मिशनरी संस्थाएँ और एनजीओ :- बाल श्रमिक तथा यौन शोषण दुष्चक्र 

हमारे भारत के “तथाकथित मेनस्ट्रीम” मीडिया में कभीकभार भूले-भटके महानगरों में काम करने वाले घरेलू नौकरों अथवा नौकरानियों पर होने वाले अत्याचारों एवं शोषण की दहला देने वाली कथाएँ प्रस्तुत होती हैं. परन्तु चैनलों अथवा अखबारों से जिस खोजी पत्रकारिता की अपेक्षा की जाती है वह इस मामले में बिलकुल नदारद पाई जाती है. आदिवासी इलाके से फुसलाकर लाए गए गरीब नौकरों-नौकरानियों की दर्दनाक दास्तान बड़ी मुश्किल से ही “हेडलाइन”, “ब्रेकिंग न्यूज़” या किसी “स्टिंग स्टोरी” में स्थान पाती हैं. ऐसा क्यों होता है? जब एक स्वयंसेवी संस्था ने ऐसे कुछ मामलों में अपने नाम-पते गुप्त रखकर तथा पहचान छिपाकर खोजबीन और जाँच की तब कई चौंकाने वाले खुलासे हुए. दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता-अहमदाबाद जैसे महानगरों में की गई इस जाँच से पता चला कि बड़े-बड़े शक्तिशाली NGOs तथा कई मिशनरी संस्थाएँ एक बड़े “रैकेट” के रूप में इस करोड़ों रूपए के “धंधे” को चला रही हैं.

इस संस्था को जितनी जानकारी प्राप्त हुई है उसके अनुसार इन NGOs एवं मिशनरी संस्थाओं की कार्यशैली इस प्रकार है. सबसे पहले ईसाई मिशनरियाँ भारत के दूरदराज आदिवासी क्षेत्रों में गरीब आदिवासियों को शहर में अच्छी नौकरी और परिवार को नियमित मासिक धन का ऐसा लालच देती हैं कि उसे नकार पाना मुश्किल ही होता है. उस गरीब परिवार की एक लड़की को वह संस्था पहले अपनी शरण में लेकर ईसाई बनाती है और उसे महानगर में उन्हीं की किसी कथित “प्लेसमेंट एजेंसी” के जरिये नौकरानी बनाकर भेज देती है. यह प्लेसमेंट एजेंसी उस धनाढ्य परिवार से पहले ही 30 से 50,000 रूपए “विश्वसनीय नौकरानी” की फीस के रूप में वसूल लेते हैं.

गाँव में बैठी मिशनरी संस्था और महानगरों की एजेंसी के बीच में भी “दलालों” की एक कड़ी होती है, जो इन नौकरों-नौकरानियों को बेचने अथवा ट्रांसफर करने का काम करते हैं. यह एक तरह से “मार्केट सप्लाय चेन” के रूप में काम करता है और प्रत्येक स्तर पर धन का लेन-देन किया जाता है. महानगर में जो कथित प्लेसमेंट एजेंसी होती है, वह इन नौकरानियों को किसी भी घर में चार-छह माह से अधिक टिकने नहीं देती और लगातार अलग-अलग घरों में स्थानान्तरित किया जाता है. जो परिवार पूरी तरह सिर्फ नौकरों के भरोसे रहते हैं, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके यहाँ कौन काम कर रहा है, क्योंकि उन्हें तो सिर्फ अपने काम पूर्ण होने से मतलब रहता है. चूँकि विश्वसनीयता (खासकर उस नौकर द्वारा चोरी करने वगैरह) की जिम्मेदारी उस एजेंसी की होती है, इसलिए मालिक को कोई फर्क नहीं पड़ता कि नौकरानी कौन है, कहाँ से आई है या चार महीने में ही क्यों बदल गई? इस प्रकार यह प्लेसमेंट एजेंसी एक ही नौकरानी को तीन-चार-छः घरों में स्थानांतरित करते हुए उन धनाढ्यों से धन वसूलती रहती है.

सामान्यतः इन घरेलू नौकरानियों को ना तो अच्छी हिन्दी आती है और ना ही अंग्रेजी. चूँकि उधर सुदूर गाँव में मिशनरी ने मोर्चा संभाला हुआ होता है, इसलिए परिवार को भी कोई चिंता नहीं होती, क्योंकि उस नौकरानी के वेतन में से अपना कमीशन काटकर वह NGO उस परिवार को प्रतिमाह एक राशि देता है, इसलिए वे कोई शिकायत नहीं करते. परन्तु इधर महानगर में वह नौकरानी सतत तनाव में रहती है और बार-बार घर बदलने तथा प्लेसमेंट एजेंसी अथवा NGO पर अत्यधिक निर्भरता के कारण अवसादग्रस्त हो जाती है. इसी बीच इन तमाम कड़ियों में कुछ व्यक्ति ऐसे भी निकल आते हैं जो इनका यौन शोषण कर लेते हैं, परन्तु परिवार से कट चुकी इन लड़कियों के पास वहीं टिके रहने के अलावा कोई चारा नहीं होता. एक अनुमान के मुताबिक़ अकेले दिल्ली में लगभग 6000 ऐसी नौकरानियां काम कर रही हैं. जबकि उधर दूरस्थ आदिवासी इलाके में उसका परिवार चर्च से एकमुश्त मोटी रकम लेकर धर्मान्तरित ईसाई बन चुका होता है.

अपने “शिकार” पर मजबूत पकड़ तथा इन संस्थाओं की गुण्डागर्दी की एक घटना हाल ही में दिल्ली में दिखाई दी थी, जब एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में ऊँचे वेतन पर पदस्थ एक महिला को दिल्ली पुलिस ने अपनी “नौकरानी पर अत्याचार” के मामले में थाने पर बैठा लिया था. महिला पर आरोप था कि उसने एक नाबालिग आदिवासी लड़की के साथ मारपीट की है. पुलिस जाँच में पता चला कि वह लड़की झारखण्ड के संथाल क्षेत्र से आई है और उसका परिवार बेहद गरीब है. हमारी “सनसनी-प्रिय” मीडिया ने खबर को हाथोंहाथ लपका और दिन भर “बालश्रम” विषय पर तमाम लेक्चर झाडे, खबरें बनाईं. जाँच में आगे पता चला कि उस लड़की को सिर्फ तीन माह पहले ही उस संभ्रांत महिला के यहाँ किसी एजेंसी द्वारा लाया गया था और इससे पहले कम से कम बीस घरों में वह इसी प्रकार काम कर चुकी थी. दिल्ली पुलिस ने जब झारखंड संपर्क किया तो पता चला कि लड़की 18 वर्ष पूर्ण कर चुकी है. यहाँ पर पेंच यह है कि जब उस महिला ने पुलिस को पैसा खिलाने से इनकार कर दिया तब पुलिस ने मामला रफा-दफा कर दिया, जबकि होना यह चाहिए था कि पुलिस उस नौकरानी द्वारा काम किए पिछले सभी घरों की जाँच करती (क्योंकि तब वह नाबालिग थी) और साथ ही उस कथित प्लेसमेंट एजेंसी के कर्ताधर्ताओं की भी जमकर खबर लेती, तो तुरंत ही यह “रैकेट” पकड़ में आ जाता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि जिस NGO और मिशनरी संस्था से उस एजेंसी की साँठगाँठ थी, उसने ऊपर से कोई राजनैतिक दवाब डलवा दिया और वह नौकरानी चुपचाप किसी और मालिक के यहाँ शिफ्ट कर दी गई. केस खत्म हो गया.

दिल्ली पुलिस के अधिकारी भी इस रैकेट के बारे में काफी कुछ जानते हैं, परन्तु कोई भी कार्रवाई करने से पहले उन्हें बहुत सोचना पड़ता है. क्योंकि अव्वल तो वह नौकरानी “ईसाई धर्मान्तरित” होती है, और उसके पीछे उसका बचाव करने वाली शक्तिशाली मिशनरी संस्थाएँ, NGOs होते हैं, जिनके तार बड़े राजनेताओं से लेकर झारखंड-उड़ीसा के दूरदराज स्थानीय संपर्कों तक जुड़े होते हैं. इन्हीं संगठनों द्वारा ऐसे ही कामों और ब्लैकमेलिंग के लिए महानगरों में कई मानवाधिकार संगठन भी खड़े किए होते हैं. इसलिए पुलिस इनसे बचकर दूर ही रहती है. दिल्ली की उस संभ्रांत महिला के मामले में भी यही हुआ कि वृंदा करात तत्काल मामले में कूद पड़ी और उस महिला पर दबाव बनाते हुए उसे शोषण, अत्याचार वगैरह का दोषी बता डाला, लेकिन इस बात की माँग नहीं की, कि उस एजेंसी तथा उस नौकरानी के पूर्व-मालिकों की भी जाँच हो. क्योंकि यदि ऐसा होता तो पूरी की पूरी “सप्लाय चेन” की पोल खुलने का खतरा था. यही रवैया दूसरे राजनैतिक दलों का भी रहता है. उन्हें भी अपने आदिवासी गरीब वोट बैंक, मिशनरी संस्थाओं से मिलने वाले चन्दे और दूरदराज में काम कर रहे NGOs से कार्यकर्ता आदि मिलते हैं. इसलिए कोई भी राजनैतिक दल इस मामले में गंभीर नहीं है और यथास्थिति बनाए रखता है.

 

बालश्रम, शोषण के ऐसे मामलों में कुछ शातिर NGOs इसमें भी ब्लैकमेलिंग के रास्ते खोज लेते हैं. चूँकि उनके पास संसाधन हैं, अनुभव है, नेटवर्क है, तो वे धनाढ्य परिवार को धमकाते हैं कि यदि वे अपनी भलाई चाहते हों तथा पुलिस के चक्करों से बचना चाहते हों तो फलाँ राशि उन्हें दें अन्यथा नौकरानी कैमरे और पुलिस के सामने कह देगी कि उसके साथ यौन शोषण भी किया गया है. पुलिस के अनुसार कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि जब उस एजेंसी (अथवा NGO) को यह लगने लगता है कि बात बिगड़ने वाली है या अब उस परिवार को नौकरानी की जरूरत नहीं रहेगी इसलिए भविष्य में उस परिवार से उनकी आमदनी का जरिया खत्म होने वाला है तो वे इन्हीं नौकरानियों को डरा-धमकाकर महँगे माल की चोरी करवाकर उन्हें रातोंरात वापस उनके गाँव भेज देती हैं. यदि कभी कोई लड़की गलती से तेजतर्रार निकली, बातचीत अच्छे से कर लेती हो, थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी सीख चुकी है तो उसे “गोद लेने” के नाम पर अपने किसी विदेशी नेटवर्क के जरिये यूरोप अथवा खाड़ी देशों में भेज दी जाती है.

भारत के मीडिया के बारे में तो कहना ही क्या?? “खोजी पत्रकारिता” किस चिड़िया का नाम है, ये तो वे बरसों पहले भूल चुके हैं. इतने सारे संसाधन और रसूख होने के बावजूद उन्हें मानवता से कोई लेना-देना नहीं. किसी घरेलू नौकरानी के शोषण और अत्याचार का मामला उनके लिए TRP बढ़ाने और सनसनीखेज खबर बनाने का माध्यम भर होता है, उन्हें इस बात की कतई चिंता नहीं है कि आखिर ये नौकरानियाँ कहाँ से आती हैं? क्यों आती हैं? कौन इन्हें लाता है? इनका पूरा वेतन क्या वास्तव में उनके ही पास अथवा परिवार के पास पहुँचता है या नहीं? “प्लेसमेंट एजेंसी” क्या काम कर रही है? उनकी फीस कितनी है? ऐसे अनगिनत सवाल हैं परन्तु मीडिया, नेता, पुलिस, तंत्र सभी खामोश हैं और उधर खबर आती है कि 2014-15 में पश्चिम बंगाल से सर्वाधिक 11,000 लड़कियाँ रहस्यमयी तरीके से गायब हुई हैं, जिनका कोई एक साल से कोई अतापता नहीं चला.

यदि केन्द्र सरकार अपनी सक्षम एजेंसियों के मार्फ़त महानगरों में काम करने वाली नौकरानियों के बारे में एक विस्तृत जाँच करवाए तो कई जाने-माने मिशनरी संस्थाएँ एवं NGOs के चेहरे से नकाब उतारा जा सकता है, जो दिन में “Save the Girl Child”, “Donate for a Girl Child” के नारे लगाते हैं, लेकिन रात में “मानव तस्कर” बन जाते हैं…