यारों का यार किसे कहते हैं, यह कोई समझना चाहे तो वह बलरामजी को देखे। आप बलरामजी से दोस्ती कीजिए और देखिए कि इस मुहावरे के कितने अर्थ – परत-दर-परत – खुलते चले जाते हैं। आत्मीयता का तिलिस्मि-सा ज़मीन पर उतर आता है। उनकी दोस्ती बड़ी अल्हड़ है। वह न उम्र देखती है न हैसियत देखती है। न कोई गजऱ् और न कोई शर्त ! वे मेरे पिता की उम्र के हैं लेकिन मुझे हमेशा अपने सहपाठी की तरह लगते हैं। कोई आदमी अपनी उम्र से 20-25 साल अधिक जवान होकर जीए, यह कोई साधारण बात तो नहीं है। ऐसी असाधारणता सिर्फ चेहरे-मोहरे से नहीं बनती है, हालांकि इस मामले में भी बलरामजी बड़े भाग्यशाली हैं। भगवान ने उनको इतने लंबे-चैड़े और आकर्षक शरीर से नवाजा है कि फिल्मी सितारों का दिल भी ईष्र्या से भर जाए। बलरामजी किसी भी महफिल में चले जाएं, अपनी कद-काठी और सतत मुस्कान के कारण वे औरों से अलग ही दिखाई पड़ते हैं। अगर वे मौन भी रहें तो भी उनकी उपस्थिति हजारों जुबानों से बोलती नज़र आती है और अगर वे बोलने लगें तो फिर क्या कहने? किस मौके पर क्या बात कहनी है, यह बात कोई बलरामजी से सीखे। पिछले 20-25 साल में सैकड़ों समारोहों में उनके साथ रहने का मौका मुझे मिला है, देश में भी और विदेश में भी। मुझे एक मौका भी ऐसा याद नहीं आता कि उनका भाषण हुआ हो और तालियों से हाॅल गूंजा न हो। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि भाव-विभोर श्रोताओं ने भाषण के दौरान अश्रुपात शुरू कर दिया और यह क्या कि हमारे वक्ता महोदय बलरामजी भी बहने लगे। वक्ता और श्रोता दोनों भाव-विभोर ! दोनों की आंॅखों से आसुओं की धारा बह रही है और सारा वातावरण विद्युतमय होता चला जा रहा है। यह घटना घटी थी, उदयपुर विश्वविद्यालय में। डाॅ. गिरिजा व्यास हम दानों को अपने छात्रों के बीच ले गई थीं। खचाखच भरे सभागृह में बलरामजी नौजवानों को बता रहे थे कि भारत को आज़ाद बराने में लोगों ने कैसी-कैसी कुर्बानियाॅं दी थीं। ऐसे अनेक चमत्कारी वक्ता तो मैंने देखे हैं जो लोगों को जब चाहे हॅंसा देते हैं, जब चाहें रुला देते हैं लेकिन उस प्रक्रिया में वे खुद पत्थर की मूर्ति बने रहते हैं लेकिन मैंने बलरामजी को मोम की तरह पिघलते हुए भी देखा है। कुछ अपनी गर्मी से और कुछ श्रोताओं की गर्मी से। पिघलन की ऐसी जुगलबंदी का कमाल कितने वक्ताओं को हासिल होता है।
कई लोग सभा में बड़े दिलचस्त होते हैं लेकिन अपनी निजी जिंदगी में बड़े रूखे होते हैं लेकिन बलरामजी हैं कि अगर आपसे उनका निजी संबंध है तो उसमें भी रस ही रस बरसता रहता है। वहाॅं सिर्फ शब्दों की ही नहीं, रिश्तों की जुगलबंदी भी होती है। रिश्ते निभाने में बलरामजी को कितने आग के दरिया पार करने पड़े होंगे, वे ही जानें। वे सचमुच निर्बल के बलराम हैं, संकटमोचन हैं, आड़े वक्त काम आनेवाले हैं, यारों के यार हैं। एक बार दिल्ली में मैंने बाल-शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया। देश-विदेश से लगभग तीन हजार प्रतिनिधि आए हुए थे। समापन समारोह के मुख्य-अतिथि अचानक बीमार पड़ गए। अब क्या करें? तत्कालीन प्रधानमंत्राी को बुलाएॅं या लोकसभा-अध्यक्ष को बुलाएॅं। लोकसभा-अध्यक्ष बलरामजी पेरिस में थे, यह मुझे पहले से पता था। फिर भी मैंने फोन किया। तुरंत जवाब आया। वे अगले दो दिन का पेरिस-प्रवास स्थगित कर रहे हैं और समारोह में पहुंच रहे हैं। सीरी फोर्ट के उस समारोह में बलरामजी ने अपने प्रेरक उद्बोधन से चार चाॅंद लगा दिए। अपने मित्रा की इज्ज़त बचा ली।
इसी प्रकार लगभग दस साल पहले बचपने के एक मित्रा मेरे पास आए और लगभग रोने लगे। कहने लगे कि मैंने जयपुर में अखिल भारतीय आयोजन किया है। देश के बड़े-बड़े आध्यात्मिक गुरु और ‘लोकप्रिय कथाकार’ आ रहे हैं लेकिन कोई उसी टक्कर का राजनीतिज्ञ हम नहींे जुटा पाए। हमारा कार्यक्रम तो फेल हो जाएगा। क्या आप जाखड़ साहब से प्रार्थना कर सकते हैं? जाखड़ साहब ने कहा कि आपके साथ चल तो पड़ूं लेकिन घर पर डिनर रख रखा है। भाषण के बाद यदि कोई निजी हवाई जहाज मिले तभी हम ठीक समय पर दिल्ली लौट सकते हैं। उन्होंने कहा आप प्रधानमंत्राी से कहिए। मैंने बात की। हमें एक बड़ा जहाज मिल गया। पूरे जहाज में केवल दो सवारी ! एक दो पी.ए. और सुरक्षा अधिकारी भी। जल्दी लौटना था तो तय हुआ कि मैं भाषण नहीं दूंगा। केवल बलरामजी बोलेंगे। वे बोले। विषय था – धर्म क्या है? लगभग 50 हजार श्रोता होंगे। जब बलरामजी बोल रहे थे तो मैं मंच पर मेरे पास बैठे उन ‘कथाकारों’ के चेहरे पढ़ रहा था, जिन्हें सुनने के लिए लाखों लोग आते हैं। वे हक्के-बक्के दिखाई पड़ रहे थे। बाद में पता चला कि वे यही बोलते रहे कि बलरामजी के बाद इस विषय पर हम क्या बोलें? बलरामजी ने इस बार दोस्त की इज्ज़त ही नहीं बचाई, दोस्त के दोस्त की भी इज्ज़त बढ़ा दी।
1999 में मैं संयुक्तराष्ट्र संघ में भारत के प्रतिनिधि के तौर पर गया हुआ था। उसी समय मयामी में प्रवासी भारतीयों ने एक अंतरराष्ट्रीय तुलसी सम्मेलन का आयोजन किया था। आयोजकों ने मुझसे न्यूयाॅर्क में सम्पर्क किया और कहा कि वे भारत से किसी बड़े राजनेता को नहीं बुला पाए। अब आप ही उसका उद्घाटन करें। मैंने उनसे पूछा कि यदि डाॅ. बलराम जाखड़ करें तो कैसा रहेगा? वे उछल पड़े लेकिन बलरामजी से सम्पर्क कैसे किया जाए, वे मानेंगे कि नहीं और इतनी लंबी हवाई-यात्रा के लिए राजी होंगे या नहीं? उन दिनों बलरामजी राजनीति के इन्टरवल में थे। निजी छुट्टियाॅं बिताने अमेरिका आए हुए थे। उन्हें क्या जरूरत थी कि वे अपने आराम में खलल डालें और मयामी जाएॅं लेकिन प्रेम और लिहाज़दारी का ही दूसरा नाम बलराम जाखड़ है। सैकड़ों किलोमीटर का सफर कार से तय करके वे ठीक समय मयामी पहॅुंच गए और तुलसी पर ऐसा बोले कि सारे पंडित आनंद-विभोर हो गए।
कुछ साल पहले मेरी बेटी अपर्णा ने अपने काॅलेज सेंट स्टीफंस से फोन किया और बोली कि आज हमारे ‘प्लानिंग फोरम’ का उद्घाटन नटवर अंक (श्री नटवरसिंह) करनेवाले थे और अभी (11 बजे) उनका फोन आया कि वे नहीं आ पाएॅंगे। यहाॅं सब लोग परेशान हो उठे हैं। मैं फोरम की अध्यक्ष हॅूं और पहले दिन ही मक्षिकापात हो रहा है। कार्यक्रम 12 बजे शुरू होना है। क्या मैं जाखड़ अंकल को फोन करूॅं? मैंने कहा, वे केबिनेट मिनिस्टर हैं। वे ऐसे कैसे आ जाएॅंगे? खैर, अपर्णा ने फोन किया। बलरामजी ने किसी को लंच पर बुला रखा था। उन्होंने लंच एक घंटा आगे खिसका दिया और वे संेट स्टीफंस पहुंॅच गए। बच्चों का हौसला आसमान छूने लगा। जो मोती माॅंग रहे थे, उन्हें हीरे मिल गए।
बलरामजी के साथ कई बार रेल और कार से यात्राएॅं करने के प्रसंग भी आए। मुझे फोन करके वे पहले से ही बता देते हैं कि खाने-पीने का पूरा इंतज़ाम है। आप घर से कुछ न लाएॅ। हम दोनों किसी तीसरे के मेहमान हैं लेकिन बलरामजी हैं कि वे मुझे अपना मेहमान बना लेते हैं। ये सादगी और दरियादिली किसी किसान में ही हो सकती है। चलने के पहले पूछेंगे कि आज क्या-क्या बनवाया जाए, मिठाइयाॅं कौन-कौन-सी रखवाई जाएॅं। रेल में एक-दो सेवक साथ रहते ही हैं। डिब्बे में ही दस्तरखान बिछ जाता है और पाॅंच-सितारा भोजन शुरू हो जाता है। एक से एक लज़ीज सब्जियाॅं, तरह-तरह की रोटियाॅं और मिठाइयाॅं। खुद भी थोड़ा-थोड़ा सब कुछ खाएॅंगे और साथ में बैठे लोगों को जमकर खिलाएॅंगे। यों तो वे हैं कनिष्क की तरह भरे-पूरे पुरुष लेकिन भोजन करते समय उनका स्त्राी-रूप देखने लायक होता है। जैसे यशोदा मैया कृष्ण को खिलाती होंगी, वैसे बलरामजी अपने दोस्तों को भोजन कराते हैं। रेल के डिब्बे में उन्हें देखने के लिए कई अनजान यात्राी भी ताक-झाॅंक करने लगते हैं। उनसे चिढ़ने की बजाय वे उन्हें बुलाते हैं और कहते हैं, आइए, आप भी जीमिए ! सेवकों, ड्राइवरों और सुरक्षाकर्मियों को खिलाने में भी वे कभी कोताही नहीं करते। अपने घर पर भी वे हमेशा बहुत स्वादिष्ट भोजन बनवाते हैं। मॅूंग का हलवा और खीर उन्हें बहुत पसंद है लेकिन उनकी पसंद के व्यंजन बनाना बच्चों का खेल नहीं है। वह खीर बलरामजी के लायक नहीं, जो कट-कटकर, तप-तपकर भूरी नहीं हो गई है और जिसमें घुटी हुई केसर, इलाइची और मेवे न पड़े हों। अगर किसी के घर उम्दा चीज़ बनी हुई हो तो बलरामजी दिल खोलकर तारीफ करने से ज़रा भी नहीं चूकते। बलरामजी के साथ कभी-कभी कई सामान्य मित्रों के घर भोजन होता है। अगर किसी व्यंजन में कुछ कमी रह जाए तो भी मैंने उन्हें कुछ टिप्पणी करते नहीं देखा, हालाॅंकि वे हमेशा कहते हैं कि भई, चैधरी की दोस्ती बड़ी बेढब होती है। चैधरी अगर पक्का है तो वह आ बैल सींग मार जरूर करता है। कोई चैधरी से उसकी घोड़ी माॅंगने आया तो चैधरी बोला, घोड़ी नहीं है। माॅंगनेवाला लौटने लगा। उसे दरवाज़े से वापस बुलवाया और चैधरी ने कहा ‘देख भई, अभी मेरे पास अगर होती तो भी तुझे तो बिल्कुल नहीं देता।’ ऐसे दो-टूक चैधरियों के बीच पले-बढ़े बलरामजी के स्वभाव की मधुरता विलक्षण है। उनके ग्रामीण व्यक्तित्व में अद्भुत नागर-सौष्ठव रमा हुआ है।
बलरामजी को देखकर कौन कह सकता है कि वे किसान हैं। उनकी बोल-चाल, कपड़े-लत्ते, रहन-सहन, आचार-विचार, आहार-विहार में इतनी नफासत है कि पहली नज़र में ही लोग उनपर लट्टू हो जाते हैं। एक बार दिल्ली में विश्व संसदीय सम्मेलन हुआ। दर्जनों देशों के स्पीकर दिल्ली आए। उनमें से कई मेरे निजी मित्रा भी थे। मैंने अपने मित्रा-स्पीकरों के लिए घर पर दावत भी रखी। उस बार कई स्पीकरों ने मुझे अकेले में अलग से कहा कि आपके पिछले स्पीकर बलराम जाखड़ और वर्तमान स्पीकर (तत्कालीन) में कितना अंतर है। इन विदेशी स्पीकरों में से केवल मोरिशस के स्पीकर को पता था कि बलरामजी मेरे मित्रा हैं। वे लोग बलरामजी की शालीनता, वक्तृत्व-कला, वाक्-संयम और संसदीय मर्यादा का उल्लेख कर रहे थे। किसान के घर पैदा होकर दुनिया के तरह-तरह के देशों में जाना और वहाॅं जाकर हर स्तर के लोगों को अपने आकर्षक व्यक्तित्व का मुरीद बना लेना कोई साधारण गुण नहीं है। इन्हीं असाधारण गुणों के स्वामी होने के कारण उन्हें जय-पराजय में समभाव बनाए रखने में कठिनाई नहीं होती। वे हारें या जीतें, किसी पद पर रहें या न रहें, लोग हमेशा उनके साथ जुटे रहते हैं। पंजाब से दिल्ली आने के बाद उन्हें लोकसभा के चुनाव हारने भी पड़े। उनके बेटे ने भी एक चुनाव हारा लेकिन मैंने बलरामजी को कभी हताश-निराश नहीं देखा। हारने की खबरें आती जा रही हैं और वे आपको दूध पिलाते जा रहे हैं या खीर खिलाते जा रहे हैं। कहते जा रहे हैं कि भई, कुर्सी से तो गए, अब इस खीर से क्यों जाएॅं? इसे तो प्रेम से खाएॅं। इस जिन्दादिली ने ही बलराम के बल को अभी तक बरकरार रखा है। इस दिल्ली में ऐसे अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों, मंत्रियों और सांसदों को मैंने नज़दीक से देखा है, जिन्होंने अपने बारे में प्रतिकूल खबरें मिलते ही क्या-क्या गुल नहीं खिलाए। किसी ने लात मारकर गमले गिरा दिए, किसी ने शीशे के गिलास तोड़ दिए, किसी ने पर्दे नोच लिए, किसी ने अनर्गल प्रलाप शुरू कर दिया, किसी ने आॅंसुओं की झड़ी लगा दी, किसी ने गालियों का झरना बहा दिया, किसी ने शराब पानी की तरह पीना शुरू कर दिया, किसी ने गुमसुम होकर अज्ञातवास में प्रवेश कर लिया, किसी को दौरा पड़ गया, कोई इस दुनिया से ही कूच की गया लेकिन बलराम जाखड़ हैं कि उन्हें मैंने हर हाल में सदाबहार ही देखा। जय-पराजय का असर तो होता है लेकिन उनकी कश्ती डावाॅंडोल नहीं होती।
सार्वजनिक जीवन में जैसा संतुलन बनाए रखते हैं, वैसा ही संतुलन उनके व्यक्तिगत जीवन में भी स्वयंसिद्ध-सा है। यह व्यक्तिगत उपलब्धि ही उनकी सार्वजनिक शक्ति का रहस्य है। इस बीच उन्हें माॅं और पत्नी का विछोह भी सहना पड़ा। बृहद् परिवार में कुछ जवान रिश्तेदार भी गए। हर हादसे में वे शक्ति-स्तंभ की तरह स्थिर और उन्नत रहे। रोते-बिलखते परिजनों के बीच ज्यों ही बलरामजी पहॅुंचते हैं, स्वस्ति-भाव का एक भावुक लहरा दौड़ पड़ता है। सब लोग सहज-से हो जाते हैं। लोगों का खोया ‘बल’ लौट आता है, क्योंकि उनका ‘राम’ निकट होता है। ऐसे कई विषम अवसरों पर बलरामजी के साथ मुझे उनके गाॅंव जाना पड़ा। संसार की ऊॅंचाइयाॅं छू लेने के बावजूद अपनी जड़ों से जुडे़ रहना ही शायद उनके सदाबहार होने का रहस्य है। अपने परिवार के छोटे से छोटे रिश्तेदार और गाॅंव के गरीब से गरीब लोगों के नाम-धाम उनको याद रहते हैं। एक बार वे, मैं और अंबिका सोनी तीनों कार से उनके गाॅंव पहुंचे। दिल्ली से फिरोजपुर तक ड्राइवर नई ‘पजेरो’ चलाता रहा। उन दिनों बड़ी जापानी कार ‘पजेरो’ अजूबा हुआ करती थी। उसे देखनेवालों की भीड़ लग जाती थी। जैसे ही बलरामजी का गाॅंव पंचकोसी आया, उन्होंने ड्राइवर को कहा, ‘बेटे, तू जा मौज कर, अब कार मैं चलाऊॅंगा।’ बलरामजी स्टीयरिंग पर बैठ गए और कार मंथर गति से चलने लगी। सड़क छोटी थी, इसलिए गति और भी धीमी हो गई। लोग अपने नायक को पहचानने लगे। कार की गति पहले साइकिल जैसी हुई और फिर बैलगाड़ी जैसी ! शीशे उतारने पड़े। रास्ते भर यारों, दोस्तों, रिश्तेदारों, आदमियों-औरतों के साथ नमस्कार-चमत्कार होता रहा। एक नाई की दुकान के आगे जाकर कार एकदम धीमी हो गई। बलरामजी ने हाथ बाहर निकालकर हिलाया। उधर से नाई बाबा पूछते हैं, ‘अरे, बलराम तू कब आया, मजे में तो है?’ ये हुई न बात ! भारत की लोकसभा का अध्यक्ष, केंद्रीय मंत्राी, करोड़पति किसान, कृषि पंडित क्या-क्या नहीं हैं, बलराम जाखड़ लेकिन एक नाचीज़ नाई अपना उस्तरा हिलाकर अपने प्यारे मित्रा का हाल किस अंदाज़ में पूछ रहा है। मुझे रसखान का पद याद आया, ‘ताहि अही की छोहरियाॅं छछिया भर छाछ पे नाच नचावैं।’
पंचकोसी गाॅंव में बलरामजी का घर गाॅंव-जैसा ही है। पंजाब के गाॅंव-जैसा, बिहार या मध्यप्रदेश के गाॅंव जैसा नहीं। सादा लेकिन स्वच्छ और आरामदेह ! फैला हुआ। कई कमरे और दालान! वहीं माताजी के दर्शन हुए। 90 वर्ष की आयु में भी चेहरा सोने की तरह तपा हुआ, गुलाब की तरह खिला हुआ, कंधारी अनार की तरह रचा हुआ। उनके पास बैठना और बात करना अपने आप में एक अनुभव था। आत्मीयता और वात्सल्य का झरना-सा बह उठा। बलरामजी के इतने परिजनों से एक साथ मिलना पहले नहीं हुआ था। पूरे परिवार में छोटे-बड़े की मर्यादा, संबंधों की शालीनता और पारस्परिक समरसता देखते ही बनती थी। चार पीढि़यों में कहीं कोई खुरदरापन दिखाई नहीं पड़ा। व्यक्तित्व की यह स्निग्धता बलरामजी को विरासत में मिली है। एक लंबे-चैड़े संयुक्त परिवार की देखभाल करनेवाले बलरामजी को लोकसभा भारी क्यों पड़ती? लोकसभा को 10 साल तक सहज भाव से चलाने और सत्ता व प्रतिपक्ष में समन्वय बनाए रखने में जैसी सफलता उन्हें मिली, क्या किसी अन्य अध्यक्ष को मिली? जैसे जवाहरलाल नेहरू सबसे लंबे समय तक भारत के प्रधानमंत्राी रहे, वैसे ही बलराम जाखड़ सबसे लंबे समय तक लोकसभा के अध्यक्ष रहे।
ब्रिटिश राजनीति में माना जाता है कि बड़े नेता वही बनते हैं, जिनकी लोकप्रियता अपनी पार्टी के बाहर भी हो। विरोधी दलवाले चाहे बाहर प्रकट न करें लेकिन किसी को अगर अंदर ही अंदर सराहें तो मान लीजिए कि ऐसा राजनीतिज्ञ किसी दिन सर्वोच्च पद तक पहॅुंच सकता है। यह खूबी बलरामजी में पहले से थी और अपनी अध्यक्षता के दौरान उन्होंने इसे और भी बढ़ाया-पकाया। यदि केवल व्यक्तिगत गुणों के कारण कोई सर्वोच्च पद तक पहुॅंच सकता होता तो कई लोग अब तक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्राी बन गए होते। व्यक्तिगत गुणों के अलावा संयोग और परिस्थितियों की भूमिका भी जबर्दस्त होती है। इसीलिए कभी भी कुछ भी हो सकता है लेकिन अगर कुछ भी न हो तो भी बहुत कुछ है। बलराम जाखड़ होना भी अपने आपमें कम नहीं है। बहुत कुछ है।
बलरामजी और मैंने कई विदेश-यात्राएॅं साथ-साथ की हैं। उनके संस्मरण भी रोचक हैं लेकिन यहाॅं पाकिस्तान-यात्रा का जि़क्र करना जरूरी है। लगभग 40 सांसदों का एक प्रतिनिधि मंडल पाकिस्तान जा रहा था। इसमें शायद एक भी सांसद ऐसा नहीं था जो पहले पाकिस्तान गया हो। इसमें सभी दलों के वरिष्ठ सदस्य थे। जैसे बलराम जाखड़, टी.एन. चतुर्वेदी, सुषमा स्वराज, एस.एम. कृष्णन, मीरा कुमार आदि। इस प्रतिनिधि मंडल को प्रधानमंत्राी अटलबिहारी वाजपेयी की फरवरी 1998 की लाहौर बस-यात्रा के पहले पाकिस्तान जाना था। सारी तैयारी हो गई लेकिन साथ में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो पाकिस्तान के प्रमुख नेताओं को जानता हो और पग-पग पर हमारे सांसदों की सहायता कर सके। बलरामजी और मलकानीजी ने मुझे फोन किया कि आपको कल ही हमारे साथ पाकिस्तान चलना है। सो, मैं भी सांसदों के साथ चल पड़ा। भारत-पाक सम्मेलन का उद्घाटन प्रतिपक्ष की नेता बेनज़ीर भुट्टो ने किया। मैं पत्राकार दीर्घा में बैठा था। उद्घाटन के बाद वे तेजी से चलती हुई मेरे पास आ गईं और नाराज़गी का इज़हार करने लगीं कि मैंने उन्हें तीन दिन पहले जो ई-मेल भेजा था उसमें पाकिस्तान आने का जि़क्र क्यों नहीं किया। मैं उन्हें अपनी सफाई दे रहा था इतने में ही चतुर्वेदीजी, बलरामजी और मलकानीजी वहीं आ गए और उन्होंने बेनज़ीर से कहा कि हमें आपसे मिलना है। इसपर बेनज़ीर ने कहा आप सब साहबान मेरे स्यूट में आइए। मेरिएट होटल के उस स्यूट की तरफ आगे-आगे बेनज़ीर और मैं तथा पीछे-पीछे वे तीनों महानुभव चलने लगे। बेनज़ीर ने मुझसे पूछा कि ‘ये लम्बे-से इम्प्रेसिव साहब कौन हैं?’ मैंने कहा ‘‘डाॅ. बलराम जाखड़, हमारे पुराने लोकसभा अध्यक्ष और मंत्राी !’’ इस पर बेनज़ीर बोलीं ‘‘इनका नाम तो सुना है। क्या ये पंजाब के नहीं हैं?’’ उन्होंने मुझसे सिर्फ बलरामजी के बारे में ही पूछा और किसी के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं ली।
इसी प्रकार लाहौर के गवर्नर हाउस में जब प्रधानमंत्राी नवाज शरीफ पर हमारे सांसदों की भीड़ टूट पड़ी तो दो ही आदमी पीछे रह गए। एक तो सबसे लम्बा आदमी और एक सबसे छोटा आदमी। याने बलरामजी और मैं। मियाॅं नवाज ने मुझे दूर से देख लिया था। उन्होंने अपने सूचना-मंत्राी श्री मुशाहिद हुसैन को मेरे पास भेजा। मुशाहिद ने मेरे पास आकर ज़रा शोर मचाया तो लोग हटे और मैं मियाॅं साहब के पास पहॅुंच गया। एक-दो मिनट हमारी निजी बातचीत हुई उसके बाद मियाॅं साहब ने मेरे कान के पास अपना मॅुंह लाकर मुझसे पूछा कि ‘‘ये मोहतरमा कौन हैं?’’ मैंने उनसे श्रीमती सुषमा स्वराज का अच्छा-सा परिचय कराया। उसके बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्राी का ध्यान सबसे पहले आप जानते हैं, किसपर गया? श्री बलराम जाखड़ पर। जब मैंने मियाॅं साहब को बलरामजी का परिचय दिया और उनसे अपना सम्बंध भी बताया तो वे बलरामजी को अलग ले गए और अपने साथ एक शानदार सोफे पर भी बिठा लिया। दोनों ने पंजाबी में बात की। पूरे प्रतिनिधि मंडल में यह सम्मान केवल बलरामजी को ही मिला। बलरामजी तथा मियाॅं नवाज का चित्र मैंने अपने कैमरे में कैद कर लिया। शाम को लाहौर हवाई अड्डे पर जब मियाॅं नवाज शरीफ और मैं वी.आई.पी. लाउंज में दुबारा मिले तो अपने जहाज में बैठने से पहले प्रधानमंत्राी ने मुझसे कहा कि अपने दोस्त जाखड़ साहब को मेरा सलाम कहिए। कहने का मतलब यह है कि बलरामजी के व्यक्तित्व में कोई ऐसी सम्मोहिनी शक्ति है जो भी उनसे एक बार भी मिलता, उनकी तरफ आकर्षित हो जाता।