भटक गई भाजपा

इस माह भारतीय जनता पार्टी अपना ३२ वां जन्मदिन मना रही है। ६ अप्रैल १९८० को जनसंघ का चोला उतार कर भाजपा नए राजनीतिक दल के रूप में अस्तित्व में आई। ३२ साल का समय काफी होता है किसी भी राजनीतिक दल की सफलताओं एवं विफलताओं का लेखा-जोखा सामने लाने के लिए। भाजपा ने इन ३२ सालों में कई स्वर्णिम सफलताएं अर्जित कीं तो उसके खाते में कई ऐसी विफलताएं भी शामिल हैं जिनका नकारात्मक परिणाम पार्टी को गाहे-बगाहे उठाना पड़ा है।

इन ३२ सालों में भाजपा लगभग २५ साल तो अटल-आडवाणी की छत्रछाया में पल्लवित हुई। हालांकि आज भी भाजपा अटल-आडवाणी के नाम के सहारे ही राजनीति के सागर में अपनी पतवार संभाले हुए है। अटल-आडवाणी युग के ये साल भाजपा के लिए कई अप्रत्याशित सफलताएं लेकर आए।

 

इस दौर की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर एक ख़ास पहचान मिली और कांग्रेस के मुकाबले राष्ट्रीय राजनीति में एक मजबूत विकल्प उभरकर सामने आया। १९८४ में दो सांसदों से शुरू हुई पार्टी १९९६ में ही सत्ता के शीर्ष पर जा बैठी| १९९७ में पुनः भाजपा ने अटल बिहारी वाजपाई के नेतृत्व में २४ दलों की गठबंधन सरकार बनाकर उसे सफलतापूर्वक ५ वर्षों तक चलाया| इस मिली-जुली सरकार ने राजनीति के इस भ्रम को भी तोड़ दिया कि साझा दल मिलकर सरकार नहीं चला सकते| किसी समय समूचे उत्तर भारत के राज्यों में भाजपा अपनी सरकार सफलतापूर्वक चला रही थी वहीं २००८ में पहली बार दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक में कमल खिला| आज देश के ६ राज्यों में पार्टी की सरकार है और तीन राज्यों में वह अपने सहयोगियों के साथ साझा सरकार चला रही है| मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या चाल, चेहरा और चरित्र के दम पर खुद को अलग साबित करने वाली पार्टी वर्तमान में खुद की स्थिति से संतुष्ट है?

 

पार्टी के स्थापना दिवस के मौके पर नितिन गडकरी ने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि उनकी पार्टी सांसद और विधायक बनाने की मशीन नहीं है। यह इकलौती कार्यकर्ता आधारित पार्टी है जहां स्व हितों को त्याग कर देशहित में कार्य करना पड़ता है। गडकरी की यह बात पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं को भले ही रास आए किन्तु इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज पार्टी में पदलोलुप एवं सत्तादोही नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की भीड़ बढ़ गई है जो येन-केन प्रकरेण स्वयं के हितों को साधने में लगे हैं। हाल ही में संपन्न पांच राज्यों के चुनाव के दौरान टिकट बंटवारे को लेकर जितनी सर-फुटव्वल भाजपा में हुई उतनी किसी अन्य पार्टी में नहीं हुई। झारखंड से राज्यसभा जाने के इच्छुक वरिष्ठ नेता ने पूरे देश में पार्टी की भद पिटवाई। कर्नाटक में हुए नाटक के बाद भी लगता है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पुरानी गलतियों से सीख लेना ही नहीं चाहता। पार्टी ने नेतृत्व क्षमताओं का अभाव स्पष्ट दृष्टिगत होता है। गडकरी भले ही अच्छा काम कर रहे हों किन्तु पार्टी को वह स्वर्णिम सफलता नहीं दिला पाए हैं जो अटल-आडवाणी युग की पहचान हुआ करती थी।

 

पार्टी में पुराने और कद्दावर नेता आज हाशिये पर पड़े हैं। मसलन मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और रामजन्म भूमि आंदोलन का सशक्त चेहरा रहीं उमा भारती वर्तमान में उत्तर प्रदेश की चरखारी सीट से विधायक हैं। पार्टी नेतृत्व की उपेक्षा से दुखी हो उन्होंने खुद की पार्टी बना ली। हालांकि इससे नुकसान उमा को हुआ मगर भाजपा भी कोई ख़ास फायदे में नहीं रही। देर-सवेर उमा को पार्टी में ससम्मान वापस लाया गया। इसी तरह हवाला कांड के बाद दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना का यह कहकर इस्तीफ़ा दिलवाया गया कि बाद में पुनः उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी दी जाएगी। किन्तु खुराना को न तो मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली न भाजपा को दिल्ली की सत्ता। कल्याण सिंह का क्या हश्र हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। यह तो उदाहरण हैं यह साबित करने के लिए कि पार्टी लाख अटल-आडवाणी के सिद्दांतों पर चले, यहाँ क्या होता है और कौन करता है, इसका पूर्वानुमान कोई नहीं लगा सकता।

 

आज भाजपा अपनी स्थापना के मूल लक्ष्यों से भटककर चुनावी पार्टी बनकर रह गई है। मात्र सत्ता में रहने के स्वप्न में पार्टी ने तमाम आदर्शों को ताक पर रख दिया है। उत्तर प्रदेश में पार्टी ने जहां बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को बढ़ने का मौका दिया तो बिहार में जेडीयू के सामने बौनी नज़र आने लगी। राजस्थान, उत्तराखंड हाथ से फिसला तो आने वाले समय में हिमाचल प्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में उसके समक्ष अग्निपरीक्षा की घड़ी है। रामजन्म भूमि आंदोलन से जिन्ना की मजार तक आने में पार्टी ने काफी कुछ खोया है जिसमें कुछ हद तक जनता का विश्वास भी है। भटकाव के इस दौर में भटकी हुई भाजपा को पुनः संवारने की ज़रूरत है ताकि वह पुराने सुनहरे दिनों के इतिहास को पुनः दोहरा सके और इसके लिए किसी करिश्मे की नहीं अपनी कमियों को दूर करने बाबत आत्ममंथन करने की है।