महाराजा हरि सिंह जम्मू कश्मीर के अंतिम शासक थे । उन का नाम राज्य के उन शासकों में आता है जिन्होंने अपने प्रगतिशील दृष्टिकोण के कारण राज्य में अनेक सुधार किये और शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिये अनेक कार्य किये । वे आर्यसमाजी थे इसलिये उन्होंने राज्य में दलित समाज के लिये मंदिरों के दरवाज़े उस समय खोल दिये थे , जब अन्य रियासतों में इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था । प्रशासन के लोकतंत्रीकरण के लिये उन्होंने रियासत में प्रजा सभा के नाम से विधान सभा की स्थापना कर दी थी ।
लेकिन शासन के अंतिम दिनों में जिन से वे सर्वाधिक दुखी व नाराज़ थे वे दो लोग थे । पहले शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला और दूसरे उनके अपने सुपुत्र डा० कर्ण सिंह । शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने पंडित नेहरु को , जो मूल रुप से कश्मीरी थे, अपने साथ मिला कर महाराजा हरि सिंह को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । अब्दुल्ला ने अपनी पार्टी नैशनल कान्फ्रेंस के माध्यम से रियासत में से राजशाही को समाप्त करने का आन्दोलन छेड़ रखा था , यह महाराजा के लिये कोई बहुत बड़ा दुख का कारण नहीं था । इतना तो वे समझ ही चुके थे कि अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद पूरे देश में एक समान सांविधानिक शासन व्यवस्था लागू करने की माँग ज़ोर पकड़ रही है और देर सवेर राजशाही शासन प्रणाली को जाना ही होगा । उन्होंने तो स्वयं जम्मू कश्मीर को इस नई शासन व्यवस्था में शामिल करने के लिये पहल कर दी थी । देश भर की बाक़ी रियासतों में से भी राजशाही समाप्त हो रही थी और बड़ी रियासतों के शासकों को नई सांविधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी रियासतों का , जिन्हें नई सांविधानिक व्यवस्था में बी श्रेणी के राज्य कहा गया था , राजप्रमुख नियुक्त कर दिया गया था । महाराजा हरि सिंह भी इसी व्यवस्था के तहत जम्मू कश्मीर राज्य के राजप्रमुख बने थे । लेकिन शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का उद्देश्य तो महाराजा हरि सिंह को अपमानित करना था , उन महाराजा हरि सिंह को , जिन्होंने नेहरु के आग्रह पर बिना कोई चुनाव करवाये शेख़ को रियासत का प्रधानमंत्री बना दिया था ,वह भी उन मेहरचन्द महाजन को हटा कर जिनकी योग्यता की धाक सारे देश में थी ।
लेकिन शेख़ अब्दुल्ला और नेहरु की जोड़ी को महाराजा के इतने अपमान भर से संतोष नहीं हुआ । उन्होंने राज्य के राजप्रमुख को ही राज्य से निष्कासित कर देने का षड्यंत्र रचना शुरु कर दिया । यह महाराजा हरि सिंह के लिये अपमान की पराकाष्ठा थी । लेकिन शेख़ अब्दुल्ला इस के लिये वजिद थे और नेहरु इस गेम में उसके साथी थे । लेकिन इसमें एक ही बाधा थी । उस बाधा को दूर किये बिना महाराजा हरि सिंह को रियासत से निष्कासित करना संभव नहीं था । जब तक महाराजा की गैरहाजिरी में उनका कोई रीजैंट यानि प्रतिनिधि न मिल जाये तब तक उनको रियासत से बाहर नहीं निकाला जा सकता था । यह रीजैंट या प्रतिनिधि उनका बेटा ही हो सकता था । महाराजा हरि सिंह का केवल एक ही बेटा था जिसका नाम कर्ण सिंह था/है , और उसके पिता उसे टाइगर कहा करते थे ।
जीवन में आये इस सबसे बड़े संकट में महाराजा हरि सिंह की पूरी टेक अब अपने बेटे कर्ण सिंह पर ही टिकी हुई थी । यदि कर्ण सिंह रीजैंट बनने से इन्कार देता है तो शेख़ अब्दुल्ला और नेहरु की जोड़ी चाह कर भी महाराजा हरि सिंह को जम्मू कश्मीर से निष्कासित नहीं कर पायेगी । शेख़ अब्दुल्ला और नेहरु भी जानते थे कि तुरप का पत्ता इस समय कर्ण सिंह ही है । कर्ण सिंह यदि अपने पिता महाराजा हरि सिंह के साथ खड़ा हो जाता है तो जीत महाराजा की होगी और कर्ण सिंह यदि शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला के साथ चला जाता है तो जीत नेहरु और शेख़ अब्दुल्ला की जोड़ी की होगी । सारा जम्मू कश्मीर , ख़ास कर जम्मू और लद्दाख के लोग कर्ण सिंह की ओर , साँस रोके टकटकी लगा कर देख रहे थे । लेकिन संकट की उस घड़ी में कर्ण सिंह ने अपने पिता के साथ खड़ा होने की बजाय नेहरु और शेख़ के साथ चले जाने का फ़ैसला किया । उन्होंने रीजैंट बनने के नेहरु के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । महाराजा हरि सिंह के अपने टाइगर ने उन्हें ज़िन्दगी का सबसे गहरा घाव दिया । यह शायद महाराजा हरि सिंह के जीवन की सबसे बड़ी हार थी जो उसे किसी और से नहीं बल्कि अपने ही सुपुत्र से मिली थी । उसके बाद महाराजा हरि सिंह मुम्बई चले गये और जीवन भर कभी जम्मू कश्मीर में वापिस नहीं आये । कहा जाता है कि उन्होंने कह दिया था कि उनकी मृत देह को भी कर्ण सिंह हाथ न लगाये । शायद भगवान ने ही उनके इस प्रण की रक्षा की । जब उनकी मृत्यु हुई तो कर्ण सिंह विदेश में थे और उनकी गैरहाजिरी में ही महाराजा हरि सिंह का दाह संस्कार हुआ ।
ध्यान रखना होगा कि महाराज हरि सिंह का शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला से कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं था । यदि व्यक्तिगत विरोध होता तो शायद उसका परिणाम कुछ और निकलता । जिन दिनों हरि सिंह राज्य के शासक थे , उन दिनों किसी ने सुझाव दिया कि शेख़ अब्दुल्ला आपका इस प्रकार विरोध कर रहा है , उसका खात्मा क्यों नहीं करवा देते ? राजशाही में , उन दिनों रियासतों में यह आम बात होती थी । हरि सिंह ने उत्तर दिया था , यह मुद्दों की लड़ाई है और इसे इसी धरातल पर लड़ना चाहिये । शेख़ अब्दुल्ला भारत को खंडित करने के प्रयासों में जुटे हुये थे । उनका चिन्तन पंथ निरपेक्ष न होकर , कश्मीर घाटी को मुसलमानों का राज्य बनाने पर आधारित था । वे चाहते थे कि राज्य की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भारत उठाये और घाटी व्यवहारिक रुप में इस्लामी राज्य बने । इसके विपरीत महाराजा हरि सिंह वर्तमान परिस्थियों में भारत में समान शासन व्यवस्था के पक्षधर थे और इस अभियान में जम्मू कश्मीर को भी शामिल कर चुके थे । इस प्रकार १९४७ में महाराजा हरि सिंह एक पक्ष था , जिसे सरदार पटेल का समर्थन प्राप्त था और शेख़ अब्दुल्ला व नेहरु का दूसरा पक्ष था । जैसा कि उपर लिखा जा चुका है जब निर्णय की घड़ी आई तो कर्ण सिंह , अपने पिता का साथ छोड़ कर नेहरु-शेख़ खेमे में शामिल हो गये । क्योंकि कर्ण सिंह के अनुसार अब महाराजा हरि सिंह भूतकाल थे और नेहरु भविष्यकाल । करे । सिंह को अब अपने राजनैतिक जीवन के भविष्यकाल को सुरक्षित करना था । यह महाराजा हरि सिंह पर पहला घातक प्रहार था जो उनके जीवन काल में उन्हीं के सुपुत्र द्वारा किया गया था ।
लेकिन महाराजा हरि सिंह के अपमान की यह गाथा यहीं समाप्त नहीं हुई । यह उनके मरने के बाद भी जारी है । २००८ में महाराजा हरि सिंह के पौत्र और कर्ण सिंह के सुपुत्र अजात शत्रु , अब्दुल्ला परिवार की पार्टी नैशनल कान्फ्रेंस में ही शामिल हो गये । उस नैशनल कान्फ्रेंस में , जिस की अलगाववादी नीतियों के ख़िलाफ़ महाराजा हरि सिंह ने मोर्चा संभाला था । ऐसा नहीं कि नैशनल कान्फ्रेंस इतने लम्बे अरसे में बदल गई थी और उसकी इन बदली हुई नीतियों के कारण अजात शत्रु नैशनल कान्फ्रेंस में शामिल हुये थे । यदि कान्फ्रेंस ने कश्मीर घाटी को लेकर अपना चिन्तन बदल लिया होता , तब उसमें अजात शत्रु शामिल होने पर किसी को क्या एतराज़ हो सकता था ? नैशनल कान्फ्रेंस वहीं खड़ी थी , जहाँ वह महाराजा हरि सिंह के जम्मू कश्मीर छोड़ते वक़्त खड़ी थी । अब भी शेख़ अब्दुल्ला के बेटे फ़ारूक़ अब्दुल्ला राज्य की विधान सभा में आँखों में आँसू भर कर कहते थे कि भारत और पाकिस्तान की लड़ाई में कश्मीर पिस रहा है । वे अब भी अपने बाप की तर्ज़ पर कश्मीर को भारत से अलग तीसरा पक्ष ही मान रहे थे । अजात शत्रु का नैशनल कान्फ्रेंस में शामिल होना राजनैतिक अवसरवादिता की पराकाष्ठा थी या फिर वैचारिक पलायनवादिता का निकृष्टतम उदाहरण , इसका फ़ैसला तो इतिहास ही करेगा लेकिन दिंवगत महाराजा हरि सिंह की आत्मा पर यह उन्हीं के पौत्र द्वारा किया गया दूसरा प्रहार था ।
कश्मीर घाटी में से नैशनल कान्फ्रेंस को अपदस्थ करने के लिये मुफ़्ती मोहम्मद सैयद ने घाटी में पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी या पी डी पी का गठन कर लिया । अब कश्मीर घाटी में सत्ता के दो दावेदार हो गये हैं । पहली नैशनल कान्फ्रेंस और दूसरी पी.डी. पी । ज़ाहिर है यदि नैशनल कान्फ्रेंस को अपदस्थ करना होगा तो पी.डी.पी को उससे भी उँचा नारा देना पड़ेगा । एक साँपनाथ दूसरा नागनाथ । एन.सी और पी.डी.पी में वैचारिक आधार पर शायद ही कोई अन्तर हो । पहला स्वायत्तता के नाम पर और दूसरा सेल्फ़ रुल के नाम पर , महाराजा गुलाब सिंह द्वारा भारत की एकता और अखंडता बनाये रखने के लिये किये गये परिणामों को पलीता लगाने के षड्यंत्रों में लगे रहते हैं । नेहरु वंश की कृपा से जम्मू कश्मीर में सत्ता एक बार नैशनल कान्फ्रेंस और दूसरी बार पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी के पास चले जाने की संभावना बनी रहती है । इन्हीं संभावनाओं में अपने सत्ता सुख की संभावनाओं को तलाशते हुये , अब कर्ण सिंह का दूसरा बेटा , विक्रमादित्य कुछ दिन पहले मुफ़्ती मोहम्मद सैयद की पी.डी.पी में शामिल हो गया । महाराजा हरि सिंह को अपमानित करने का उन्हीं के वंशजों द्वारा यह तीसरा प्रयास है ।
महाराजा गुलाब सिंह ने विदेशी शक्तियों को उखाड़ कर अफ़ग़ानिस्तान के दरवाज़े तक भारत का ध्वज फहरा दिया था । उसी गुलाब सिंह के वंशज महाराजा हरि सिंह ने लंदन की गोलमेज़ कान्फ्रेंस में जाकर अंग्रेज़ी सत्ता को ललकार दिया था । उसका बदला लेने के लिये लार्ड माऊंटबेटन ने नेहरु और शेख़ अब्दुल्ला को साथ लेकर महाराजा हरि सिंह को अपमानित करने का सिलसिला १९४७ में शुरु किया । अपने सत्ता सुख और भौतिक सम्पत्ति की रक्षा के मोह में कर्ण सिंह भी उसी गुट में शामिल हो गये जो हरि सिंह को अपमानित करने में ही आनन्द की अनुभूति ले रहे थे । और आज उनके बेटे भी सत्ता सुख की खोज में उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं । महाराजा हरि सिंह की आत्मा अपने ही परिवार द्वारा किये जा रहे इस विश्वासघात से निश्चय ही छटपटा रही होगी ।