साल की पत्तियों को जमा करते हैं । पांच पत्तियों को जोडकर प्लेट थाली जितना बड़ा बनाते हैं । फिर उसे धूप में सुखाते हैं । और सूखने के बाद सौ सौ के बंडल बनाते हैं । फिर सौ सौ के दस बंडल मिलाकर कर बेचते हैं । और इसकी कीमत मिलती है सौ रुपया । इसे करने में तीन दिन लग जाते है । और कोई काम तो जंगल में है नहीं । चिडिया पकड़ने के लिये इस तरह लकड़ी के छिलके को धागे से बाध कर बनाते हैं । रात में पेड़ पर लटकाते हैं तो सुबह दो चिड़िया तो फंस ही जाती है । जंगल में घूम कर सूखी लकड़िया जमा करते हैं । जिससे खाना बनाने के इंतजाम हो जाये । ममता दीदी ने यह राशन कार्ड बनवा दिया है । जो हमारे जिन्दा होने की निशानी भी है और जिन्दा रहने की जरुरत भी । क्योंकि इसी से दो रुपये किलो चावल मिलता है । हर हफ्ते छह किलों चावल और आधा लीटर घासलेट ।
जिन्दगी जीने की यह कहानी उसी जंगलमहल के आडवडिया गांव की है । जिस जंगलमहल के सैकड़ों गांव की आग ने ममता बनर्जी को पांच बरस पहले सत्ता दिला दी । जंगलमहल के तीनों जिलों पश्चिमी मिदनापुर, पुरुलिया और बांकुरा के किसी भी गांव में घुसकर , किसी के घर के आंगन में खटिया पर बैठकर कुछ देर सुस्ता लीजिये तो ममता बनर्जी की सत्ता पाने की अनकही कहानी आपके आंखो के सामने रेंगने लगेगी । और वामपंथी सत्ता के खिलाफ हिंसक आंदोलन की शुरुआत कैसे हुई । उन तारीखो को अब भी ममता के साथ जुड चुके माओवादियो को याद है । क्योंकि उस दौर में संघर्ष और मौजूदा वक्त में सत्ता का सुकून कुछ माओवादियो को परेशान करता है । तो कुछ माओवादियो को सुकून देता है । यह हालात ठीक वैसे ही है जैसे कभी नक्सबाडी में कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ माओवादी खडे हुये थे और सत्ता परिवर्तन के बाद सीपीएम ने हर उस माओवादी को निशाने पर लिया जिसने वाम सत्ता से जुडने से इंकार कर दिया । अंतर इतना ही है कि 1970-72 के बीच नक्सबाडी में माओवादियों का खून ज्यादा बहा । और 2011-13 के बीच जंगलमहल में माओवादियों के खिलाफ मामले ज्यादा दर्ज हुये । कानूनी फाइले ज्यादा बनी। और जो ममता के साथ जो आया उसकी फाइले बंद हुई । दर्ज मामले वापस लिये गये ।
जहां ममता पर भरोसा कम है वहां माओवादी ममता बनर्जी के साथ आकर भी हथियार अपने पास छुपाये हुये है । कि पता नहीं कब इसकी जरुरत पड़ जाये । लेकिन 2016 के विधानसभा चुनाव ने पहली बार उन हालातों को सामने नक्सलबाडी से लेकर जंगलमहल तक के ग्रामीण आदिवासियों के सामने ला खडा किया है जहां वह इस सच को समझने लगे है कि 50 बरस पहले काग्रेस के खिलाफ वामपंथियों ने नही नक्सलियो ने संघर्ष किया था। और उसी संघर्ष को राजनीतिक ढाल बनाकर सीपीएम सत्ता में आई । और 50 बरस बाद सीपीएम के खिलाफ ममता ने भी माओवादियो के संघर्ष को अपना राजनीतिक ढाल बनाया और सत्ता में गई । इसीलिये 2016 के चुनाव प्रचार के बीच 7 अप्रैल को जब सिलिगुडी में प्रधानमंत्री मोदी रैली करने पहुंचते हैं तो भीड़ के बीच में 78 बरस के बेटे प्राण सिंह भी मिल जाते है । जो बात बात में यह बोलने से नहीं चूकते कि नक्सलबाड़ी ही आखिरी रास्ता है । क्योकि तब और अब के हालात में अंतर सिर्फ इतना आया है कि तब सत्ता का चरित्र साफ दिखायी देता था और अब सत्ता ने बहुत सारे तंत्र को अपने अनुकूल बना लिया है । और तंत्र में जुड़े लोग नौकरी करते हुये । सत्ता को ही जनता का नुमाइंदा करने वाला मानते है ।
प्राण सिंह उसी धनेश्वरी देवी के बेटे है जिन्हे 24 मई 1967 में पुलिस ने मारा था । उस वक्त कुल नौ माओवादी मारे गये थे । और उसके बाद ही नक्लबाडी संघर्ष की शुरुआत हुई थी । खुद प्राण सिंह ने 1967 में बंदूक उठायी थी । लेकिन अब वह साफ कहते है बदलाव बंदूक से नहीं विचारधारा से आयेगा । और नक्सलबाडी विचारधारा थी । लेकिन हालात कैसे बदल गये इसका एहसास चुनावी गहमा गहमी में अगर कांग्रेसी उम्मीदवार के पीछे खडे वामपंथियों को देखकर समझा जा सकता है तो बीजेपी दफ्तरों को सुरक्षा देती तृणमूल कांग्रेस से भी समझा जा सकता है । और इसके सामानांतर नक्सलबाडी के आंदोलन को खड़ा करने वाले जंगल संथाल की पत्नी नीलमणि के तील तील मरने वाले हालात कोई पूछने वाला नहीं से देखकर भी समझा जा सकता है । नीलमणि भूलने वाली बीमारी से ग्रसित है और घर में कोई संभालने वाला नहीं है तो अधनंग-अधमरी हालत में घर की चौखट पर दिनभर पडी रहती है ।
और जंगलसंथाल के घर से सटे कानू सन्याल के घर को देखती शांति मुंडा है तो अस्सी पार लेकिन उनके भीतर बदलाव की ललक अब भी धधकती है । महिला विंग की कमांडर रह चुकी शांति मुडा का अब भी मानना है कि ‘नक्सलबाडी” कहीं गलत नहीं था । हां उस वक्त चीन के चैयरमैन को हमारे चैयरमैन कहना गलत था । तो गलती तो होती है । लेकिन जब किसान-मजदूर आदिवासी भूखे मरने लगेंगे तो फिर कौन सा रास्ता बचेगा । शांति मुंडा का मानना है कि सत्ता ही नहीं बल्कि मौजूदा वामपंथियों के पास कोई इकनॉमिक माडल नही है । जिससे देश में हर किसी को दो जून की रोटी मिल सके । और राजनीति दे जून की रोटी छीन कर ही रईसी का नाम है । इस लिये वह सत्ता बंदूक की नली से निकलती है के नारे पर चोट करने वालो पर यह कहकर चोट करती है कि नक्सेबाजी में वामपंथियों ने अपना उम्मीदवार क्यों खडा नहीं किया । कांग्रेसी उम्मीदवार को वामपंथी क्यों समर्थन कर रहे है ।
वैसे खास बात यह भी है कि जंगलसंथाल और कानू सन्याल के गांल हंसदिया को बीजेपी सांसद अहलूवालिया ने गोद लिया है। और शांति मुंडा के मुताबिक अहलूवालिया उनसे मिलने भी आये थे । और कह गये थे कि बुलेट से नहीं बेलेट से सत्ता चलती है तो पिर गांव की सड़क पर एक रोड़ा तक क्यों नहीं गिरा । और शांति मुंडा के इसी सवाल पर जब हमने अहलूवालिया से पूछा तो उन्होंने कहा कि ममता बनर्जी किसी योजना को लीक होने नहीं देती । और बीडीओ से लेकर कलेक्टर तक तो ममता से डरता है कही बीजेपी सांसद से बात करने की जानकारी लीक ना हो जाये । तो इस खौफ में कोई काम के होगा । कह सकते हैं हर किसी के सवाल दूसरे के सवालों से टकराते हुये ही दिखते हैं । लेकिन नक्सलबाडी अगर राजनीतिक तौर पर वामपंथियों की प्रयोगशाला के तौर पर रही । तो बंगाल का दूसरा सच जंगलमहल है । जहा सत्ता बदलने के महज पांच बरस बाद ही नक्सलबाडी की तर्ज पर सवाल है ।
क्योंकि ममता बनर्जी ने उन माओवादियो को बदल दिया जो सत्ता में समा गये । सालबानी के विधायक जो इस बार भी टीएमसी के टिकट पर चुनाव लड रहे हैं उनकी जिन्दगी ममता ने बदल दी । यह अलग बात है कि किशनजी के साथ रहते हुये वह जंगलमहल की जिन्दगी बदलने की बात करते थे । जिस वक्त श्रीकांतो महतो जंगल महल के लिये संघर्ष कर रहे थे । तब उनके जहन में ग्रामीण आदिवासी की जिन्दगी में परिवर्तन लाना था । लेकिन ममता ने उन्हीं 2011 में सालबानी से टिकट दिया और चुनाव जीतने के बाद जो श्रीकांतो महतो साल के पत्तो पर खाना खाते थे । वह विधायक श्रीकांतो महतो करोड़पति बन गया । और जो माओवादी मनोज महतो पांव में गोली लगने से घायल गो गया वह ममता की सत्ता तले जीने को बिना किसी पद भी मजबूर हो गया क्योकि पुलिस जब उसे दौडाती तो वह कहा भाग कर कहा जाता और कैसे संघर्ष करता । ऐसे अनकहे सच जंगलमहल के बेलपहाडी से लेकर कांटा पहाडी और सालबानी से लेकर लालगढ में पटे पडे है । लेकिन चुनाव के वक्त पहली बार सत्ता से सटे माओवादी जब यह सवाल उठाते है कि बंगाल में सत्ता परिवर्तन की नींव सिंगूर या नंदीग्राम से नहीं बल्कि तत्कालीन सीएम बुद्ददेव भट्टचार्य को बारुदी सुरहग से उडाने की घटना से पड़ी ।
यानी लालगढ से शुरुआत हुआ तो ममता की राजनीति के उलझे तार खुद ब खुद खुलते चले जाते हैं । क्योंकि टीएमसी कैडर बन चुके माओवादी बकायदा तारीख सहित बताते हैं कि 2 नवंबर 2008 को पश्चिमी मिदनापुर में लालगढ की सीमा के करीब से जा रहे बुद्ददेव भट्टचार्य को बारुदी सुरंग से उडाने का प्लान मई-जून से ही बनने गे था । क्योंकि जिंदल की फैक्टरी का उद्घाटन करने बुद्ददेव जायेंगे और किस रास्ते से जायेंगे । इसका जानकारी के बाद जंगल महल से गुजरते रेलवे पटरी से ही तार बिछा कर नेशनल हाइवे तक लायी गई थी । और जब बुद्ददेव बच गये तो उसके बाद से पुलिस और सीपीएम कैडर ने समूचे लालकगढ को खंगालना शुरु किया । और एक माओवादी के घर तक पुलिस पहुंची । जहा चीताभाई मूर्मू को मारा –पीटा गया । और उस घटना ने गांव वालो के भीतर गुस्सा बढाया तो सीपीएम कैडर ने हथियारों के साथ मौर्चा संभाल लिया ।
इस घटना से लेकर 2010 में जब लालगढ के नेताई गांव में जब सीपीएम हथियारबंद कैडर हरमत वाहिनी ने नौ लोगों को मारा तो उस घटना ने बंगाल में सत्ता परिवर्तन की नींव पुखत्क र दी । क्योकि पहली बार बंगाल पुलिस और सीपीएम कैडर के बीच लकीर कैसे मिट चुकी है य.ह साफ साफ दिखायी देने लेगा । और ममता बनर्जी ने राजनीतिक तौर पर माओवादियो के समूचे संघर्ष को ही साधना शुरु कर । वजह भी यही है टीएमसी सांसद शुभेन्दु अधिकारी शुरु से जंगलमहल के हालातो से दो चार हो रहे थे । तो वही आज की तारिख में ममता बनर्जी और टीएमसी में शामिल हुये माओवादियों के बीच कडी है । और सीपीएम की हरमद वाहिनी से दो दो हाथ करने वाले माओवादियों को साथ खडा कर ममता बनर्जी ने अपना राजनीतिक घेरा ठीक उसी तरह बढाया और मजबूत किया जैसे 1970-72 के दौर में वामपंथियों ने नक्सलबाडी में बनाया था । तो सिर्फ तरीका ही नहीं बल्कि वैचारिक तौर पर भी वामपंथियों से लेकर ममता बनर्जी ने अपने पने राजनीतिक बिसात पर प्यादा वाम
सोच को ही बनाया । इसलिये नक्सलबाडी में घूमते हुये आप आज भी मार्क्स, लेनिन, चिन ली पाओ से लेकर माओ तक की प्रतिमा देख सकते हैं । तो जंगलमहल के पश्चिमी मिदनापुर के शहरी बाजार के सबसे व्यस्तम चौराहे पर कार्ल मार्क्स की प्रतिमा भी आपका स्वागत करेगी । और तस्वीरो की नींव बुलंद दिखायी दे इसके लिये ज्योति बसु ने लाल पत्थर कटवाया । तो ममता ने लाल पत्थर के सफेद-नीले से रंग कर इस एहसास को जंगम महल में जगाया कि तृणमूल कांग्रेस वाम से भी ज्यादा वाम है । लेकिन अतीत के हालातो का ककहरा दोनों भूल गये हैं तो यह भी भूल गये कि बंगाल में सत्ता परिवर्तन के लिये एक “ युद्द-क्षेत्र “हमेशा चाहिये । और 2016 के विधानसभा चुनाव के वक्त ना तो 1967 वाला नक्सलबाडी है, ना ही 2011 का जंगल महल सरीखा कोई “ युद्द-क्षेत्र “ है । सिर्फ ढहते मूल्यों की सियासत को लेकर गुस्सा है । इसलिये सिर्फ पांच बरस में वाम और ममता में कोई अंतर किसी को नजर आ नहीं रहा है ।