भारत ’’सर्वे भवन्तु सुखनः एवं वसुधैव कुटुंबकम’’ की भावना को लेकर चलता है। लेकिन देश में शैतानी शक्तियों का बढ़ता दायरा केंसर की तरह सम्प्रदायवाद, जातिवाद एवं आतंकवाद के रूप में द्रुत गति से बढ़ रहा है। अब वक्त आ गया है देश के विखण्डन के पहले इसके खात्मे के लिये एक समयबद्ध एक कठोर रणनीति बने।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघसंचालक डाॅ. मोहन भागवत हिदुत्व को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि यह कोई पूजा पद्धति का नाम नहीं है, हिन्दुस्तान का हर एक व्यक्ति हिन्दु है। भारत का दर्शन एवं विचारों को कई मुल्क तारीफ करते नहीं थकते, वहीं भारत अपनी संस्कृति को छोड़ पश्चिमी संस्कृति की और आंखमूंद बढ़ रहा है। या यूं कहे अपने को मिटा रहा है दूसरे को अपना रहा है। यदि यही हाल रहा तो हो सकता है कि भविष्य में भारत के पास संस्कृति के नाम पर कुछ भी न बचे। वक्त आ गया है कि हिन्दू एवं हिन्दूत्व पर अधिकाधिक चर्चा एवं संगोष्ठियां आयोजित हो। सभी भारतवासियों को यह स्वीकारना होगा कि हिन्दु सभी को समाहित करने की विचाराधारा है अलगाव, द्वेष या विरोध की नहीं।
हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की क्या स्थिति है किसी से छिपी नहीं है। इन्हें दोयम दर्जे की हैसियत से ज्यादा कुछ भी हासिल नही है, लेकिन भारत में देखे तो अल्पसंख्यक के नाम पर ही सारा गुणा भाग कर राजनीति चलती है। यदि यूं कहे कि भारतीय राजनीति अल्पसंख्यक आधारित ही है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वहीं स्वतंत्र भारत में भारत का अभिन्न अंग कश्मीर को लेकर यहां कुछ यक्ष प्रश्न उठना स्वाभाविक है। मसलन किसी भी मुस्लिम संगठन ने कश्मीरी पंडित का समर्थन खुलकर क्यों नहीं किया? देश में ये कैसा सेक्युलेरिज्म है? हिन्दू भारत में सुरक्षित क्यों नहीं? जिम्मेदार मौन क्यों? स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वयं कश्मीरी पंडित थे वही वंश की राजनीति का ताना झेलने वाली कांग्रेस और उसके बयानवीर शांत, चुप एवं घुघ्घु क्यों बने हुए हैं? शर्म क्यों नहीं आती? हमारी तथाकथित राजनीतिज्ञ अल्पसंख्यको के लिए एक पैर पर खड़े रहने वाले कश्मीर में अल्पसंख्य हिन्दू मसले पर मौन क्यों? इन्हें सांप क्यों सूंघ गया है? पाकिस्तान में हिन्दुओं पर जुल्म ढहाए जाने की बात तो समझा में आती है लेकिन भारत में भी ऐसा हो समझ से परे है?
भारत के अभिन्न अंग कश्मीर में हिन्दुओं पर कहर टूटने का सिलसिल 1989 में जम्मू-कश्मीर में जेहाद के लिये गठित जमात-ये-इस्लामी से शुरू हुआ। जिसने कश्मीर में इस्लामिक डेªस कोड को सख्ती से लागू करने पर जोर दिया। इसी के साथ शुरू हुआ कश्मीरी पंडितों की दुकान, धंधों, घरों को चुन-चुनकर निशाना बनाने का कुचक्र, जिसमें 24 घण्टे में कश्मीर छोड़ने या मरने की धमकी साथ ही नारा दिया ‘‘ हम सब एक, तुम भागो या मरों।’’ जनवरी 1990 में जम्मू-कश्मीर में जगमोहन की राज्यपाल की नियुक्ति के साथ ला एण्ड आॅर्डर बनाए रखने के लिये कफ्र्यू लगाया गया। हिजबुल ने मस्जिदों को आवाम को संदेश देने का अड्डा बनाया। कफ्र्यु के साथ ही पंडितों को नित नए तरह से प्रताडि़त एवं जुल्म ढहाने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। इसी के साथ तीन टेप भी जारी किये गये। ‘‘कश्मीर में अगर रहना है तो अल्लाह-ओ-अकबर कहना होगा। दूसरा यहां क्या चलेगा ‘‘निजाम-ए-मुस्तफा’’ तीसरा असी गच्ची पाकिस्तान बताओ रोएस्ते बतनानेव शान जिसका अर्थ है कि हम पाकिस्तान और हिन्दू महिलाओं को उनके आदमी के बिना चाहते हैं। 300 हिन्दुओं, मर्द और ओरतों का कत्ल किया गया। 14 सितम्बर 1989 को भाजपा के राष्ट्रीय एक्जीक्यूटिव पं. टीकालाल टपलू जो पेशे से नामी वकील भी थे का भी मर्डर कर दिया गया। तत्पश्चात् जस्टिस एन.के.गंजू जो श्रीनगर हाईकोर्ट में थे केा भी मौत के घाट उतार दिया गया।
अब हजारों हिन्दुओं ने कश्मीर से पलायन शुरू कर दिया यह मंजर बहुत कुछ भारत-पाक के विभाजन जैसा ही है। एक आंकड़े के अनुसार लगभग 300000 कश्मीरी पण्डित अपने ही देश में देखते-ही देखते अपने घर से दर-बदर हो गए, जिनमें कुछ रिफ्यूजी कैम्प में तो कुछ दिल्ली में आ गए।
19 जनवरी 2005 में एक खबर के अनुसार कोई भी हिन्दू घाटी में नहीं बचा, यदि यह सत्य है तो कितना भयावह है, कितना दुर्भाग्यपूर्ण है? वहीं रिफ्यूजी कैम्प में रह रहे पण्डित आर्थिक, मानसिक एवं स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों से भी जूझ रहे हैं। ऐसा उदाहरण शायद ही विश्व में कहीं मिले कि भारत में हिन्दुओं की अधिकता होेते हुए भी इसी के अभिन्न अंग कश्मीर में मुस्लिम कट्टर पंथियों द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहा है, अपने पुरखों की भूमि को छोड़ भागना पड़ रहा है। भारत के लिये इससे बढ़कर कलंक और क्या हो सकता है? कुछ इसी तरह की स्थिति भारत के उत्तर पूर्वी भाग में भी है।
सन् 2011 में कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिक्कू कहते हैं, कश्मीर में राज्य एवं केन्द्र दोनों ने ही पंडितों को दोयम दर्जे का नागरिक मानती हैं। यूं. तो कश्मीरी पंडितों का योगदान भारत के लिये अधिक है फिर चाहे वो पंडित जवाहर लाल नेहरू हो पुरूषोत्तम नारायण हो, भास्कर हो, भागवान गोपीनाथ हो विजय लक्ष्मी पंडित हो या इंदिरा गांधी। ऐसे में डाॅ. फारूख अब्दुल्ला हो, ओमर अब्दुल्ला हो या गिलानी हो सभी केवल सियासी धार तेज बनाए रखने के लिये कभी कभी हिन्दू समर्थित बयान राजनीतिक माइलेज के लिये देते भर है, करते कुछ भी नहीं।