सबसे पहले तो मैं सर संघचालक मोहन भागवत को बधाई दूंगा कि लखनऊ में उन्होंने कल वह बात कह दी, जो मैं पिछले 15 दिनों से कह रहा हूं। मोहनजी ने कहा है कि जिसको ‘भारतमाता की जय’ बोलना है, उसे दिल से बोलना है। इस नारे को किसी पर थोपना नहीं है। क्या बात है! यही सच्ची भारतीय दृष्टि है।
अब अपने देश के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. इरफान हबीब पर आता हूं। वे मध्यकालीन इतिहास के अच्छे जानकार हैं। एक-दो बार हम दोनों को साथ-साथ भाषण करने का संयोग भी हुआ है। आज अखबारों में छपा उनका भाषण पढ़कर मैं दंग रह गया। उन्होंने जनेवि में कह दिया कि मातृभूमि और पितृभूमि, ये दोनों शब्द भारतीय बिल्कुल नहीं हैं। भारतीय परंपरा में इनका उल्लेख कहीं भी नहीं है। ये यूरोप से उधार लिए गए हैं। यही बात उन्होंने मादरे-वतन और पिदरे-वतन शब्दों के बारे में भी कह डाली है।
यह ठीक है कि प्रो. हबीब भारत के प्राचीन इतिहास के विशेषज्ञ नहीं हैं लेकिन उनसे एक इतिहासकार के नाते यह उम्मीद तो की जाती है कि वे प्राचीन भारत और शास्त्रों के बारे में मोटी-मोटी जानकारी रखें। अपने देश का दुर्भाग्य यह है कि प्राचीन इतिहास के अपने विश्व-विख्यात इतिहासकारों को भी संस्कृत और प्राकृत नहीं आतीं। वे अंग्रेजों की लिखी किताबों के आधार पर धुर में लठ फिराते रहते हैं। उन सब भेडि़याधसान इतिहासकारों से मेरा निवेदन है कि वे ज़रा ऋग्वेद और अथर्ववेद पर नजर डाले। ऋग्वेद कहता है ‘पृथिवीमाता द्यौर्मे पिता’ याने पृथ्वी माता है और आकाश पिता है। यही बात महाभारत में यक्ष ने दोहराई है।
अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त कहता है- ‘माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः’ याने भूमि तू माता है और मैं तेरा पुत्र हूं। राम कहते हैं, लक्ष्मण को, कि लंका स्वर्णमयी है, फिर भी मुझे अच्छी नहीं लगती। लेकिन अपनी मातृभूमि कैसी लगती है? ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ याने ‘यह मेरी माता (जननी) मुझे स्वर्ग से भी ज्यादा प्यारी है।’ हमारे कुछ अर्धशिक्षित ‘विद्वानों’ की अंग्रेजी में लिखी पुस्तकों के हवाले से हमारे कुछ टीवी एंकरों ने यह धारणा फैला दी है कि सौ-सवा- सौ साल पहले कुछ बंगालियों ने ‘भारतमाता’ की धारणा का आविष्कार किया है। उन्हें यह पता नहीं कि इस देश में भारतमाता ही नहीं, गोमाता और गंगामैया जैसे शब्द हजारों वर्षों से आम आदमी प्रयोग कर रहे हैं। इन शब्दों को सांप्रदायिक या सेक्युलर चश्मे से देखना अपने आपको अंधा करना है। संस्कृत का ‘माता’ शब्द ‘मा’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है, लालन-पालन करनेवाली।
जहां तक मादरे-वतन और पिदरे-वतन (मातृभू और पितृभू) शब्दों का प्रश्न है, जरा पठानों और ताजिकों का इतिहास पढ़ा जाए। सैकड़ों साल पहले इन शब्दों का प्रयोग होता रहा है। अफगानिस्तान के परचमी और खल्की कम्युनिस्ट भी इन शब्दों का इस्तेमाल करते रहे हैं। ‘भारतमाता की जय’ पर हमारे अधपढ़ कामरेडों ने फिजूल की बहस चला रखी है। जो लोग ‘भारतमाता की जय’ की बजाय ‘हिंदुस्तान जिंदाबाद’ बोलना चाहते हैं, क्या वे संघ के स्वयंसेवक हैं? वे भारत को हिंदुओं का देश घोषित कर रहे हैं। नहीं क्या?