नेपाली राजनीति अजीब-से असमंजस में फंसी हुई है। अभी-अभी प्रधानमंत्री के.पी. ओली की सरकार तो गिरते-गिरते बच गई है, क्योंकि गठबंधन की हिस्सेदार माओवादी पार्टी ने उन्हें दुबारा समर्थन दे दिया है। ओली की पार्टी का नाम है- मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी और पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ की पार्टी का नाम है- माओवादी पार्टी। नेपाल में माओत्से तुंग ने मार्क्स और लेनिन को गिरते-गिरते बचा लिया। गुरु गुड़ रह गए और चेला शक्कर बन गया।
इसका अर्थ यह नहीं कि ओली पर ओले नहीं पड़ेंगे। ओली की सरकार पिछले साल भर में नेपाल की जनता के दिल में अपनी जगह नहीं बना पाई है। भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों है और भूकंप में जो विदेशी मदद मिली थी, उसका भी उपयोग ठीक से नहीं हुआ है। इसके अलावा ओली ने नए संविधान में कई संशोधनों के जो आश्वासन दिए थे, वे भी अधूरे ही पड़े हैं। नेपाल की तराई में रहने वाले लगभग 80 लाख मधेसी लोग इस सरकार से गुस्साए हुए हैं। प्रचंड ने इन्हीं के बहाने ओली से समर्थन वापस लेने की घोषणा की थी, हालांकि मधेसियों के बारे में प्रचंड की नीति हमेशा मझदार में रही है। वह मार्क्सवाद और नेपाली राष्ट्रवाद के बीच अधर में झूलती रही है। प्रचंड यदि दुबारा प्रधानमंत्री बनने का ताना-बाना बुन रहे हो तो कोई आश्चर्य नहीं है।
नेपाल के अंदर तो यह अंतरद्वंद चल ही रहा है, सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि भारत-नेपाल संबंधों में भी तनाव पैदा हो गया है, खासतौर से तब जबकि दिल्ली में एक हिंदूवादी सरकार बैठी है। नेपाल की राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी का भारत-दौरा अचानक रद्द कर दिया गया है और जब नेपाली राजदूत दीपकुमार उपाध्याय ने उनके भारत-आगमन का आग्रह किया तो उन्हें काठमांडो तलब कर लिया गया है।
नेपाल अब निजंगढ़ का हवाई अड्डा भी खुद ही बनाएगा। भारत को उसका ठेका नहीं देगा। ओली ने अपनी चीन-यात्रा के दौरान भी कुछ अप्रिय संकेत दिए थे। यह सब कुछ तब हो रहा है जबकि नरेंद्र मोदी ने भूकंप के दौरान नेपाल की जबर्दस्त सहायता की थी। भारत सरकार और भारत की संसद को गंभीरतापूर्वक अपनी नेपाल-नीति पर विचार करना होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे नेताओं और राजनयिको ने नेपालियों से व्यवहार करते समय उनके मान-सम्मान को चोट पहुंचा दी है? जहां तक विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का प्रश्न है, कई नेपाली नेता उनकी प्रशंसा करते हैं। जिस नेपाल को भारत के सबसे नजदीक होना चाहिए, वह हमसे दूर क्यों होता जा रहा है?