प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अफगानिस्तान के बाद कतर और स्विटजरलैंड गए और अब वे अमेरिका में हैं। अफगानिस्तान के बारे में हम लिख ही चुके हैं। उनकी कतर और स्विटजरलैंड की यात्राएं भी काफी सार्थक और सफल रहीं। भारत के राष्ट्रहित संपादित हुए। कतर के शासक ने मोदी की यात्रा के उपलक्ष्य में 23 भारतीय कैदियों को रिहा कर दिया। कतर के साथ छह समझौते भी किए। इन समझौतों से भारत-कतर व्यापार तो बढेगा ही, इस मालदार देश से बड़ी पूंजी भी भारत आ सकेगी। तेल की सप्लाई बढ़ेगी। इन फायदों के अलावा सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि शायद अब तालिबान पर कुछ लगाम लगेगी।
इस समय तालिबान ने कतर के दोहा नामक नगर को अपनी प्रवासी राजधानी बना रखा है। दोहा में रहकर ही वे दुनिया के देशों से वार्तालाप करते हैं। मोदी की यात्रा में आतंकवाद के विरुद्ध जो चर्चा हुई है, उसमें तालिबान की गतिविधियों पर लगाम लगाने की बात जरुर हुई होगी। इसके अलावा सउदी अरब के बाद अब कतर से संबंध बढ़ने का एक अर्थ यह भी है कि भारत और ईरान की निकटता को संतुलित किया जा रहा है। ईरान के साथ चाबहार के समझौते से खाड़ी के सुन्नी देशों के कान खड़े न हो जाएं, इस दृष्टि से यह कतर-यात्रा बहुत ही प्रासंगिक रही।
स्विटजरलैंड में तो चमत्कार ही हुआ है। कुछ अन्य यूरोपीय देशों से भी ज्यादा भारत का विरोध स्विटजरलैंड कर रहा था। वह भारत को परमाणु सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बनाने का घोर विरोधी रहा है लेकिन इस यात्रा के दौरान उसके राष्ट्रपति योहन श्नाइडर-अम्मान ने दो-टूक शब्दों में भारत का समर्थन कर दिया है। जाहिर है, इसका प्रभाव अन्य देशों पर भी जरुर पड़ेगा। सिओल में होने वाली इस ग्रुप की बैठक में अब शायद चीन अकेला पड़ जाएगा, जो भारत का विरोध करेगा।
इस सफलता के अलावा दोनों नेताओं के बीच काले धन को पकड़ने पर कुछ ठोस बात हुई है। स्विस राष्ट्रपति ने पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया है। स्विस पूंजी के भारत आने के भी नए रास्ते खुले हैं। अमेरिका तो भारत का डटकर समर्थन कर ही रहा है। यदि भारत परमाणु सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बन जाता है तो उसे 48 देशों के साथ परमाणु ईंधन, तकनीक और यंत्र आदि बेचने और खरीदने की सुविधा मिल जाएगी। अमेरिका के साथ 2008 में हुआ सौदा भी तब कारगर हो सकेगा। चीन के अलावा चारों महाशक्तियां चाहती है कि भारत इस ग्रुप का सदस्य बने, क्योंकि परमाणु-अप्रसार के बारे में उसका आचरण निष्कलंक रहा है।