पिछले दिनों 7 अगस्त को जालन्धर के भीड़भाड वाले इलाक़े में मोटर साईकिल सवार दो आतंकवादियों ने पंजाब में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रान्तीय सह संचालक जगदीश गगनेजा पर आक्रमण करके उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया । सेवानिवृत ब्रिगेडियर गगनेजा , ऐसा कहा जाता है कि गोली चलाने वाले आतंकवादी से उलझ गए थे , इसलिए बच गए अन्यथा इतनी नज़दीक़ से बचना बहुत मुश्किल होता है । इससे पहले भी पंजाब में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा पर आतंकवादियों ने हमला किया था । पंजाब में पिछले कुछ महीनों से तनाव बढ़ रहा है या फिर बढ़ाया जा रहा है । इसकी ताज़ा शुरुआत सितम्बर 2015 से कहीं जा सकती है जब शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ने डेरा सच्चा सौदा के मुखिया गुरमीत सिंह राम रहीम को माफ़ीनामा जारी कर दिया ।
पंजाब की सीमा पर , हरियाणा के सिरसा नामक नगर में गुरमीत सिंह राम रहीम का डेरा है , जो सच्चा सौदा के नाम से विख्यात है । इस डेरा का पंजाब के मालवा में , ख़ास कर वहाँ के दलित समाज पर, काफ़ी प्रभाव है । जब किसी व्यक्ति या डेरा का प्रभाव व्यापक होता है तो उसका राजनैतिक उपयोग या दुरुपयोग भी शुरु हो जाता है । यह डेरा आम तौर पर कांग्रेस का समर्थन करता है । मालवा में ही अकाली दल का प्रभाव है और प्रकाश सिंह बादल और उनका पूरा कुनबा भी यहीं का रहने वाला है । लम्बी राजनीति में डेरा सच्चा सौदा अकाली राजनीति के राह में रोड़ा बनता जा रहा था । पिछले कुछ अरसा से सिख पंथ के कुछ लोग डेरा के मालिक के कुछ कार्यकलापों को सिख पंथ के लिये अपमानजनक बताने लगे थे । इन कारणों को आधार बना कर शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के एक निकाय ने संत को सिख पंथ से निष्कासित कर रखा था । लेकिन संत के अनुयाइयों पर इसका बहुत प्रभाव नहीं पड़ा । इसके विपरीत वे अकाली दल के और ज़्यादा ख़िलाफ़ हो गये ।
लेकिन तभी एक चमत्कार हुआ । सितम्बर 2015 में अचानक अकाल तख़्त ने सच्चा सौदा डेरे के मालिक को अकाल तख़्त ने माफ़ी दे दी । इसकी प्रतिक्रिया होनी ही थी । इसका अन्दाज़ा अकाली दल को नहीं था , ऐसा नहीं माना जा सकता , क्योंकि प्रकाश सिंह बादल को अकाली दल की राजनीति करते करते ही सात दशक बीते हैं । सच्चा सौदा डेरे के मालिक को अकाल तख़्त द्वारा मुआफ़ी देने से उत्पन्न तनाव में उग्रवादी भी सक्रिय हो जायेंगे , यह निश्चित ही था । लेकिन प्रश्न यह है कि यह सब जानते बूझते हुये भी प्रकाश सिंह बादल ने सच्चा सौदा डेरे के मालिक को मुआफ़ी क्यों दिलवायी ? वैसे प्रत्यक्ष तौर पर तो बादल इस बात से इन्कार ही करेंगे कि इस पूरे घटनाक्रम में उनका या अकाली दल का कोई हाथ है । वे तो यही कहेंगे और कह भी रहे हैं कि यह मामला शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी का है , अकाली दल या पंजाब सरकार का उससे कुछ लेना देना नहीं है । लेकिन सभी जानते हैं कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी पर अकाली दल का ही नियंत्रण हैं । इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिये आगे के घटनाक्रम को पहले देख लेना होगा । मुआफ़ी देने के कुछ दिन बाद ही कुछ सिक्ख समूहों की प्रतिक्रिया को देखते हुये अकाल तख़्त ने अपना फ़ैसला वापिस ले लिया और सच्चा सौदा की स्थिति पूर्ववत हो गई । मुआफ़ी देने और मुआफ़ी देने का फ़ैसला वापिस लेने से इतना तो स्पष्ट है कि प्रकाश सिंह बादल का अकाली दल जन प्रतिक्रिया का अंदाज़ा नहीं लगा सका । ( या उसे अन्दाज़ा था और यह सब कुछ किसी और उद्देष्य की प्राप्ति के लिये जानबूझकर कर किया गया ।) पहला प्रश्न फिर भी अनुत्तरित रहता है कि मुआफ़ी दी ही क्यों गई ? न तो इसके लिये कहीं से माँग की जा रही थी , न ही कोई आन्दोलन चल रहा था । न ही मालवा क्षेत्र में सच्चा सौदा के उपासक इसके लिये सडकों पर उतर रहे थे । यह भी निश्चित है कि यह सारा घटनाक्रम संत गुरमीत राम रहीम सिंह को अकाल तख़्त द्वारा मुआफ़ किये जाने के बाद ही शुरु हुआ । इसलिये सारा रहस्य इस मुआफ़ दिए जाने की राजनीति के भीतर ही छिपा हुआ है । अकाली दल को ऐसी अचानक क्या जरुरत आन पड़ी कि उसे डेरा सच्चा सौदा के साथ जोड़ तोड़ करनी शुरु कर दी ? इसी के कारण उग्रवादी तत्वों को एक बार सार्वजनिक रुप से फिर संगठित होने का अवसर मिल गया । एक के बाद एक , पंजाब के कुछ स्थानों पर गुरु ग्रन्थ साहिब जी के अपमान के मामले सामने आये। उनको आधार बना कर पंजाब में , ख़ासकर उसके दो क्षेत्रों मालवा और माझा में रास्ते रोके जाने और धरना देने के आन्दोलन शुरु हो गये । इसी के चलते कुछ स्थानों पर पुलिस को गोली चलानी पडी , जिससे दो लोग मारे गये । दोनों तरफ़ के घायलों की संख्या ज़्यादा थी । लेकिन दुर्भाग्य से उन घटनाओं में शामिल तत्वों की भी शिनाख्त नहीं हो पाई है । एक स्त्री बलविन्दर कौर ,जिस पर इन घटनाओं में शामिल होने का आरोप था , उसको दो आतंकवादियों संगरूर के गुरप्रीत सिंह और पटियाला के निहाल सिंह ने आलमगीर गाँव में गुरुद्वारा मंजी साहिब के बिल्कुल सामने दिन दिहाडे मार दिया । वे दोनों आतंकवादी पुलिस की गिरफ़्त में हैं और वे इस हत्या से इन्कार भी नहीं कर रहे । यदि वह ज़िन्दा रहती तो शायद इस षड्यंत्र से कुछ पर्दे उठ सकते थे ।
प्रकाश सिंह बादल मानते हैं कि पाकिस्तान पंजाब में आतंकवादी गुटों को पुनः संगठित करने का प्रयास कर रहा है । उनको तो यह भी संदेह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जगदीश गगनेजा पर हुए आक्रमण में भी पाकिस्तान का हाथ हो सकता है । बादल का आरोप सही हो सकता है । इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान एक बार फिर पंजाब में आतंकवादी गुटों को संगठित करने का प्रयास कर रहा है । कुछ दशक पहले 1980 में उसने ही पंजाब में आतंकवादी ताक़तों को संगठित किया था और उन्हें पैसा और हथियार मुहैया करवाए थे । यह ठीक है कि अपने राजनैतिक हितों के लिए पंजाब में यह आग कांग्रेस ने जलाई थी लेकिन जल्दी ही उसकी बागडोर पाकिस्तान ने संभाल ली थी । तब आतंकवादी समूहों में पंजाब के बचे खुचे नक्सलवादी भी जा मिले थे । उस आग को पंजाब ने बहुत देर तक झेला । हज़ारों निर्दोषों को अपनी जान गँवानी पडी । पंजाब में आतंकवाद को समाप्त करने का ज़्यादा श्रेय बेअन्त सिंह और के पी एस गिल की जोड़ी को ही जाता है । इस लड़ाई में बेअन्त सिंह को अपनी जान भी गँवानी पडी ।
चाहे आतंकवाद और आतंकवादियों को पंजाब की आम जनता से बहुत ज़्यादा समर्थन प्राप्त नहीं हुआ और जन समर्थन से ही उनका शमन भी किया जा सका लेकिन फिर भी इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्थिति सामान्य हो जाने के बाद भी पंजाब और उससे बाहर आतंकवादियों के कुछ स्थाई छोटे छोटे गुट अपने अस्तित्व को बचाए रखने में सफल रहे । विदेशों में इन गुटों को अमेरिका , इंग्लैंड और कनाडा में भी प्रश्रय मिला । कुछ प्रत्यक्ष परोक्ष सहायता वहाँ की सरकारों से भी मिली होगी , इसमें कोई संदेह नहीं । आतंकवाद की इस पूरी पृष्ठभूमि को लेकर एक चिन्ता और भी है । पंजाब में नशे का व्यापार करने वालों का एक पूरा नैटवर्क बना हुआ है । नशे के ये सौदागर पंजाब में क़हर वरपा रहे हैं । नशे के इन तस्करों का पाकिस्तान के आतंकवादियों से भी सम्बंध है , यह पंजाब की इंटैलीजैंस एजेंसियाँ भी जानती हैं । लेकिन नशे के इन सौदागरों का पंजाब के राजनीतिज्ञों से भी रिश्ते हैं , यह भी कोई छिपा रहस्य नहीं है । इस प्रकार के अन्तर्सम्बधों के कारण आतंकवादियों को पकड़ना कितना मुश्किल होगा , इसका सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है ।
पंजाब में पिछली शताब्दी के अन्तिम दशक में जब आतंकवाद का दौर समाप्त हुआ तो तीन दशकों में बन गए ज़ख़्मों पर महरम लगाने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने अकाली दल के साथ मिल कर चुनाव लड़ने का निर्णय किया था । उस वक़्त के हालात में यह निर्णय बहुत जरुरी था । पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गान्धी ने पंजाब में हीलिंग टच की बातें तो बहुत कीं लेकिन अन्ततः यह दायित्व अकाली दल- भाजपा को मिल कर संभालना पडा । इस लिहाज़ से यह ऐतिहासिक समझौता था । अकाली भाजपा गठबंधन का सकारात्मक पक्ष यही कहा जा सकता है कि पंजाबी समाज में एक सामाजिक सांस्कृतिक साँझ सुरक्षित रही है जिसे पाकिस्तान समर्थक आतंकवादी समूह पिछले तीन दशकों से समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं । इसलिए इन दोनों पार्टियों का गठबंधन उतना राजनैतिक नहीं है जितना सामाजिक-सांस्कृतिक है । सामाजिक सांस्कृतिक लिहाज़ से यह समझौता लाभकारी ही कहा जा सकता है । ऊपरी तौर कहा जा सकता है कि अकाली भाजपा गठबंधन से सीटें जीतने के मामले में भाजपा को भी लाभ हुआ है , लेकिन उसने भाजपा को पूरे राज्य में कुछ गिने चुने स्थानों पर ही सीमित कर उसका विकास और प्रसार रोक दिया है । अकाली दल ने 1997 से भाजपा को लगभग बीस बाईस सीटों पर समेट रखा है । उससे ज़्यादा सीटें उसे मिल नहीं सकतीं । अकाली दल ने इस बात का ख़ास ख़्याल रखा है कि भाजपा को ये सीटें पंजाब के उन हिस्सों में ही मिलें जो हिमाचल प्रदेश , हरियाणा और राजस्थान की सीमा के साथ लगती हों । भाजपा को दी जाने वाली दूसरी सीटें भी जी टी रोड तक ही सीमित हैं । भाजपा के हिस्से में आने वाली 12 सीटें जी टी रोड पर ही हैं । शेष दस सीटें भी पंजाब के सीमान्त पर हैं । यानि कुल मिला कर कहा जा सकता है कि अकाली दल ने बहुत ही चतुराई से भाजपा को पंजाब के भीतरी इलाक़ों से बाहर रखा हुआ है । विशाल मालवा , माझा और दोआबा क्षेत्र भाजपा की पहुँच से बाहर कर दिया गया है ।
पंजाब में अकाली दल और सोनिया कांग्रेस ( पंजाब में 2002-2007 तक सोनिया कांग्रेस के कैप्टन अमरेन्द्र सिंह मुख्यमंत्री रहे) की राजनीति का एक और पक्ष भी है । इन दोनों दलों ने आतंकवादियों के बचे खुचे गुटों को समाप्त करने की बजाए उनको प्रश्रय देना पसन्द किया ताकि समय असमय उनका राजनैतिक लाभ उठाया जा सके । जैसा कि पंजाब के पूर्व डी जी पी शशि कान्त कहते हैं , पंजाब में अब आतंकवादी गुट , राज्य के मुख्य राजनैतिक दलों के लिए समय समय पर अपने राजनैतिक हित साधने का माध्यम हो गए हैं । शशि कान्त का कहना है कि अपने राजनैतिक हितों के लिए अकाली दल और सोनिया कांग्रेस दोनों ही आतंकवादी समूहों का उपयोग करते हैं । अपने आप में यह आरोप बहुत गंभीर है लेकिन यह पंजाब पुलिस के पूर्व अध्यक्ष की ओर से यह लगाया गया है , इसलिए न तो इसे हल्के में लिया जा सकता है और न ही सहज ही नकारा जा सकता है । यदि जगदीश गगनेजा पर हुए आतंकवादी हमले को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो चिन्ता और भी बढ़ जाती है । यही मुश्किल पंजाब में आतंकवादियों को पकड़ने में आ रही है ।
लेकिन अब पंजाब विधान सभा चुनावों के मुहाने पर आ गया है । इसलिए सभी दलों ने राजनैतिक हितों को प्राथमिकता देनी शुरु कर दी है । इसीलिए शक होता है कि इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए कहीं राजनैतिक ध्रुवीकरण का प्रयास तो नहीं हो रहा ? कहीं इन्हीं प्रयासों के कारण आतंकवादी सिलैक्टिव टारगेटों को निशाना तो नहीं बना रहे ? कहा जा रहा है कि इंटैलीजैंस एजेंसियों ने कुछ दिन पहले आगाह किया था कि पंजाब में आर एस एस के किसी बड़े व्यक्ति को निशाना बनाया जा सकता है । इसके बावजूद जगदीश गगनेजा की सुरक्षा की व्यवस्था क्यों नहीं की गई ? पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल का यह कहना बिल्कुल सही है कि पड़ोसी देश राज्य की शान्ति को भंग करने के लिए आतंकवादियों को शह दे रहा है । गगनेजा पर हुए हमले में भी पाकिस्तान से संचालित आतंकी गिरोह हो सकता है । लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि इतना जानते बूझते रहने के बाद भी सरकार ने क्या किया ? पिछले कुछ महीनों में ही आतंकी हमलों की पाँच छह घटनाएँ हो चुकी हैं । लेकिन किसी घटना में भी अपराधी पकड़े नहीं गए । इसी के कारण पंजाब के लोगों के मन में संशय पैदा हो रहा है ।
आज पंजाब को सबसे ज़्यादा जरुरत चाक चौबन्द क़ानून व्यवस्था की है । विकास भी तभी संभव है यदि राज्य की क़ानून व्यवस्था चुस्त दुरुस्त होगी । सोनिया कांग्रेस पंजाब में आतंकवाद की घटनाओं पर सरकार को घेरने की कोशिश तो कर रही है लेकिन मोटे तौर पर उसकी नीति भी वोटों के लालच में ध्रुवीकरण पर ही टिकी हुई है । क्या कारण है कि जब कभी यह चर्चा शुरु होती है कि भाजपा को अकाली दल से अलग होकर चुनाव ना चाहिए तो पंजाब में आतंकी वारदातें बढ़ जाती हैं ? प्रकाश सिंह बादल राजनीति से उपर उठकर आतंकवाद के ख़िलाफ़ नीति बनाएँ । अनिश्चय के वातावरण का सबसे ज़्यादा लाभ आतंकवादियों और उनके समर्थकों को ही मिल सकता है ।