नेपाल और अफगानिस्तान के नेता भारत आ रहे हैं। ये दोनों भारत के पड़ौसी देश है। दोनों भूवेष्टित (जमीन से घिरे हुए) हैं। नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल प्रचंड और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी भारत इसीलिए आ रहे हैं कि उन्होंने दूसरे विकल्प आजमा कर देख लिये हैं। प्रचंड ने माओवादी होने के नाते अपने पिछले कार्यकाल में चीन के साथ पींगे बढ़ाने की बहुत कोशिश की थी। इसी प्रकार उन्होंने नेपाल के सेनापति के साथ भी मुठभेड़ कर ली थी। वे तब भारत आए थे लेकिन भारत-नेपाल संबंधों में वे कोई नया आयाम नहीं जोड़ पाए थे।
उनके पहले प्रधानमंत्री रहे के.पी. ओली ने चीन के साथ जरुरत से ज्यादा घनिष्टता बढ़ाने की कोशिश की। नए संविधान में मधेसियों के विरुद्ध हो रहे अन्याय का कोई संतोषजनक हल उन्होंने नहीं निकाला। भारत-नेपाल संबंधों में सीमाबंदी के कारण नए तनाव पैदा हो गए। नेपाली भूकंप में भारत द्वारा की गई असाधारण सहायता का महत्व भी नगण्य हो गया। माओवादियों का असंतोष बढ़ता गया। इस सारी पृष्ठभूमि में अब प्रचंड एक नए रुप में उभरे हैं। उन्होंने अपनी पिछली गलतियों को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है। उन्होंने मोदी की तारीफ की है और भारत के साथ नेपाल के संबंधों को उचित महत्व प्रदान किया है। प्रचंड की इस भारत-यात्रा को इतना अर्थपूर्ण माना जा रहा है कि चीन को चिंता होने लगी है लेकिन नेपाल का कोई भी नेता भारत की उपेक्षा नहीं कर सकता।
अब यही बात अशरफ गनी को भी समझ में आ गई है। दो साल पहले सत्तारुढ़ होते ही वे पाकिस्तान की तरफ लपके थे। वे पाकिस्तानी फौज को पटाने की खातिर खुद रावलपिंडी भी चले गए। कोई विदेशी राष्ट्रपति किसी देश के सेनापति से मिलने जाए, यह अजूबा ही है लेकिन इस सबके बावजूद गनी निराश हो गए। तालिबान से उनकी बात परवान नहीं चढ़ी। आतंकवाद की घटनाएं ज्यों की त्यों हो रही है।
पाकिस्तान अफगान व्यापारियों को अपना माल भारत ले जाने देता है लेकिन इतने अड़ंगे लगाता है कि गनी को कहना पड़ा कि वे पाकिस्तानी माल को मध्य एशिया नहीं जाने देंगे। अफगानिस्तान के रास्ते रोक देंगे। अभी-अभी पाकिस्तान की तरफ से रचनात्मक बयान आया है। गनी अब यह भी चाहते हैं कि जरंज-दिलाराम मार्ग खुले और चाहवहार के जरिए भारत-अफगान व्यापार बढ़े। इससे भी ज्यादा जरुरी मदद उन्हें फौजी क्षेत्र में चाहिए ताकि वे आतंकवाद का मुकाबला कर सकें। भारत फौजी मदद में अब शायद ही कोताही करे। कश्मीर, बलूचिस्तान और गिलगित के मामले इतना रंग पकड़ रहे हैं कि निकट भविष्य में भारत-पाक संबंधों में सुधार की गुंजाइश कम ही दिखती है।