२४ नवम्बर से शुरू हुआ संसद का शीतकालीन सत्र आने वाले सोमवार को अपना आधा पड़ाव पूर्ण कर लेगा| इस एक पखवाड़े में कई बिल पेश होने के साथ ही कई संशोधन भी हुए| जब ऐसा लगने लगा था कि संसद सुचारू रूप से चलने लगी है तभी तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने राजनीतिक दुर्भावनावश सदन की कार्रवाई में बाधा उत्पन्न की| कभी काली छतरी के साथ तो कभी काले कपड़ों में आए तृणमूल सांसद दरअसल सारधा चिटफंड घोटाले की सीबीआई जांच और बर्धमान बम ब्लास्ट में तृणमूल कार्यकर्ताओं के नाम घसीटे जाने के डर से सरकार पर दबाव बनाने की नीयत से सदन का ध्यान आकृष्ट करना चाहते थे| किन्तु उनका यह पैंतरा अधिक नहीं चला और उनका विरोध प्रतीकात्मक बनकर रह गया।
ऐसे में सरकार जब सदन में जीतती दिख रही थी तभी विपक्ष को सरकार की एक मंत्री ने बैठे-ठाले एक ऐसा मुद्दा दे दिया, जो अब सरकार के गले की फांस बनता नज़र आ रहा है| राजग सरकार में केंद्रीय राज्य मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने दिल्ली में आयोजित एक जनसभा में ‘दिल्ली में या तो रामजादों की सरकार बनेगी या हरामजादों की’ जैसा आपत्तिजनक बयान देकर विपक्ष में मानो जान ही फूंक दी| साध्वी निरंजन ज्योति ने बयान किन संदर्भों में दिया, यह तो वे ही जानें किन्तु उनके इस बयान ने भाजपा और सरकार को तो बचाव की मुद्रा में ला ही दिया है|
साध्वी का बयान सदन के साथ ही दिल्ली विधानसभा में भी बहस का मुद्दा बनता नज़र आए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए| इस मुद्दे पर पिछले ४ दिनों से सदन का काम-काज ठप है| विपक्ष हंगामा करने की अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रहा है| हालांकि इस जिम्मेदारी को निभाने के अति-उत्साह में विपक्ष छत्तीसगढ़ में नक्सलियों द्वारा शहीद हुए सेना के जवानों को श्रद्धांजलि तक देना भूल गया| साध्वी निरंजन ज्योति का बयान किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता किन्तु विपक्ष को भी समझना चाहिए कि जब वे स्वयं इस मुद्दे पर सदन में खेद प्रकट कर चुकी हैं और गुरुवार को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य सभा में उन्हें माफ़ करने का आग्रह कर चुके हैं तो अब विपक्ष को भी बड़ा दिल दिखाना चाहिए| जो माननीय साध्वी के बयान को असंवैधानिक बता रहे हैं उन्हें जरा बयानवीरों का इतिहास खंगाल लेना चाहिए| इस देश में नेताओं के बेतुके बोल पर कोई पाबंदी नहीं लगा पाया है| कोई भारत माता को डायन कहता है तो कोई किसी नेता को मौत का सौदागर। आखिर विपक्ष को उस समय मर्यादा और संविधान का ध्यान क्यों नहीं आता जब उनके ही बीच का कोई नेता बेतुके बोल से माहौल दूषित करता है?
हाल ही में कांग्रेस से राज्य सभा सदस्य दिग्विजय सिंह ने झारखण्ड में नक्सलियों से भाजपा को हारने में साथ देने का आव्हान किया। क्या यह संविधान सम्मत अपील है? एक संगठन जो देश की सरकार के समानांतर अपनी सरकार चला रहा है, उससे इस अपील को क्या समझा जाए? क्या इस अपील के बाद विपक्ष दिग्विजय सिंह का विरोध करने की हिम्मत दिखा सकेगा? तिलक, तराजू और तलवार को चार-चार जूते मारने का फरमान जारी करने वाले कहां से कहां पहुंच गए? कुल मिलाकर लब्बो-लुबाब यही है कि माननीयों से सार्वजनिक जीवन में जिस शुद्धता और सात्विकता की अपेक्षा की जाती है, वह अब लुप्त होती नज़र आती है।
जहां तक भाजपा की बात है तो यह पार्टी अब सत्ता में है और सत्तासीन दल से वैसे भी उम्मीदें अधिक होती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस सुशासन और अच्छे दिनों के वादे के साथ सत्ता में आए हैं, उसे उनके मंत्रिमंडल और पार्टी के अन्य कार्यकर्ताओं को समझना चाहिए| सत्ता को यदि ज़हर मान लिया जाए तो मोदी को यह ज़हर रोज़ पीना पड़ रहा है| ऐसे में उनके मंत्रियों के बेतुके बोल उनकी परेशानियां ही बढ़ाएंगे| साध्वी को तो उनके वक्तव्य की सज़ा मिल चुकी है, अब यह विपक्ष के ऊपर निभर करता है कि हंगामा करना ही उसका मकसद है या देश-हित में भी वह अपनी भूमिका निभाना चाहेगा? वैसे भी कई टुकड़ों में विभाजित विपक्ष सदन में दिग्भ्रमित नज़र आ रहा है और सोशल मीडिया पर उसकी जमकर खबर ली जा रही है| अतः विपक्ष जनहितैषी कार्यों में सरकार का साथ दे ताकि उसकी बची-खुची साख कायम रह सके।