भोपाल की जेल से भागनेवाले आतंकियों को मारकर मप्र की पुलिस ने अनुकरणीय काम किया है। उसने भावी भगोड़ों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ा दी होगी। यदि सरकार अपनी जेलों के दरवाजे खोल भी दे तो भी आतंकवादी भागना पसंद नहीं करेंगे। वे मरने की बजाय जेल में मुफ्त की रोटियां तोड़ना ज्यादा पसंद करेंगे। 2013 में खंडवा जेल से भागे हुए आतंकियों ने आत्म-समर्पण कर दिया, वरना वे भी इसी तरह मारे जाते। खंडवा जेल के उन्हीं आतंकियों ने भोपाल जेल के अपने साथियों को ‘दूसरा खंडवा’ कर दिखाने के लिए उकसाया होगा। उन्होंने साजिश भी काफी तगड़ी की थी। सबसे पहले उन्होंने सीसीटीवी के कैमरे के तार काट दिए और दीवार फांदने के लिए बिस्तर की चादरों से रस्सी का काम लिया। इन सब कामों के लिए उन्होंने कौनसी रात चुनी? दीवाली की रात! वह रात जब बड़े अफसर प्रायः छुट्टी पर होते हैं और साधारण जवान और कैदी भी उत्सव के मूड में होते हैं। लेकिन हवलदार रमाशंकर यादव ने अपनी जान पर खेलकर इन भगोड़े कायरों को रोका। एक हवलदार और आठ मुस्तंडें ! उन्होंने यादव की हत्या कर दी और एक अन्य जवान को अधमरा कर दिया। क्या उन्होंने कुछ हथियारों का इस्तेमाल नहीं किया होगा? क्या उन्होंने इन पुलिसवालों के हथियार वहीं पड़े रहने दिए होंगे? वे कायर आतंकी हैं, कुश्ती लड़नेवाले पहलवान नहीं। वे निहत्थों पर वार करनेवाले निर्मम शस्त्रधारी होते हैं। वे जंगली पशुओं से भी अधिक खूंखार होते हैं। मानव अधिकार आयोग ने सारे मामले पर मप्र सरकार से रपट मांगी है, सो, तो उसने ठीक किया लेकिन उसे पहले यह भी तय करना चाहिए कि मानव कौन है और अधिकार किसके होते हैं? जिनके अधिकार होते हैं, उनके कुछ कर्तव्य भी होते हैं या नहीं होते हैं?
जब सुबह-सुबह टीवी चैनलों से सारे देश में यह खबर आग की तरह फैली की भोपाल जेल को तोड़कर आतंकी अंधरे में भाग निकले हैं तो सारे देश में सनसनी फैल गई। भोपाल, इंदौर, ग्वालियर से फोन पर फोन आने लगे। लोग डर गए। त्यौहार के दिन सबको अपनी सुरक्षा की चिंता सताने लगी। यदि ये आतंकवादी मारे या पकड़े नहीं जाते तो यह समझ लीजिए कि मप्र की शिवराज चौहान और केंद्र की मोदी सरकार पर इतना जबर्दस्त हमला होता कि उनका जीना हराम हो जाता। विरोधी तो उन्हें उल्टा टांगने की कोशिश करते ही, जनता में भी 56 इंच के सीने की मजाक उड़ जाती। प्रांत और केंद्र, दोनों की सरकारें भाजपा की हैं। भोपाल की सजा दिल्ली को भी भुगतनी पड़ती। आतंकियों के हौसले और बुलंद हो जाते लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज चौहान और उनकी पुलिस ने वह काम कर दिखाया कि देश की आम जनता उन्हें बधाइयां दे रही हैं। लेकिन इन बधाइयों ने देश के अनेक बयानवीर नेताओं को निराश कर दिया। फिर भी वे माने नहीं। उन्होंने नया रास्ता निकाल लिया। वे कहने लगे कि आतंकियों और मप्र पुलिस के बीच जो मुठभेड़ हुई, वह फर्जी है। पहले भी उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ की गई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को ‘फर्जीकल स्ट्राइक’ कह दिया था लेकिन इन दोनों की तुलना करना सही नहीं है। ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के प्रमाण तो केंद्र सरकार ने आज तक नहीं दिखाए हैं जबकि भोपाल के पास ईंटाखेड़ी में जो हुआ है, उसे करोड़ों लोग अब तक देख चुके हैं।
इस मुठभेड़ के बारे में भी कई शंकाएं उठा दी गई हैं। कहा यह जा रहा है कि आतंकियों का जेल तोड़कर भागना और पुलिस का उनको मार गिराना भी एक पूर्व-निर्धारित योजना का परिणाम है। इस बयान का क्या अर्थ निकाला जाए? क्या यह कि मप्र सरकार ने आतंकियों से कहा कि तुम को भाग निकलने का मौका दिया जाएगा। हम तुम्हें नए कपड़े, जूते और घड़ियां वगैरह भी दे देते हैं ताकि जब तुम एक साथ बाहर निकलो तो कैदियों के कपड़ों में पहचाने न जाओ। और उधर पुलिस को भी सावधान कर दिया कि तुम तैयारी रखना। दीवाली की रात कुछ भी हो सकता है। जैसे ही ये कैदी भागे, सरकार ने उनके पीछे पुलिस दौड़ा दी और पुलिस ने उन निहत्थे आतंकियों को मार गिराया। यह नौटंकी इसलिए रचाई गई कि मोदी सरकार की छवि चमकानी है, उप्र का चुनाव जीतना है और जनता को यह बताना है कि यह 56 इंच के सीने वाली सरकार है।
क्या किसी खुले लोकतंत्र में इतनी संगीन साजिश छुपी रह सकती है? ऐसी साजिश की कल्पना ही किसी दिमागी फितूर से कम नहीं है। यह ठीक है कि पुलिस एकतरफा मुठभेड़ करती रहती है और कई बार मासूम और निहत्थे लोग भी मारे जाते हैं। ऐसे मामलों की कठोर और निष्पक्ष जांच अवश्य होनी चाहिए और उन पर तीखे सवाल भी पूछे जाने चाहिए। लेकिन क्या ये आतंकी बेकसूर थे? उन्होंने आतंकियों के नाते कितने संगीन जुर्म किए हैं, यह तो अदालतों को तय करना था। हो सकता है कि उनमें से कुछ बेगुनाह भी साबित हो जाते लेकिन उन्होंने जेल से भागते वक्त जो किया, क्या वह उन्हें बेकसूर रहने देता है? उन सबने मिलकर हवलदार यादव की हत्या की, एक जवान को मार-मारकर अधमरा कर दिया, जेल की दीवाल और ताले तोड़ दिए और दीवार फांदकर भाग निकले। इतना ही नहीं, घेरे जाने पर वे हत्यारे आत्म-समर्पण कर देते तो उन्हें चांटा मारना भी गलत होता लेकिन उन्होंने पुलिस का मुकाबला किया, भागने की कोशिश की और पत्थरों से वार किया। उनके पास हथियार थे या नहीं, इस पर अलग-अलग तथ्य सामने आ रहे हैं लेकिन उन्होंने गोलियां चलाई या नहीं, यदि पुलिस उनका काम तमाम नहीं करती तो क्या करती? उनमें से एकाध बच जाता तो बेहतर होता। लेकिन मुठभेड़ के वक्त इतना होश किसे रहता है? या तो आप उन्हें मारिए या खुद मरिए !
कुछ नेताओं ने यह सवाल भी पूछा है कि सिर्फ मुसलमान कैदियों को ही क्यों मरवाया गया? यह हिंदूवादी पार्टी, भाजपा, की सोची-समझी साजिश है। इस तर्क पर क्या कहा जाए? जब नेताओं ने देखा कि उनके अन्य बचकाना सवालों पर लोग हंस रहे हैं तो उन्होंने अपने खाली तरकस से यह तीर निकाला। इस सारी घटना को सांप्रदायिक रंग में रंगनेवाले नेता यह भूल जाते हैं कि ऐसा तर्क करके वे भाजपा के वोट-बैंक को मजबूत कर रहे हैं। इसके अलावा वे देश के करोड़ों देशभक्त मुसलमानों के साथ अनजाने ही दुश्मनी कर रहे हैं। इन आतंकियों को देश के मुसलमानों से सीधे जोड़ रहे हैं। कई मुस्लिम संस्थाओं ने आतंकवाद की दो-टूक भर्त्सना की है। ओडिशा में कुछ दिन पहले हुई मुठभेड़ में कई आतंकी मारे गए। क्या वे मुसलमान थे? वे नक्सली थे और हिंदू थे। तब तो किसी नेता का मुंह भी नहीं खुला। क्यों? क्योंकि वे मुंह खोलते तो उसमें राजनीतिक हलवा-पूड़ी नहीं मिल पाती। भोपाल की मुठभेड़ ने भी उनकी हलवा-पूड़ी छीन ली लेकिन अब वे तर्कों के चने-मूंगड़ों से अपना पेट भर रहे हैं।
यह ठीक है कि इस मुद्दे पर आम लोग विरोधियों के खोखले तर्कों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं और आतंकियों की हत्या पर संतोष प्रकट कर रहे हैं लेकिन सब यह जानना चाहते हैं कि प्रदेशों की ये जेलें, जेलें हैं या धर्मशालाएं हैं? इनमें गिरफ्तार संगीन अपराधी भी नेताओं की तरह मौज-मजे करते हैं और जब चाहें, जेल तोड़कर भाग जाते हैं। इस लापरवाही की जांच सिर्फ मप्र की ही नहीं, देश की सारी जेलों के बारे में होनी चाहिए।