सौ बार झूठ को भी दोहराओ तो वह भी सच से ज्यादा सच लगने लगता है और सच-झूठ के भेद का ज्ञान भी जाता रहता है। आज कुछ ऐसा ही भ्रष्टाचार को लेकर हो रहा है। आज भ्रष्टाचार हमारी रगो में इस कदर प्रवेश कर गया है कि ईमानदारी भी अब बैमानी सी लगने लगी है और बहुत कुछ हद तक भ्रष्टाचार को हम सुविधानुसार लीगल भी मान बैठे है। भ्रष्टाचार तब और भी कलंक और स्याह हो जाता है जब यह जन सेवक और जन प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। ये कही न कही जनता की अमानत में खयानत है। यह कृत्य न केवल दण्डनीय अपराध है बल्कि अक्षम्य भी है। आज क्या जन सेवक, क्या जनप्रतिनिधि इतने निरंकुश होते जा रहे है कि चोरी ऊपर से सीना जोरी की तर्ज पर कार्य कर रहे है। जनता अगर ज्यादा हो हल्ला करें तो कहते है कि जांच करा ले, कोर्ट जाए। भारत में पूर्व में हुई जांचों का क्या हश्र हुआ सभी के सामने है। आज जांच निषकलंक होने के प्रमाण पत्र का जरिया मात्र बन गई है, रहा सवाल कोर्ट-कचहरी का तो हर किसी के बूते का काम नहीं है।
अब ऐसा लगता है कि राजनीतिक पार्टियों का भ्रष्टाचार के बिना गुजारा ही असंभव सा हो गया है। तभी तो आज भ्रष्टाचार के महासंग्राम में हर राजनीतिक पार्टी भ्रष्ट और महाभ्रष्ट के द्वंद में संलिप्त है।
विगत् दो वर्षों में जन आंदोलनों के मंथन में घोटाले एवं महाघोटालों के बीच हर कोई अपने को देवता एवं सामने बाते को चोर और महाभ्रष्ट एवं घोटाले बाज सिद्ध करने में जुटा हुआ है।
अन्ना के आंदोलन ने एक ओर जन लोकपाल की जो मुहिम छेड़ी उससे ये बात अलग है कि वह बिल पास नहीं करा पाए लेकिन उनके आंदोलन का सुखद पहलू जो रहा न केवल आम आदमी जागरूक हो भ्रष्टाचार के खिलाफ ताल ठोकने लगा है और कल तक जो नेता/मंत्री अपने को दूध का धुला और सामने वाले को चोर बता चांदी काट रहे थे वे सभी एक के बाद एक ब्याज के छिलके की तरह उधड़ते जा रहे है। इसमें क्या नेता, क्या उद्योगपति, क्या ठेकेदार, क्या अधिकारी सभी के असली चेहरे जनमानस के सामने उजागर होते ही जा रहे हैं।
अरविंद केजरीवाल अब जो ‘‘मैं आम आदमी हूं’’ का नारा दे राजनीतिक लोगों से निपटने के लिए राजनीतिक पार्टी बना राजनीति के दल में महासंग्राम के लिए उतर चुके है। केजरीवाल ने गैर राजनीतिक रार्बट वार्डªा, राजनीतिक वीरभद्र, सलमान खुर्शीद, नितिन गडकरी, उद्योगपति अम्बानी पर भ्रष्टाचार पर हमला बोल सभी के बीच खलबली एवं बेैचेनी पैदा कर दी है।
आज जन प्रतिनिधि और मंत्रियों ने व्यापार और राजनीति में कुछ इस तरह का घालमेल पैदा कर दिया है कि यही समझ में नहीं आ रहा है कि राजनीति बीच व्यापार है कि व्यापार बीच राजनीति है कि राजनीति ही व्यापार है।
आज भारत में भ्रष्टाचार को ले कोई भी नेता एवं पार्टी पाक-साफ नहीं है सभी भ्रष्टाचार के जंगल में हुआ-हुआ कर रहे है, जांच-जांच का खेल, खेल रहे है, राजनीतिक पार्टियां घरानों में परिवर्तित हो रही है। आज देश के नेताओं के पास देश के विकास के ऐजेन्डे की जगह निजी जिंदगी में तांक-झांक अब प्रमुख एजेण्डा हो गया है, ईमानदार और ईमानदारी एक गाली सी लगने लगी है। सभी भ्रष्टाचारी आपस मिल ईमानदार की इज्जत का ऐसा पंचनामा बनाते है कि बलात्कारी भी शरमा जाए।
यूं तो सभी पार्टीयों के नामी गिरामी नेताओं के दामन दागदार है फिर बात चाहे भाजपा के बंगारू लक्ष्मण (तहलका काण्ड), नितिन गडकरी की 19 कंपनियों के पते में घालमेल, डी.एम.के पार्टी के ए. राजा, कनिमोझी (2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला), दयानिधि मारन (पद का दुरूपयोग कर लाभ पहुंचाने) राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव (चारा घोटाला) बसपा की बहिन मायावती (ताज कारीडोर), कांग्रेस पार्टी के सुरेश कलमाडी (कामनवेल्थ गेम घोटाला), अशोक चव्हाण, विलासराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे (आदर्श सोसायटी घोटाला), निर्दलीय मधु कोड़ा (मनी लांटरिंग), समता पार्टी के जार्ज फर्नाडिस (ताबूत कांड) ये तो मात्र कुछ चुनिंदा उदाहरण है वैसे ऐसे लोगों की फेहरिस्त लम्बी हैं।
हकीकत में देखा जाए तो भारत की जनता को तो सिर्फ इतना मतलब है कि जो भी भ्रष्टाचारी है, चोर है, सरकारी खजाने को चूना लगाया है उसे शीघ्र अतिशीघ्र जेल में ही होना चाहिए न कि बचाव।
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि व्यक्तियों के बचाव में पार्टी की छबि खराब नहीं होना चाहिए, व्यक्तिगत् आरोपों एवं प्रत्यारोपों पर भी कड़ी कार्यवाही होना चाहिए फिर चाहे वह व्यक्ति कितना भी बड़ा क्यों न हो।
बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की नीति एवं मुद्दों पर राजनीति न हो, देश को चलाने के लिए जनता ने जन प्रतिनिधि के रूप में चुनकर देश सेवा के लिए सेवक के रूप में भेजा है, सेवक ही रहे शासक एवं तानाशाह न बने वर्ना जनता का क्रोध ऐसे लोगों को पटिये पर लाते भी देर नही करता।