आने वाले लोकसभा चुनाव भाजपा किसके नेतृत्व में लड़ेगी , अब इसमें कोई संशय नहीं रह गया है । गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में विधिवत घोषणा कर दी गई है कि गुजरात के मुख्यमंत्री यह कमान संभालेंगे । वैसे पार्टी में कार्यकर्ताओं के स्तर पर यह दुविधा पहले ही समाप्त हो गई थी । इस समय यदि पार्टी के भीतर कार्यकर्ताओं में लोकप्रियता की बात की जाये तो यक़ीनन मोदी उसमें अब्बल ठहरते हैं । इसलिये गोवा में नरेन्द्र मोदी को चुनाव की कमान संभालने का निर्णय ऊपर से थोपा गया कृत्रिम निर्णय न होकर भीतर से विकसित स्वभानिक निर्णय है ।यही कारण है कि पार्टी में कार्यकर्ता के स्तर पर इस निर्णय को व्यापक स्वीकृति मिली । गोवा में वातावरण कुल मिला कर यही बनता था कि मोदी जी आगे बढ़ें , हम आपके साथ हैं । इसक कारण ही लाल कृष्ण आडवानी के भाजपा की प्रमुख समितियों से त्यागपत्र दे देने का प्रकरण समाप्त हो गया और आडवानी ने पार्टी का मार्गदर्शन करते रहना स्वीकार कर लिया ।
परन्तु असल प्रकरण इसके बाद ही शुरु होता है । प्रश्न यह है कि भाजपा ने जदयू की नाराज़गी की चिन्ता न करते हुये भी आख़िर मोदी पर दाँव क्यों खेला ? इसको दूसरे प्रकार से भी कहा जा सकता है कि एन डी ए के अस्तित्व को दाँव पर लगा कर भी मोदी को कमान क्यों सँभाली ? इस प्रश्न का उत्तर तलाशते समय एक बात ध्यान में रखनी चाहिये कि एन डी ए का असली अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि भाजपा आने वाले लोकसभा चुनावों में अपने बलबूते दो सौ सीटें जीत कर दिखाये । भाजपा इतना तो समझ ही चुकी है कि यदि ऐसा न हो सका तो एक प्रकार का बाँझ एन डी ए भाजपा के लिये लाभकारी न रहकर बोझ बन जायेगा । लेकिन भाजपा दो सौ सीटों की यह चमत्कारी खाई कैसे पार कर सकेगी ? लोकसभा के पिछले दो चुनावों में भाजपा की सदस्य संख्या कम होती गई और उसी अनुपात में एन डी ए के घटक दलों की संख्या भी सिकुड़ती गई । इस समय अनेक कारणों से देश में कांग्रेस के खिलाफ आम जनता के मन में ग़ुस्सा है । इसमें लगातार बढ़ रही महँगाई ज़मीनी कारण है और कांग्रेस के बडे नेताओं द्वारा स्वयं ही अपराधियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ मिल कर देश को दोनों हाथों से लूटने की दिन प्रतिदिन सार्वजनिक होती घटनाएँ नैतिक कारण है । सरकार ईमानदारी और महंगाई ,दोनों मोर्चों पर बुरी तरह फ़ेल हुई है । परन्तु इसके बाबजूद भाजपा एक के बाद एक राज्यों में हारी ही नहीं बल्कि सत्ताच्युत हुई है । उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक इस सूची में अभी शामिल हुआ है । ऐसे समय में पार्टी के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही था कि कांग्रेस के प्रति जनता के ग़ुस्से को कैसे अपने पक्ष में भुनाया जाये ? क्योंकि एक बात निश्चित है यदि इस बार भी भाजपा पिछड़ जाती है और सत्ता इतालवी मूल की सोनिया गान्धी के हाथों में सिमट जाती है तो इसके नतीजे भाजपा समेत पूरे संघ परिवार के लिये अत्यन्त ख़तरनाक हो सकते हैं । सोनिया कांग्रेस ने अभी से भगवा आतंकवाद का ड्रामा रच कर देश की राष्ट्रवादी शक्तियों को निपटाने की तैयारी कर ली है । इसलिये देश की राष्ट्रवादी शक्तियों के लिये आने वाले लोकसभा चुनाव अति महत्वपूर्ण हो उठे हैं । ऐसे समय में एक मोदी ही आम जनता में यह विश्वास जगा सकते हैं कि उनके नेतृत्व में भाजपा सोनिया गान्धी को परास्त कर सकती है । हिमाचल , उत्तराखंड और कर्नाटक में पराजय के बाद विश्वसनीयता के संकट से जूझ रही भाजपा में मोदी संजीवनी का संचार कर सकते हैं , यह विश्वास केवल भाजपा के कार्यकर्ता का ही नहीं है बल्कि देश की आम युवा पीढ़ी का है । मोदी देश की आम युवा पीढ़ी में आशा का संचार करते हैं जबकि देश का वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व युवा पीढ़ी को निराशा की ओर ही नहीं धकेलता बल्कि उसे पूरी व्यवस्था के प्रति ही अनास्थावान बनाता है । गुजरात में मोदी ने जो प्रशासकीय कुशलता दिखाई है और विकास के प्रतिमान स्थापित किये हैं , उससे मोदी के नेतृत्व के प्रति देश के आम मतदाता के मन में उनकी विश्वसनीयता बढ़ी है । मोदी की सबसे बड़ी पूँजी उनकी बेदाग़ छवि है । उन पर आज तक कोई भी भ्रष्टाचार का आरोप लगाने का साहस नहीं कर पाया है । जबकि जैसी स्थिति राजनीति में चल रही है , उसमें किसी राजनैतिक नेता को ईमानदार कहने के लिये काफ़ी हिम्मत जुटाना पड़ती है । लेकिन इस सबके बावजूद सौ टके का एक ही सवाल है कि क्या मोदी भाजपा के लिये लोकसभा की दो सौ सीटों का जादुई आँकड़ा जुटा पायेंगे ?
दक्षिण के पुदुच्चेरी समेत पांचों राज्यों में लोकसभा की १३० सीटें हैं लेकिन सीटों के हिसाब से भाजपा यहां कर्नाटक को छोडकर लगभग शून्य है । असम समेत उत्तरपूर्व के आठों राज्यों ( सिक्किम मिला कर) में लोकसभा सीटों की संख्या २५ है लेकिन भाजपा की उपस्थिति सीटों के लिहाज़ से यहां सांकेतिक ही है । पूर्व में बंगाल और ओडीशा में फिर लोकसभा में सीटों की दृष्टि से भाजपा नदारद है ।इन दोनों राज्यों में लोकसभा सीटों की संख्या ६३ है । लेकिन ये सारे क्षेत्र पहले भी भाजपा की दृष्टि से कभी सशक्त नहीं रहे । भाजपा को असली लड़ाई उत्तरी भारत के मैदानों में लड़नी है , जिसमें पंजाब , हरियाणा , हिमाचल , जम्मू कश्मीर , दिल्ली , उत्तर प्रदेश समेत , भाजपा की शक्ति के हिसाब से मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ , राजस्थान , गुजरात , महाराष्ट्र , बिहार और झारखंड भी शामिल किया जा सकता है । भाजपा के लिये अनुकूल इस पूरे क्षेत्र में लोकसभा की कुल मिला कर ३२६ सीटें हैं । इन सभी क्षेत्रों में भाजपा का अपना मज़बूत संगठनात्मक ढाँचा विद्यमान है । मोदी की असली परीक्षा यहीं के कुरुक्षेत्र में होने वाली है । उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के वनगमन प्रसंग के बाद भाजपा का जनाधार सिमटता गया है और वहाँ की राजनीति धीरे धीरे जातीय आधार पर सपा और बसपा के बीच सिमट कर रह गई है । इस प्रदेश में लोकसभा की अस्सी सीटें हैं । भाजपा को इसी क्षेत्र में दलदल में धँस चुके रथ को खींच कर बाहर निकालना है । मोदी यह अच्छी तरह जानते हैं कि गंगा यमुना के इन मैदानों में जब तक वे दलदल में फँसा भाजपा का रख खींच कर यमुना एक्सप्रेस हाईवे पर खड़ा नहीं कर देते , तब तक वे अपनी धाक पार्टी में जमा नहीं पायेंगे । शायद इसी की राजनाथ सिंह के साथ पूर्व रणनीति बना कर मोदी ने अमित शाह को उत्तर प्रदेश में भेजा है । दरअसल नये परिप्रेक्ष्य में भाजपा के लिये चुनौती जदयू का एन डी ए में रहना या न रहना नहीं है । क्योंकि बिहार में जितनी ज़रुरत भाजपा को जदयू की है , उससे कहीं ज़्यादा ज़रुरत जदयू को भाजपा की है । व्यावहारिक रुप से अब जदयू बिहार का क्षेत्रीय दल है , जिसे राज्य में सत्ता में आने के लिये भाजपा की ज़रुरत रहेगी ही । इसी बिहार और उत्तर प्रदेश में मोदी का जादू सबसे ज़्यादा चल सकता है । कहा जाता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति ही सबसे ज़्यादा जाति के आधार पर संचालित होती है । मोदी के पास इन दोनों प्रदेशों के लिये कारगार कार्ड है । हिन्दुत्व का कार्ड तो उनके पास है ही , साथ ही वे इन प्रदेशों में अपने स्वयं के ओ.बी.सी होने का तुरुप का पत्ता चल सकते हैं । फिर उनके पास विकास का सबसे ज्यादा सशक्त सूत्र भी है । यदि इन तीनों कार्डों के मिश्रण का जादू इन दोनों प्रदेशों में चल गया , जिसकी संभावना बहुत ज़्यादा है , तो मोदी वहाँ अपने सभी विरोधियों पर क़हर ढा सकते हैं और वहीं से भाजपा की विजय यात्रा शुरु हो सकती है । यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में मोदी के दूत अमित शाह के पहुंच जाने से सबसे ज्यादा घबराहट सपा और बसपा में ही देखी जा रही है । भाजपा के लिये चुनौती किसी भी हालत में एन डी ए को बचाये रखना नहीं है , बल्कि असली चुनौती अपनी सीटों की संख्या दो सौ तक पहुँचाने की है । यदि भाजपा ने यह शर्त पूरी कर ली तो मरा हुआ एन डी ए भी ज़िन्दा हो जायेगा । लेकिन यदि भाजपा यह शर्त पूरी न कर पाई तो जिन्दा एन डी ए भी भाजपा के लिये अर्थहीन हो जायेगा । मोदी और भाजपा के लिये असली चुनौती इसी शर्त को पूरी करने की है ।