अन्तरराष्ट्रीय मामलों में जिनकी गहरी रूचि है, उन्हें भी यह समझ नहीं पड़ रहा कि आखिर अफगानों ने काबुल स्थित पाकिस्तानी दूतावास को ध्वस्त क्यों किया? जिस पाकिस्तान ने लगभग 20 साल तक 30 लाख अफगानों को शरण दी और काबुल के कम्युनिस्ट शासन को उखाड़ फेंकने में सकि्रय फौजी सहायता की, उस पाकिस्तान की साख आज इतनी क्यों गिर गई है कि उसके राजनयिकों को अपना दूतावास छोड़कर पाकिस्तान भागना पड़ा है| आज तो ऐसा भी नहीं है, जैसा कि कभी सरदार दाऊद और जनरल अयूब के ज़माने में था| याने अफगानिस्तान और पाकिस्तान अलग-अलग खेमों में हों| दोनों राष्ट्र अपनी रोजी-रोटी के लिए अमेरिका पर निर्भर हैं| दोनों एक ही डोर से बंधे हुए हैं लेकिन दोनों एक दूसरे की टॉंग-खिंचाई करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं| इसके अलावा दोनों राष्ट्र एक-दूसरे पर इस क़दर निर्भर हैं कि अगर उनमें सद्रभाव नहीं होगा तो दोनों का बड़ा नुक्सान हो सकता है| यदि पाक-अफगान तनाव बना रहेगा तो मध्य एशिया की गैस और तेल की पाइपलाइन कराची तक कैसे पहुंचेंगी और पाकिस्तान रास्ता नहीं देगा तो चारों तरफ जमीन से घिरे अफगानिस्तान के व्यापार और आवागमन का दम घुट जाएगा|
इन मजबूरियों के बावजूद अफगानिस्तान में पाकिस्तान-विरोधी माहौल क्यों बना हुआ है? मज़हब का पव्वा भी किसी काम क्यों नहीं आ रहा है? इसके पीछे दो तरह के कारण हैं| एक तो तात्कालिक और दूसरे एतिहासिक ! तात्कालिक कारण क्या-क्या हैं? सबसे पहला तो यह कि तालिबान का मूलोच्छेद नहीं हो पा रहा| अमेरिकी आका बड़ा नाखुश है| इस नाखुशी का ठीकरा दोनों देश एक-दूसरे के मत्थे फोड़ रहे हैं| अफगानिस्तान का कहना है कि पाक सरकार ने तालिबान और अल-कायदा के छापामारों को अपने सीमांत के इलाकों में छिपा रखा है| उन्हें पकड़ने के बजाय वह उनके बहाने अफगान सीमा का उल्लंघन करती है और उसके फौजी 40-50 कि.मी. तक अन्दर घुस आते हैं| वे अन्तरराष्ट्रीय सेना और अफगान सेना को उन छापामारों का पीछा करने से रोकते हैं| पाकिस्तान छापामारों को जिन्दा रखे हुए हैं ताकि आतंक-विरोध के नाम पर उसकी अंटी गरम होती रहे| उधर जनरल मुशर्रफ ने अपनी यूरोप-यात्रा के दौरान तीन हफ्ते पहले आरोप लगाया कि हामिद करज़ई की सरकार केवल काबुल में है| उसके बाहर उनका सिक्का नहीं चलता| वे सीमांत में छिपे आतंकवादियों को पकड़ ही नहीं सकते| आतंकवादियों का पीछा करने के नाम पर अफगान सरकार डूरेंड लाइन का उल्लंघन करती है और पाकिस्तान के पठानों को भड़काती रहती है| मुशर्रफ और पाक सरकार के इस रवैए से नाराज़ अफगान राष्ट्रपति करज़ई ज्यों ही आक्रामक मुद्रा धारण करते, उसके पहले ही काबुल के अफगानों ने पाकिस्तानी दूतावास को तहस-नहस कर दिया| लेने के देने पड़ गए| अमेरिका और यूरोप से लौटे मुशर्रफ के हाथ मजबूत हो गए| करज़ई को फोन करके माफ़ी मॉंगनी पड़ी और 56 हजार डॉलर का हर्जाना चुकाना पड़ा| गरीबी में आटा गीला हुआ|
पाकिस्तान को संदेह है कि काबुल में पाक-विरोधी लहर उठाने का काम दो तत्व कर रहे हैं| एक तो तथाकथित उत्तरी गठबंधन के मंत्र्िागण जैसे रक्षा मंत्री फहीम और विदेश मंत्री डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला आदि और दूसरा भारत ! यह सही है कि करज़ई के मंत्रिमंडल में गैर-पठानों की बहुलता है और प्रो. बुरहानुद्दीन रब्बानी के नेतृत्ववाला संगठन पाकिस्तान के प्रति मैत्रीपूर्ण नहीं है| इस गठबंधन ने सत्ता में रहते हुए और तालिबान के ज़माने में भी पाकिस्तान का खुल्लमखुल्ला विरोध किया था| पाकिस्तान का आरोप है कि गठबंधन के नेतागण अफगानिस्तान में पश्तोभाषी पठानों पर फारसीवान गैर-पठानों का प्रभुत्व कायम करना चाहते हैं| वे करज़ई और मुशर्रफ में भी भेद डालना चाहते हैं| करज़ई पठान हैं लेकिन पाकिस्तानी मानते हैं कि वे फारसीवानों की कठपुतली हैं| पाकिस्तानियों को यह संदेह भी है कि जनरल फहीम नई अफगान फौज में ताजि़कों, उज़बेकों और हजाराओं को भर देंगे जबकि अब तक की अफगान फौज में पठानों का वर्चस्व रहा है| पठानों के प्रति पाकिस्तान का झुकाव स्वाभाविक है, क्योंकि जितने पठान अफगानिस्तान में रहते हैं, उनसे ज्यादा पाकिस्तान में रहते हैं| पठानों के प्रभुत्व का मतलब काबुल मे पाकिस्तान का मजबूत होना है| इतिहास में इससे उल्टा भी हुआ है| काबुल के पठानों ने पेशावर पर कब्जा करने की कोशिश भी की है लेकिन वर्तमान में पाकिस्तान को यही दृष्टिकोण सही मालूम पड़ता है, क्योंकि उसने तालिबान के रूप में गिलज़ई पठानों को काबुल में बिठाकर चार-पॉंच साल अपनी हुकूमत चलाने का मज़ा लूटा है| हामिद करज़ई पठान हैं| उनके नेतृत्व के बावजूद अब अफगानिस्तान का राजनीतिक परिद्दश्य काफी बदल गया है| नए अफगानिस्तान में कोई भी जाति अपना एकछत्र वर्चस्व नहीं चला सकती| पाकिस्तान अभी तक इस नए सामाजिक और राजनीति प्रपंच को हृदयंगम नहीं कर पाया है| इसीलिए उसे हर पाक-विरोधी घटना के पीछे गैर-पठानों का हाथ मालूम पड़ता है जबकि सच्चाई यह है कि काबुल के पाक-विरोधी प्रदर्शन का नेतृत्व जाने-माने पठान नेतागण कर रहे थे| स्वयं पाकिस्तान दिग्भ्रमित है कि क्वेटा की शिया मस्जिद में हुए नर-संहार का ठीकरा वह किसके माथे फोड़े? यह मस्जिद अफगानिस्तान से लगभग सौ साल पहले भागकर आए फारसीवान हजाराओं ने बनाई थी| वे शिया हैं| क्या इन फारसीवान शिया लोगों का खून गठबंधन के फारसीवान नेता बहवाऍंगे? यह आरोप हास्यास्पद है| जाहिर है कि इस शिया मस्जि़द पर उन तालिबानी तत्वों ने हमला किया है, जो पश्तोभाषी हैं और जिनके प्रति अब भी पाकिस्तान में गहरी सहानुभूति है| अब पाकिस्तान क्या करे?
उसके तरकस का जो आखरी तीर है, उसने अब वह भी छोड़ दिया है| वह है, भारत की टांग-खिचाई ! उसका आरोप है कि यह सब खुराफात भारत करवा रहा है याने क्वेटा की शिया मस्जिद पर हमला और काबुल के पाकिस्तानी दूतावास की तोड़-फोड़ की जिम्मेदारी भारत पर है| भारत को अफगानिस्तान में पाकिस्तान का बोलबाला पसंद नहीं है| इसीलिए वह पाक-अफगान सीमांत पर अपने जासूसों का जाल बिछा रहा है| अभी-अभी कंधार और जलालाबाद में उसने अपने वाणिज्य दूतावास खोलकर पाक-विरोधी गतिविधियॉं शुरू कर दी हैं| पाकिस्तान से कोई पूछे कि क्या भारत ने ये वाणिज्य दूतावास पहली बार खोले हैं? इसके अलावा मज़ारे-शरीफ और हेरात भी क्या पाकिस्तान की सीमा पर हैं? इन स्थानों पर दूतावास खोलने का मुख्य कारण है, आम लोगों को वीज़ा, व्यापार और सम्पर्क की सुविधाऍं देना| अफगानिस्तान में भारत की लोकपि्रयता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि अफगान जनता ने भारतीय दूतावासों पर कभी हमला नहीं किया, उन दिनों भी नहीं जबकि भारत को सोवियत हमले का समर्थक बताने की कोशिश की गई थी|
इसके विपरीत पाकिस्तान की इज़्जत का हाल यह है कि तालिबान-राज में भी उसके दूतावास पर हमला हुआ और उसके राजनयिकों को पकड़कर लोगों ने उस्तरे से मूंड दिया| पाक-अफगान विवाद की जड़ें इतिहास में बहुत गहरी हैं| संयुक्तराष्ट्र में पाकिस्तान के प्रवेश का विरोध करनेवाला एक मात्र राष्ट्र अफगानिस्तान ही था| सन 1950, 1955 और 1961-63 में पाक-अफगान विवाद इतना बढ़ा कि तीनों बार सीमा बंद हो गई और युध्द की नौबत आ गई| पाक ध्वज और दूतावास को जला दिया गया| अफगानिस्तान डूरेंड लाइन नामक पाक-अफगान सीमा को मान्यता नहीं देता है और पाकिस्तान के सरहदी सूबे को अपना हिस्सा मानता है| वह वहॉं पख्तूनिस्तान कायम करने का समर्थक है| अफगानिस्तान का सोच यह भी है कि पहले अफगान जिहाद और अब आतंकवाद-विरोध के नाम पर पाकिस्तान जमकर हथियार और पैसा पाता रहा है| अफगान अहसान का बोझ उसकी छाती पर लदा हुआ है| इसीलिए अफगानिस्तान पर ऑंखे तरेरने का कोई अधिकार पाकिस्तान को नहीं है|