राजनीतिक सत्ता में देश की जान है तो ये देश के लोकतंत्र का राजनीतिक सच है। जहां संसद में लोकसभा और राज्यसभा के कुल सदस्य 786 हैं। तो देश में विधायकों की तादाद 4120 है। देश में 633 जिला पंचायतों के कुल 15 हजार 581 सदस्य हैं। तो ढाई लाख ग्राम सभा में करीब 26 लाख सदस्य हैं। यानी सवा सौ करोड़ के देश को चलाने वाले यही लोग है, जिनकी तादाद मिला दी जाये ये ये 26,20,487 है। और इससे सौ गुना ज्यादा यानी 36 करोड 22 लाख, 96 हजारलोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। जो उन्हीं गांव, उन्हीं शहरों में रहते हैं जिन गांवों से जिला और शहर दर शहर से लेकर दिल्ली की संसद में बैठने के लिये हर सीट पर औसतन 10 से बारह लोग चुनाव लड़ने के लिये मैदान में उतरते ही हैं। यानी जितने लोग राजनीतिक तौर पर सक्रिय होते है, उनकी तादाद करीब तीन करोड़ 20 लाख तक होती है। और हर चुनाव लड़ने वाले के पीछे अगर दो लोग भी मान लिये जाये तो करीब साढे छह करोड़ लोगों की रुचि राजनीतिक सत्ता पाने की होड़ में जुटने की होती है। यानी देश के लोकतंत्र का दो ही सच है। एक तरफ राजनीतिक सत्ता पाने की होड में सक्रिय छह करोड़ लोगों से चुनाव के वक्त पैदा होने वाला रोजगार। जो गाहे बगा देश के 10 करोड़ लोगों को राजनीतिक कमाई के लिये सक्रिय तो कर ही देता है। और दूसरी तरफ अगर बीपीएल और एपीएल परिवारों के सच को समझें तो 78 करोड़ लोगों की जिन्दगी दो जून की रोटी मिले कैसे, उसी में कटती है। और देश का नायाब सच यह भी है कि मौजूदा वक्त में देश में 80 करोड़ वोटर है । और वोटर सबसे ज्यादा युवा हैं । और उसमें सबसे ज्यादा बेरोजगार युवा वोटरों की तादाद है। जिनके लिये देश 10 से 15 हजार रुपये महीने की नौकरी देने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि देश में चपरासी की नौकरी के लिये ग्रेजुएट और इंजीनियरिंग की डिग्री वाले भी अप्लाई कर रहे है।
यानी देश की राजनीतिक सत्ता में जो शामिल है या फिर राजनीतिक तौर पर जिसने खुद को सक्रिय कर लिया उसे दो जून की रोटी के लिये तरसना नहीं होगा क्योकि राजनीतिक लोकतंत्र देश में सबसे बडा रोजगार है। क्योंकि संसद से लेकर ग्रामसभा में चुनाव लडने के लिये जो पैसा खर्च करने की इजाजत है, वह ना तो समाज से मेल खाता है ना देश की इक्नामी से। लेकिन यही लोकतंत्र है। 30 से 45 दिनो के चुनाव प्रचार के दौर में बकायदा इजाजत है कि कि संसद के चुनाव में 70 लाख रुपये हर उम्मीदवार खर्च कर सकता है । विधानसभा चुनाव में 28 लाख रुपये हर उम्मीदवार खर्च कर सकता है । तो जिला पंचायत चुनाव में 5 लाख रुपये खर्च कर सकता है। और ग्राम सभा में 25 से 40 हजार रुपये तक गर उम्मीदवार खर्च कर सकता है। तो देश में लोकतंत्र का मिजाज ही उस राजनीतिक सत्ता की चौखट पर खड़ा कर दिया गया है जहा पैसा होगा तो राजनीतिक सत्ता का दरवाजा खुलेगा । राजनीतिक सक्रियता होगी तो ही रोजगार की जरुरत नहीं होगी । यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देश भारत का सच यही है कि यहा के राजनेता दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमेरिकी सत्ता से भी रईस है। लेकिन जिस लोकतंत्र को लोगों के लिये संवैधानिक तंत्र बनाकर जीने के अधिकार से जोड़ा गया, वह लोकतंत्र है कहां, ये सवाल 15 सितबंर यानी विश्व लोकतांत्रिक दिवस के दिन खोजना बेदह मुश्किल है। क्योंकि भारत में लोकतंत्र अगर चुनावी राजनीतिक सत्ता में बसता है, तो वह है कितना दागी ये सवाल खुद ही प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने उठाया था। जब जून 2014 में उन्होंने में संसद में कहा कि साल भर में हर वह सांसद जिस पर कोई मुकदमा चल रहा है वह अदालत में निपटा कर पहुंचे।
लेकिन ढाई बरस बीत गये और संयोग ऐसा है कि अब उस पर जवाब देने का वक्त आ गया है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र और चुनाव आयोग से पूछा है कि क्या दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए? दरअसल, याचिका में कहा गया है कि दागी नेताओं के मामलों की सुनवाई एक साल के भीतर हो और नेता दोषी पाए जाएं तो उन पर आजीवन पाबंदी लगाई जाए। तो अब जवाब मोदी सरकार को देना है कि वो इस मामले में क्या चाहती है। ये सवाल इसलिए अहम है क्योंकि एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि मोदी सरकार में ही 78 में से 24 मंत्री दागी हैं। तमाम राज्यों के 609 में से 210 मंत्री दागी हैं। इनमें 113 मंत्रियों पर तो गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। और देश की विधानसभाओं में 1258 विधायक दागी हैं। यानी यह राजनीतिक लोकतंत्र का ही कमाल है कि अपराध या भ्रष्टाचार राजनेता करें तो कोई फक्र किसी को
नहीं पड़ता। लेकिन लोकतंत्र के पर्व पर यानी राजनीतिक चुनाव के वक्त यही मुद्दा हर जुबा पर होता है । चाहे चुनाव कही हो अपराध , भ्रष्ट्रचार का जिक्र हर कोई करता है । याद किजिये बीजेपी ने यूपीए के दौर में घोटालो की फेरहिस्त बतायी थी । सत्यम घोटाला ,खाद्यान्न घोटाला ,हसन अली टैक्स चोरी,आदर्श सोसाइटी घोटाला,कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, टूजी स्पैक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला,सिंचाई घोटाला । और हर घोटाले पर आवाज बुलंद करते हुए दिल्ली ,से लेकर मुबंई तक में दोषियों को जेल में ठूंसने की बात कही गई। लेकिन हुआ क्या। और ये सिर्फ मोदी सरकार या केजरीवाल सरकार भर का नहीं है । महाराष्ट्र में तो सिंचाई घोटाले की आवाज सबसे जोर से मौजूदा सीएम देवेन्द्र फडनवीस ने ही उठाई थी । झारखंड में खनन घोटाले की आवाज
मौजूदा सीएम रधुवर दास ने ही उठायी थी । हरियाणा चुनाव में राबर्ट वाड्रा के खिलाफ बीजेपी ने क्या क्या नहीं कहा। लेकिन हुआ क्या। कोई जेल नहीं गया । आरोप प्रत्यारोप ही राजनीतिक सत्ता पाने के तरीके बना दिये गये । और इसे ही लोकतंत्र का राग मान लिया गया ।
और लोकतंत्र कैसे सियासी परिवारों के ताने बाने में उलझ जाता है यह नजारा खुले तौर पर बिहार यूपी में अब नजर भी आ रहा है । यूपी के सीएम अखिलेश परेशान है चचा शिवपाल से । बिहार के सीअम नीतिश कुमार परेशान है सहयोगी आरजेडी के सर्वौसर्वा लालू के राजनीतिक मिजाज से । शिवपाल खडे है अमर सिंह के साथ जिसे अखिलेश पचा नही पा रहे है । तो लालू खड़े है शहाबुद्दीन के साथ, जिसे नीतिश पचा नही पा रहे हैं। दोनों का दर्द अपने अपने तरीके से छलक रहा है। लेकिन यूपी के 20 करोड़ और बिहार के 10 करोड़ लोगों के सामने कौन सी मुश्किल है, इस पर जद्दोजहद करने की जगह दोनो ही उलझे हैं अपनी अपनी सत्ता को बेदाग बताने में । यानी सत्ता के परिवारों के लिये अपना लोकतंत्र और जनता का लोकतंत्र अलग । क्योकि बिहार यूपी के तीस करोड लोगों के दर्द को समझे तो शिक्षा, स्वास्थ्य , बिजली, पानी, उघोग हर क्षेत्र में दोनों राज्य इतने फिसड्डी
है कि देश के 29 राज्यो की फेहरिस्त में दोनों ही राज्यो की हालत हर क्षेत्र में बीस के उपर ही है । मसलन शिक्षा के क्षेत्र में यूपी का नंबर 23 वां है तो बिहार 29 वे नबंर पर । बिजली में यूपी 24 वें नंबर है तो बिहार 29 वें नंबर पर । पीने के पानी में यूपी का नंबर 28 वा है तो बिहार का नंबर 26 वां । उघोग के क्षेत्र में यूपी 22 वें नंबर है तो बिहार 25 वें नंबर पर । हेल्थ में यूपी 25 वें नंबर पर है तो बिहार 24 वेम नंबर पर । यानी न्यूनत जरुरतों से भी यूपी बिहार के लोग महरुम है । लेकिन लोकतंत्र का जामा पहनकर दोनों राज्यों की राजनीतिक सत्ता इसी में खोयी है कि कैसे सरकार बनी रहे या कैसे चुनाव में जीत मिल जाये क्योंकि लोकतंत्र का मतलब ही देश में राजनीतिक चुनाव को माना गया है। तो दुनिया में अबूझ लोकतंत्र के इस मॉडल को बिना देखे-समझे ही संयुक्त राष्ट्र ने 15 सितंबर को विश्व लोकतांत्रिक दिवस करार दे दिया। तो ठहाके लगाइये !