी से दूर विकसित देश की संसदीय राजनीति का गुदगुदापन है। और दूसरी तरफ यूपी की त्रासदी। दंगों से प्रभावित मुज्जफरनगर का रुदन है। कर्नाटक का बेहाल किसान है। इन दो चेहरों को क्या एक साथ देखा जा सकता है।
एक तरफ खाता पीता समाज है। दूसरी तरफ भूख है। एक तरफ अधिकतम पाने की चाहत है तो दूसरी तरफ न्यूनतम के जुगाड़ की चाहत। कोई मेल नहीं है और मेल हो जाये इसके लिये भारतीय समाज उसी राजनीतिक सत्ता पर निर्भर है जो सत्ता चकाचौंध की राजनीति पर भी भारी है। तो कैसे सत्ता की उस रईसी को लोकतंत्र के राग से जोड़ा जा सकता है, जो मंत्री से लेकर संतरी तक अभी तक गुनगुनाते रहे। कैसे माना जाये कि 18 दिनों तक चार्टेड विमान से पांच देशो के 17 पर्यटक स्थानों की सैर के बीच यूपी सरकार के मंत्री स्टडी करेंगे कि कैसे संसदीय राजनीति को मजबूत किया जा सकता है। कैसे गरीबी, मुफलिसी वाले समाज को चकाचौंध में बदला जा सकता है। ऐसे में यह सवाल कौन उठायेगा कि मुज्जफरनगर के राहत कैंपों में डेढ़ सौ रुपये का कंबल तक नहीं है। यह सवाल कौन करेगा कि अंग्रेजी का विरोध करने वाले मुलायम सिंह यादव की सरकार के मंत्री स्टडी टूर के लिये इग्लैंड क्यों जा रहे हैं। और सवाल यह भी कोई नहीं करेगा कि जिस दौर में यूपी को सरकार की सबसे ज्यादा जरुरत है उसी दौर में यूपी के 9 मंत्री 18 दिनो तक दुनिया की सैर पर निकल गये। तो 2014 का चुनाव इस राजनीति में सेंघ लगायेगा या नहीं। इसका इंतजार कीजिये।